स्वघोषित कलमवीरों का लिफाफा महोत्सव – दिवाकर शर्मा
नेताओं के घरों के बाहर इन दिनों एक नया मेला लगता है, मिठाई और लिफाफों का। एक स्वघोषित ‘समन्वयक’ इन तथाकथित कलमकारों की सूची लेकर घूमता है, यह तय करता है कि किसे कौन-सा डिब्बा और कितना आशीर्वाद दिया जाए। और अफसोस यह है कि कई लोग, जो कभी सच्चाई का शस्त्र थे, अब उसी लिफाफे के वजन तले दब चुके हैं।
नए नवेले ‘मीडिया उत्साही’ अगर इस दिखावे और लालच की दुनिया में खिंच जाएँ तो हैरानी नहीं होती, लेकिन जो वर्षों से खुद को अनुभवी बताने वाले हैं, वही जब इस संस्कृति में उतरते हैं तो यह स्थिति और भी चिंताजनक हो जाती है। ये वही लोग हैं जो कभी सच्चाई के प्रहरी कहलाते थे, और आज उन्हीं के हाथों में कलम नहीं, बल्कि सौदे की रसीदें हैं।
इन चंद लिफाफा-प्रेमियों ने न केवल अपनी साख खोई है बल्कि असली, मेहनती और ईमानदार कलमकारों की छवि को भी धूमिल कर दिया है। जनता अब हर कलम को एक ही नजर से देखने लगी है शक और अविश्वास की नजर से। जिन शब्दों ने कभी जनता के पक्ष में आवाज़ उठाई थी, अब वही शब्द सत्ता की गोद में सो रहे हैं।
यह प्रवृत्ति केवल कुछ व्यक्तियों का पतन नहीं है, बल्कि पूरे समाज के लिए एक खतरनाक संकेत है। जब खबरें बिकने लगें, जब सच्चाई का मोल तय होने लगे, तो लोकतंत्र का संतुलन डगमगाने लगता है। पत्रकारिता, जो कभी चौथा स्तंभ कही जाती थी, अब कुछ लोगों की वजह से कमजोर दीवार बनती जा रही है और सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इन लिफाफा-भक्तों को अपने कृत्य पर कोई शर्म नहीं। उल्टा इन्हें गर्व है कि वे नेताओं के करीब हैं, मानो यह पेशा अब ईमान का नहीं, ‘संबंधों का धंधा’ बन चुका हो।
अब सवाल यह है कि अगर कलम बिक जाएगी, तो सच्चाई कौन बोलेगा? अगर कलमवीर लिफाफे में बंद हो जाएँगे, तो जनता की आवाज़ कौन उठाएगा? क्या अब पत्रकारिता केवल त्योहारों तक सीमित रह जाएगी जहाँ हर खबर के साथ एक मिठाई का डिब्बा और एक मुस्कुराता चेहरा मिले?
शायद अब समय आ गया है कि दीपावली पर हम सिर्फ घरों की सफाई न करें, बल्कि अपने पेशे, अपनी सोच और अपनी कलम की भी सफाई करें। क्योंकि अगर यह लिफाफा संस्कृति यूँ ही चलती रही, तो आने वाली पीढ़ियाँ शायद यही कहेंगी “भारत में कभी सच्चाई लिखने वाले लोग हुआ करते थे, जिन्हें कुछ चमकते लिफाफों ने निगल लिया।”

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