लेबल

क्या आप अपने श्रम के अधिकार जानते हैं?

 


भारत की धरती पर श्रम को हमेशा पूजा का दर्जा दिया गया है। कहा गया “कर्म ही पूजा है।” पर आज यह वाक्य केवल किताबों में रह गया है। धरातल पर जब हम देखते हैं, तो पसीने से भीगी हुई हथेलियाँ, थके हुए कंधे और उम्मीदों से भरी आँखें उस वास्तविकता की गवाही देती हैं जिसमें श्रमिक सिर्फ काम करता है, लेकिन अपने हक के लिए बोल नहीं पाता। उसकी मेहनत से इमारतें खड़ी होती हैं, उद्योग चलते हैं, शहरों की रौनक कायम रहती है, लेकिन जब उसकी बारी आती है, तो उसे केवल “मजदूर” कहकर किनारे कर दिया जाता है।

देश के लाखों-करोड़ों कामगार आज भी इस बात से अनजान हैं कि भारत में श्रम विभाग ने उनके हितों की रक्षा के लिए कितने कठोर और स्पष्ट कानून बनाए हैं। Factories Act 1948 साफ कहता है कि किसी भी कर्मचारी से आठ घंटे से अधिक काम लिया जाए तो उसे ओवरटाइम का दोगुना भुगतान मिलना चाहिए। पर क्या आपको किसी ऐसी फैक्टरी का नाम याद है जहाँ यह नियम ईमानदारी से लागू हो रहा हो? सच्चाई यह है कि अधिकांश जगह मजदूर से बारह घंटे तक काम लिया जाता है, और ओवरटाइम का नाम लेने पर जवाब मिलता है “अगर काम करना है तो करो, वरना बहुत लोग लाइन में खड़े हैं।”

Payment of Wages Act 1936 के अनुसार, हर कर्मचारी को महीने की 7 तारीख तक सैलरी मिल जानी चाहिए। मगर हकीकत यह है कि वेतन कभी 10 तारीख को, कभी 15 तारीख को, तो कभी अगले महीने तक टल जाता है। मजदूर हिम्मत नहीं करता कुछ कहने की, क्योंकि उसे डर है कि कहीं अगली बार नाम ही काट न दिया जाए। एक ऐसा देश जहाँ समय पर वेतन मांगना भी जोखिम बन जाए, वहाँ कानून की गरिमा किस काम की?

महिला कर्मचारियों के लिए Maternity Benefit Act 1961 ने 26 सप्ताह के सवेतन अवकाश का प्रावधान किया है। यह केवल महिला के स्वास्थ्य के लिए नहीं, बल्कि मानवता के सम्मान का प्रतीक है। पर छोटी कंपनियाँ, निजी संस्थान, दुकानें आज भी इस नियम को कागज़ की बात समझते हैं। गर्भवती होते ही नौकरी से निकाल दिया जाना, या छुट्टी मांगने पर वेतन काट लेना ये सब रोज़मर्रा की कहानियाँ हैं। क्या हम सचमुच उस समाज में रह रहे हैं जो “नारी शक्ति” की बात करता है?

Employees Provident Fund (EPF) और Employee State Insurance (ESI) दो ऐसे कानून हैं जो किसी भी कर्मचारी के भविष्य और स्वास्थ्य को सुरक्षा देते हैं। ₹21,000 या उससे कम वेतन पाने वाले को ESI के तहत मुफ्त या सस्ती चिकित्सा सुविधा मिलनी चाहिए। लेकिन ज़्यादातर श्रमिकों को यह तक नहीं पता कि ESI कार्ड कैसे बनता है। और जो जानते हैं, वे भी अपने मालिक के डर से आवाज़ नहीं उठाते क्योंकि मालिक कह देता है “ESI में नाम चढ़ा तो हाथ में मिलने वाली सैलरी कम हो जाएगी।” ऐसे में सवाल उठता है क्या मजदूर को स्वास्थ्य का अधिकार भी विलासिता बन चुका है?

Shops and Establishment Act यह सुनिश्चित करता है कि हर कर्मचारी को नियुक्ति पत्र मिले, छुट्टी मिले, और समय पर वेतन मिले। लेकिन वास्तविकता यह है कि देश के अधिकांश निजी कर्मचारी बिना किसी लिखित अनुबंध के काम कर रहे हैं। जब तक मालिक चाहे तो नौकरी है, और जब चाहे तो निकाल देता है। कर्मचारी की पहचान का कोई सबूत नहीं, उसके अस्तित्व की कोई गारंटी नहीं। ऐसे में “रोजगार” शब्द केवल भ्रम बनकर रह गया है।

Industrial Disputes Act 1947 कहता है कि किसी स्थायी कर्मचारी को बिना कारण निकाला नहीं जा सकता। उसे एक महीने का नोटिस या एक महीने की सैलरी दी जानी चाहिए। लेकिन सच पूछिए तो कितने लोग इस नियम का लाभ उठा पाए? जो आवाज़ उठाता है, उसे ‘मुश्किल कर्मचारी’ घोषित कर दिया जाता है। और फिर एक दिन उसका नाम उपस्थिति रजिस्टर से गायब हो जाता है।

आज स्थिति यह है कि भारत में कानून तो मजबूत हैं, लेकिन उनका पालन कमजोर। श्रम विभाग के दफ्तरों में शिकायतें तो दर्ज होती हैं, पर न्याय कब मिलेगा इसका कोई भरोसा नहीं। नियोक्ता के पास पैसे हैं, वकील हैं, संपर्क हैं जबकि श्रमिक के पास केवल समय है, जो अदालत की तारीखों में खो जाता है। कानून जिनके लिए बने हैं, वे ही उनसे सबसे दूर हैं। यही सबसे बड़ी विसंगति है जब न्याय का रास्ता जानने वालों के लिए खुला है, पाने वालों के लिए नहीं।

हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ श्रमिकों के अधिकारों की चर्चा केवल 1 मई (मजदूर दिवस) पर होती है, और फिर पूरे साल मजदूर वही पुरानी बेड़ियाँ ढोता रहता है। उसकी आवाज़ को या तो अनसुना किया जाता है या दबा दिया जाता है। जो लोग उसकी मदद कर सकते हैं, वे “विकास” के नाम पर उसकी पीड़ा को आंकड़ों में बदल देते हैं।

पर अब यह मौन टूटना चाहिए। हर श्रमिक को यह समझना होगा कि उसका श्रम किसी एहसान का परिणाम नहीं, बल्कि एक अधिकार है। सरकारों को, संस्थानों को और समाज को यह याद दिलाना होगा कि जब तक श्रमिक का जीवन सुरक्षित नहीं, तब तक कोई विकास स्थायी नहीं। यह बात केवल मजदूरों की नहीं है यह उस हर व्यक्ति की है जो किसी के अधीन काम करता है, चाहे वह फैक्टरी का वर्कर हो, स्कूल का शिक्षक, या किसी दुकान का कर्मचारी।

श्रम विभाग के नियमों को केवल कानून की किताबों से निकालकर दीवारों पर, गलियों में, बस स्टैंडों पर और मजदूर बस्तियों में लिखा जाना चाहिए, ताकि हर व्यक्ति अपने हक को पहचान सके। क्योंकि जब तक श्रमिक को अपने अधिकारों की जानकारी नहीं होगी, तब तक उसका शोषण कानूनी लफ्ज़ों में छिपा रहेगा।

यह लेख केवल एक जानकारी नहीं, बल्कि एक चेतावनी है उस हर मजदूर के लिए जो अपने श्रम से इस देश को चलाता है, लेकिन अपने अधिकारों से अंजान है। क्योंकि जब तक श्रमिक जागेगा नहीं, तब तक शोषण सोने नहीं देगा। और जिस दिन श्रमिक जाग जाएगा उसी दिन सच्चा भारत भी जाग जाएगा।

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें