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“कांग्रेस या शाखा? पार्टी नहीं, रीमेक चल रहा है!”

 

कांग्रेस इन दिनों किसी राजनीतिक दल से ज़्यादा एक बाज़ार जैसी दिखने लगी है — जहां विचार नहीं, चेहरे बिकते हैं। पुराने कार्यकर्ता, जो कभी इस पार्टी की रीढ़ कहे जाते थे, अब किनारे धकेल दिए गए हैं। उनकी जगह ले ली है कुछ ऐसे नए चेहरों ने, जिनका कांग्रेस से रिश्ता उतना ही नया है जितना किसी ताज़ा खुले दुकान का बोर्ड। ये नए चेहरे न विचार जानते हैं, न संघर्ष की मिट्टी की खुशबू; बस चमक-दमक और प्रचार में जीते हैं। कांग्रेस अब संघर्ष की नहीं, सेल्फी की राजनीति पर चल रही है।

जो कल तक कांग्रेस का मज़ाक उड़ाते थे, आज वही कांग्रेस की बागडोर थामे घूम रहे हैं। धनबल और दिखावे की ताकत से ये नवेले ऐसे पदों पर बैठ गए हैं, जिनके लिए पुराने कार्यकर्ता दशकों तक पसीना बहाते रहे। न विचार बचा है, न सिद्धांत — बस प्रचार और सत्ता की दौड़। यह दृश्य वैसा ही है जैसे घर के मालिक बाहर कर दिए जाएं और किरायेदार कब्ज़ा कर लें। पार्टी अब उन लोगों के कब्जे में है जो इसे एक मंच समझते हैं, विचार नहीं। कुछ के पारिवारिक एलबम में भाजपा का झंडा लहराता दिखता है, और अब वही लोग कांग्रेस की बैठकों में नारे लगाते हैं — इतनी सहजता से मानो विचारधारा भी कपड़ों की तरह बदली जा सकती हो।

लोग अब व्यंग्य में कहते हैं — “कांग्रेस अब विपक्ष नहीं, विपक्ष का विकल्प है।” और सच भी यही है। कांग्रेस की दिशा अब इतनी धुंधली हो चुकी है कि आने वाले दिनों में गांधी भवन में ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ का गायन शुरू हो जाए तो कोई हैरानी नहीं होगी। शहर की सड़कों पर संघ गणवेश में कुछ कांग्रेसी नेताओं को पथ संचलन में कदमताल करते देखना भी अब असंभव नहीं लगता — दिशा वही है, बस प्रतीक बदल गए हैं।

अब यह समझना कठिन हो गया है कि ये लोग कांग्रेस को मज़बूत करने आए हैं या धीरे-धीरे उसका स्वरूप बदलने। पुराने कार्यकर्ता चुपचाप देखते हैं और कहते हैं — “ये कांग्रेस नहीं, उसका रीमेक है।” और इस रीमेक की स्क्रिप्ट लिखी जा रही है धन और दिखावे की स्याही से।

कांग्रेस आज भी अपने ही जाल में उलझी पार्टी बन चुकी है। उसके लिए राजनीति अब जनता की अपेक्षाओं या देशहित की दिशा में चलने का माध्यम नहीं, बल्कि आपसी खींचतान और दिखावटी नूरा कुश्ती का अखाड़ा बन गई है। नेताओं के बीच का संघर्ष, एक-दूसरे की टांग खींचने की प्रवृत्ति और परिवारवाद ने इसे भीतर से खोखला कर दिया है। विचारधारा की बात करने वाली यह पार्टी अब केवल सत्ता और पद के समीकरण में सिमटकर रह गई है।

हर हार के बाद भी कांग्रेस आत्ममंथन करने के बजाय दूसरों पर दोष मढ़ने की अपनी पुरानी आदत नहीं छोड़ती। उसे लगता है कि वही राजनीति की धुरी है, जबकि जनता ने कई बार उसे स्पष्ट संकेत दिया है कि उसका युग अब समाप्त हो चुका है। लेकिन पार्टी की आत्ममुग्धता उसे यह सच्चाई स्वीकार नहीं करने देती।

मध्य प्रदेश इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कांग्रेस को अपनी इसी मानसिकता और आंतरिक नूरा कुश्ती का परिणाम सबसे बड़े झटके के रूप में तब मिला जब ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे प्रभावशाली और युवा नेता ने पार्टी से किनारा कर लिया। सिंधिया का जाना सिर्फ एक व्यक्ति का प्रस्थान नहीं था, बल्कि उस सोच का पतन था जिसमें मेहनत और प्रतिभा की जगह चापलूसी को प्राथमिकता दी जाती थी। इसी क्षण कांग्रेस की जमीन खिसकनी शुरू हुई और आज हालत यह है कि मध्य प्रदेश में यह पार्टी लगभग समाप्तप्राय हो चुकी है।

दुर्भाग्य यह है कि इतनी पराजयों और बिखराव के बावजूद कांग्रेस अब भी सबक लेने को तैयार नहीं। न नेतृत्व में बदलाव की इच्छा, न सोच में परिवर्तन, न कार्यशैली में सुधार। बस वही पुराना ढर्रा — ऊपरी बयानबाज़ी, अंदरूनी गुटबाज़ी और अवसरवाद। पुराने कार्यकर्ताओं के मन में अब बस यही भय है कि कहीं आने वाले समय में पार्टी कार्यालय के बाहर नया बोर्ड न लग जाए — “गांधी भवन — पूर्व में कांग्रेस कार्यालय।”

और तब जब कोई राहगीर रुककर पूछेगा — “भाई, ये कांग्रेस कभी जिंदा थी क्या?” तो जवाब मिलेगा — “थी... पर अब शायद शाखा में शामिल हो गई है।”

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