मानसरोवर की मुक्ति के लिए प्रेरित करती आर्यभूमि की सांस्कृतिक आत्मा – डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर
जब विचार कर्म बन जाए, कर्म संस्कृति बन जाए, और संस्कृति राष्ट्र का पर्याय बन जाए तब मुक्ति केवल मानसरोवर की नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता की होती है। लेखक के रूप में जब मैं कहता हूँ कि “मैं भी संघ का एक सूक्ष्म घटक हूँ,” तो यह व्यक्तिगत अनुभव का निष्कर्ष है। कभी–कभी जब मैं चिंतन करता हूँ तो महसूस होता है कि समाज ने संघ से जितनी अपेक्षाएँ रखी हैं, उतनी शायद किसी संगठन से पहले कभी नहीं रखी गईं। अब जबकि समाज की यह अपेक्षा बढ़ रही है, संघ को अपनी गति और तीव्र करनी होगी। इसमें पुराने, अनुभवी कार्यकर्ताओं की भूमिका तो है ही, पर नए युवाओं के उत्साह की भी आवश्यकता है। यही कारण है कि आज का संघ पीढ़ियों के संवाद का मंच बन चुका है। सरसंघचालक जी का यह कथन कि “समय अनुकूल है” इस ओर संकेत करता है कि समाज और संगठन के बीच सामंजस्य का अवसर अब पहले से कहीं अधिक है। परंतु यह भी सच है कि यदि समाज केवल मूकदर्शक बनकर संघ को देखता रहेगा और स्वयं जुड़कर योगदान नहीं देगा, तो इस परिवर्तन की प्रक्रिया लंबी होगी और परिणाम भी विलंबित।
भारत और तिब्बत के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक रिश्ते हजारों वर्षों पुराने हैं। कैलाश–मानसरोवर न केवल एक तीर्थ स्थल है, बल्कि यह भारत और तिब्बत की आत्माओं को जोड़ने वाला सेतु है। जब तिब्बती निर्वासित सरकार की सुरक्षा मंत्री डोलमा गैरी कहती हैं कि “मानसरोवर की मुक्ति भारत और तिब्बत का सामूहिक स्वप्न है, मानसरोवर की मुक्ति के लिए प्रेरित करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इतिहास: डोलमा गैरी और इस स्वप्न की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देश प्रेम एवं इतिहास हमें प्रेरित करता है,” तो यह केवल एक राजनीतिक या धार्मिक वक्तव्य नहीं, बल्कि एक गहरी सांस्कृतिक चेतना का उद्घोष है। भारत का इतिहास केवल राजनीतिक घटनाओं का क्रम नहीं, बल्कि यह एक जीवित सभ्यतागत यात्रा है — एक ऐसी निरंतर धारा जो अध्यात्म, संस्कृति और सामाजिक एकता के माध्यम से मानवता को दिशा देती रही है। इसी व्यापक भारतीय चेतना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इतिहास एक अद्वितीय स्थान रखता है। यह संगठन केवल राजनीतिक या सामाजिक इकाई नहीं, बल्कि एक ऐसी चेतन परंपरा है जिसने पिछले एक शताब्दी में भारत को आत्मबोध, आत्मबल और आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर किया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शताब्दी वर्ष केवल उत्सव नहीं, बल्कि आत्ममंथन का क्षण भी है। यह स्वीकारोक्ति संघ के उस साहसिक इतिहास की गवाही देती है, जिसमें संघर्ष भी था और साधना भी। संघ की शाखा उसके संगठनात्मक ढाँचे की आत्मा हैं। संघ की यात्रा केवल संगठनात्मक विस्तार की कहानी नहीं, बल्कि समाज के आत्मविश्वास की पुनर्स्थापना की प्रक्रिया है। यह वही संगठन है जिसने स्वयं सेवक को केवल शाखा तक सीमित नहीं रखा, बल्कि जीवन जीने का तरीका बना दिया। “संघ में बढ़ते सामाजिक सहभाग ने वैश्विक शक्तियों को हैरत में डाल दिया है। निर्वासित तिब्बती सुरक्षा मंत्री, डोलमा गिरि ने अपने संबोधन में यह भी कहा कि प्रत्येक तिब्बती भारत को “आर्यभूमि” कहता है, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस आर्यभूमि की परंपरा, सांस्कृतिक आत्मा और इतिहास का संवाहक है। यह कथन भारत–तिब्बत संबंधों के उस आध्यात्मिक आयाम को उजागर करता है, जो हिमालय की बर्फ़ से भी अधिक शीतल और गंगा के प्रवाह से भी अधिक सतत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने सौ वर्ष के इतिहास में “राष्ट्र” की परिभाषा को भौगोलिक सीमाओं से परे ले जाकर उसे “संस्कृति” के रूप में स्थापित किया।
यही कारण है कि संघ का दृष्टिकोण केवल भारत तक सीमित नहीं, बल्कि “वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा से प्रेरित है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिंतन में धर्म केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि कर्तव्य का बोध है। जब तिब्बत के संघर्ष में संघ के स्वयंसेवक समर्थन की बात करते हैं, तो यह किसी राष्ट्र की राजनीति नहीं, बल्कि संस्कृति की रक्षा का विषय बन जाता है। यही वह भाव है जो तिब्बती जनता को भारत के साथ जोड़ता है और “मानसरोवर की मुक्ति” को एक साझा स्वप्न बनाता है। यह केवल धार्मिक या प्रतीकात्मक नहीं है। यह एक गहन सभ्यतागत संवाद का उद्घोष है — भारत और तिब्बत की सांस्कृतिक आत्मा के बीच ऐसा वैचारिक सेतु जो धर्म, पर्यावरण, और स्वतंत्रता की साझा आकांक्षा को जोड़ता है। सभ्यतागत संवाद मानसरोवर और भारतीय आत्मा का बंधन, मानसरोवर और कैलाश का क्षेत्र भारत, तिब्बत, नेपाल और चीन की सीमाओं से बहुत परे एक आध्यात्मिक भूगोल का प्रतीक है। यह स्थल हिंदू, बौद्ध, जैन और बोन परंपराओं के लिए समान रूप से पवित्र है — एक ऐसा स्थल जहाँ जल, पर्वत और आत्मा का संगम होता है।
पास, जिसे पार करने के बाद तीर्थयात्री मानसरोवर के दर्शन करते हैं, केवल एक भौगोलिक मार्ग नहीं, बल्कि यह बंधन से मुक्ति की यात्रा का दार्शनिक प्रतीक है। जब डोलमा गैरी मानसरोवर की मुक्ति की प्रेरणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास में देखती हैं, तो वह भारत की उसी आत्मचेतना की ओर संकेत करती हैं जो सेवा, अनुशासन और त्याग के माध्यम से समाज को पुनर्जीवित करती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक शताब्दी का वैचारिक पुनर्जागरण, 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य कभी केवल राजनीति नहीं रहा — इसका मूल लक्ष्य था चरित्र निर्माण, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता। इसकी यात्रा स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आत्मनिर्भर भारत तक एक ऐसी वैचारिक क्रांति की दास्तान है जिसने समाज के हर स्तर पर कर्तव्यनिष्ठ नागरिकता का संस्कार जगाया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक भारत को सभ्यतागत राष्ट्र के रूप में देखते हैं — जहाँ राष्ट्रवाद का आधार भूगोल नहीं, बल्कि संस्कृति और धर्म है।
तिब्बत–भारत संबंध: धर्म और धरती का साझा धागा, भारत और तिब्बत का संबंध केवल सीमाओं या धर्म के साझा प्रतीकों तक सीमित नहीं। यह एक धार्मिक-सांस्कृतिक निरंतरता है — जहाँ हिमालय, गंगा और कैलाश, मानवता के लिए एक साझा चेतना के प्रतीक बन जाते हैं। गुरु पद्मसंभव, आचार्य शंकर, और बौद्ध दार्शनिकों की यात्राओं ने इस संबंध को एक दिशा दी — जहाँ भारत ‘प्रकाश का उद्गम स्थल’ रहा और तिब्बत ‘उस प्रकाश का प्रसार क्षेत्र’। 1950 के दशक में जब तिब्बत पर चीनी आधिपत्य स्थापित हुआ, तब भारत ने निर्वासित तिब्बतियों को केवल शरण नहीं दी, बल्कि उन्हें संस्कृति और आत्मबल की पुनर्स्थापना का अवसर दिया। आज धर्मशाला, बोधगया, जैसे केंद्र तिब्बती संस्कृति के पुनर्जागरण के जीवंत प्रतीक हैं। इसी संदर्भ में डोलमा गैरी का कथन यह संकेत देता है कि तिब्बत की मुक्ति का मार्ग केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक पुनर्जागरण से होकर गुजरता है — वही पुनर्जागरण जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत में समाज-निर्माण के माध्यम से संभव किया।
डोलमा गैरी का संदेश: श्रद्धा से संकल्प तक, डोलमा गैरी की दृष्टि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक जीवित अनुशासन है — एक ऐसी चेतना जो व्यक्ति से लेकर समाज तक, सभी में आत्मबल का संचार करती है। उनके कथन में “मानसरोवर की मुक्ति” एक प्रतीक है — दमन से धर्म की मुक्ति का, भय से स्वतंत्रता का, और संघर्ष से समरसता का। यह वही मार्ग है जिसे संघ अपने “कर्मयोग” के सिद्धांत से जोड़ता है — निष्काम सेवा के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति। इस प्रकार मानसरोवर केवल भौगोलिक स्थल नहीं, बल्कि एक दार्शनिक प्रतीक बन जाता है — मानव आत्मा का, जो बाहरी बंधनों से मुक्त होकर आंतरिक चेतना में प्रवेश करती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सांस्कृतिक भूगोल का पुनर्निर्माण, संघ का सबसे बड़ा योगदान है — भारत के सांस्कृतिक भूगोल की पुनर्परिभाषा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्षेत्र में धर्म केवल पूजा नहीं, बल्कि समाज का संगठन है। इसके दृष्टिकोण में तीर्थ, संस्कृति और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। कैलाश-मानसरोवर यात्रा, चारधाम परियोजनाएँ, तिब्बत अध्ययन केंद्र, और सेवा भारती जैसी संस्थाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि भारत के आध्यात्मिक भूगोल को जीवित रखने के लिए संघ ने समाज को सहभागिता के केंद्र में रखा। अंतरराष्ट्रीय विमर्शों में इसे आध्यात्मिक पारिस्थितिकी कहा जाता है — जहाँ धर्म, प्रकृति और समाज के बीच संतुलन को स्थायी विकास का आधार माना जाता है। संघ की यह दृष्टि “धर्म-पर्यावरणीय समरसता” का आधुनिक भारतीय मॉडल प्रस्तुत करती है।
पंच परिवर्तन: वैचारिक पुनर्जागरण का स्तंभ, संघ के वैचारिक ढाँचे में ‘पंच परिवर्तन’ केवल नारा नहीं, बल्कि भारत के भविष्य का खाका है —इन परिवर्तनों का अंतिम उद्देश्य केवल राजनीतिक स्वावलंबन नहीं, बल्कि आत्मिक मुक्ति है — वही मुक्ति जो मानसरोवर की तरह शुद्ध, शांत और चिरस्थायी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा प्रतिपादित ‘पंच परिवर्तन’—स्वबोध, कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, नागरिक कर्तव्य और पर्यावरण संरक्षण—आज के भारत के सामाजिक और नैतिक पुनर्निर्माण की आधारशिला है। स्वबोध (Self-Realization): संघ का पहला लक्ष्य व्यक्ति को अपने भीतर झाँकने, अपनी जड़ों से जुड़ने, और अपने राष्ट्र से तादात्म्य स्थापित करने की प्रेरणा देना है। कुटुंब प्रबोधन (Family Awakening): परिवार संघ के लिए समाज की प्रथम इकाई है। जब परिवार में संवाद, संस्कार और समरसता होगी, तभी राष्ट्र सशक्त होगा। सामाजिक समरसता (Social Harmony): जाति, वर्ग या धर्म के भेदभाव को मिटाकर एक समतामूलक समाज की स्थापना संघ का मूल उद्देश्य है। नागरिक कर्तव्य (Civic Duty): संघ व्यक्ति को अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों का भी बोध कराता है—यह राष्ट्रवाद को व्यवहारिक बनाता है। पर्यावरण संरक्षण आधुनिक भारत में पर्यावरणीय संकट के बीच यह विचार अत्यंत प्रासंगिक है; संघ इसे केवल नीति नहीं, साधना मानता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह आग्रह कि “प्रत्येक नागरिक इन पाँच में से किसी एक कार्य को अपने जीवन से जोड़े,” वास्तव में समाज को संगठन का सहयात्री बनने का निमंत्रण है। संघ मानता है कि परिवर्तन किसी एक संगठन की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि समूचे समाज की सामूहिक साधना है।
आज जब वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत की भूमिका पुनर्परिभाषित हो रही है, तब हिमालय केवल भौगोलिक सीमा नहीं, बल्कि मानव सभ्यता की नैतिक सीमा बन गया है। भारत का “सॉफ्ट पावर” अब धर्म, योग, पर्यावरण, और करुणा के रूप में विश्व को दिशा दे रहा है। भारत का जागरण केवल राष्ट्रीय नहीं, बल्कि वैश्विक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इतिहास सेवा, अनुशासन और त्याग की ऐसी जीवित गाथा है जिसने धर्म को कर्म से जोड़ा, संस्कृति को समाज से, और मुक्ति को मानवता से। क्योंकि जहाँ धर्म स्वतंत्र होता है, वहाँ भौगोलिक सीमाएँ अर्थहीन हो जाती हैं। मानसरोवर की मुक्ति केवल तिब्बत की आज़ादी नहीं, बल्कि मानवता की चेतना की मुक्ति का प्रतीक है। जब डोलमा गैरी इस मुक्ति के स्वप्न को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास से जोड़ती हैं, तो वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस गहरे सांस्कृतिक प्रभाव को स्वीकार करती हैं जिसने समाजों को जोड़ने का कार्य किया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व्यक्ति को समाज से, समाज को संस्कृति से, और संस्कृति को राष्ट्र से जोड़ती है। आज जब भारत विश्व के बौद्धिक नेतृत्व की ओर अग्रसर है, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह संदेश और अधिक प्रासंगिक हो जाता है कि—“राष्ट्र केवल भूमि का टुकड़ा नहीं, बल्कि जीती-जागती संस्कृति है; और इस संस्कृति की रक्षा में ही समस्त मानवता की मुक्ति निहित है।” डोलमा गैरी की यह स्वीकारोक्ति कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आर्यभूमि का संवाहक है,” न केवल भारत की सांस्कृतिक कूटनीति की जीत है, बल्कि यह उस व्यापक भारतीय दृष्टि की पुनः पुष्टि भी है जो मानवता को एक परिवार के रूप में देखती है।
डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर
निदेशक - तिब्बत अध्ययन केंद्र
हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय।
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