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वरिष्ठ, अनुभवी और योग्य पत्रकारों के विरुद्ध षड्यंत्र और अपमान : समाज के लिए गहराता संकट

 

आज का दौर पत्रकारिता के लिए जितना कठिन है, उतना ही समाज के लिए भी खतरनाक हो चला है। वह पत्रकारिता, जिसने कभी जनता की आवाज़ बनकर भ्रष्टाचारियों की नींद हराम की थी, जिसने गलत नीतियों की सकारात्मक आलोचना करके सत्ता को आईना दिखाया था—आज वही पत्रकारिता अपमान और उपेक्षा की शिकार हो रही है।

कितना आश्चर्यजनक और दुखद है कि अनुभवी, योग्य और कलम के धनी पत्रकारों को योजनाबद्ध तरीके से हाशिये पर धकेला जा रहा है। उन्हें न तो सम्मान दिया जा रहा है, न ही उनके अनुभव का मूल्यांकन। बल्कि हालात ऐसे बना दिए गए हैं कि वे अपनी सशक्त कलम को छोड़ने और कार्यक्रमों से दूर रहने के लिए मजबूर हो गए हैं।

आज शासन-प्रशासन के आयोजनों में जिन लोगों को पत्रकारों के रूप में कुर्सियों पर बैठाया जाता है, वे न तो पत्रकारिता की समझ रखते हैं, न समाज के प्रति कोई जवाबदेही। उनमें अधिकांश वे लोग हैं जो अयोग्य, चरित्रहीन, व्यसनी और चापलूस हैं। उनकी पहचान सिर्फ एक है—ब्लैकमेलिंग। और यही गिरोह, सत्ता के सहारे, असली पत्रकारों को दरकिनार करने की साज़िश रच रहा है।

तो प्रश्न उठता है—क्या यह वही लोकतांत्रिक व्यवस्था है, जहाँ पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया था? या अब यह स्तंभ खोखला कर दिया गया है, ताकि जनता तक सच्चाई पहुँचने का रास्ता हमेशा के लिए बंद हो जाए?

कार्यक्रमों की सूचना असली पत्रकारों को या तो दी ही नहीं जाती, और यदि दी भी जाती है तो कार्यक्रम शुरू होने से कुछ समय पहले। और यदि किसी वरिष्ठ पत्रकार की ईमानदार मौजूदगी वहाँ हो भी जाए, तो उसका अपमान करने के लिए पूरा तंत्र तैयार रहता है। यह सब संयोग नहीं, बल्कि एक सुनियोजित षड्यंत्र है—जिसका मकसद है योग्य और ईमानदार पत्रकारों को समाज के सामने से गायब कर देना।

यह स्थिति केवल पत्रकारों के लिए ही नहीं, पूरे समाज के लिए पीड़ा और चिंता का विषय है। क्योंकि पत्रकारिता यदि गिरोहबाज़ी, चापलूसी और सौदेबाज़ी में बदल गई तो जनता की आवाज़ कौन बनेगा? जब सच्चाई की कलम ही टूट जाएगी तो जनता तक कौन-सा आईना पहुँचेगा? क्या यही वह भविष्य है जिसकी हम कल्पना करते हैं—जहाँ ईमानदार पत्रकार किनारे बैठा है और नकली पत्रकार मंच की शोभा बढ़ा रहा है? क्या यही वह स्थिति है जहाँ कलम बिक चुकी है और सच दफन हो चुका है?

सम्मानित, योग्य और अनुभवी पत्रकार धीरे-धीरे कार्यक्रमों से दूर हो रहे हैं। वे अपमान से बचना चाहते हैं, पर उनकी दूरी का लाभ वही संगठित गिरोह उठा रहा है जो अब पत्रकारों की कुर्सियों पर काबिज हो चुका है। यह वही गिरोह है जो आगे चलकर समाज और देश के लिए एक बड़ा संकट साबित होगा। क्योंकि जब प्रहरी ही गुनहगार हो जाएगा, जब कलम ही सौदे में बिक जाएगी—तो समाज का भविष्य किस हाथ में होगा?

आज सवाल सिर्फ पत्रकारों के अपमान का नहीं है। सवाल लोकतंत्र की आत्मा का है। सवाल इस देश की जनता का है। सवाल उस सच्चाई का है, जो अब छुपाई जा रही है। और यह प्रश्न, कड़वा होते हुए भी, हर सोचने वाले नागरिक के सामने खड़ा है—

"क्या हम वह समाज बन चुके हैं जहाँ सत्य की कलम को तोड़ा जाता है और झूठ के ढोंगी को मंच पर बिठाया जाता है?"

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