क्या शिवपुरी में फर्जी पत्रकारों का गिरोह सक्रिय है?
यह गिरोह उन नागरिकों को निशाना बनाता है जो अपनी किसी समस्या को लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक पहुंचते हैं। जैसे ही कोई ग्रामीण या गरीब व्यक्ति कार्यालय के भीतर जाने के लिए कदम बढ़ाता है, इन तथाकथित “पत्रकारों” का झुंड उसे घेर लेता है। मीठे शब्दों, बनावटी आत्मीयता और कैमरे की चमक से प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है, फिर शुरू होती है सौदेबाजी “समाचार लगवा देंगे”, “मीडिया में बात उठा देंगे”, “आपकी फाइल आगे बढ़ जाएगी” जैसे झूठे वादे, और इन वादों की कीमत तय होती है कभी दो हजार, कभी दो सौ, तो कभी सिर्फ पचास रुपए।
सबसे दुखद यह है कि यह सब कुछ प्रशासनिक तंत्र की जानकारी में होते हुए भी जारी है। कुछ ईमानदार पत्रकारों ने बताया है कि ऐसे गिरोहों के विरुद्ध अधिकारियों को आवेदन भी दिए जा चुके हैं, परंतु जवाब में यह कहा गया कि “नाम बताइए तब कार्रवाई होगी।” लेकिन सवाल यह है कि क्या भ्रष्टाचार या उगाही की पहचान करने के लिए आम पत्रकार को पुलिस की भूमिका निभानी होगी? क्या शासन-प्रशासन का दायित्व नहीं बनता कि वह ऐसे तत्वों पर स्वतः संज्ञान लेकर कठोर कदम उठाए?
पत्रकारिता कोई चौराहे की दुकान नहीं, जहां खबरें तौली जाएं और नैतिकता की कीमत लगाई जाए। यह वह साधना है जिसमें कलम ईमान की स्याही से लिखती है और जनता के अधिकार की रक्षा करती है। किंतु जब कोई व्यक्ति इस पवित्र पेशे की आड़ लेकर अपराध को जन्म देता है, तो वह केवल कानून का नहीं, बल्कि समाज के विश्वास का भी अपराधी बन जाता है।
जरूरत है कि ऐसे लोगों को कानून के कठघरे में खड़ा किया जाए। प्रेस की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि कोई व्यक्ति “पत्रकार” शब्द का नकली तमगा लगाकर किसी का आर्थिक या मानसिक शोषण करे। यह समय है जब सच्चे पत्रकार आगे आएं और इस गिरोह के खिलाफ एकजुट हों, ताकि पत्रकारिता फिर से वही बन सके जो उसका मूल स्वरूप है — निर्भीक, निडर और निष्पक्ष।
शिवपुरी की धरती ने कई ईमानदार कलमें देखी हैं, पर आज कुछ नकली पहचान वाले लोगों ने उस कलम को दागदार करने की ठान ली है। सवाल यही है — क्या अब सच्ची पत्रकारिता उठेगी और इन “फर्जी चेहरों” को बेनकाब करेगी? या फिर हम इस मौन स्वीकृति के साथ जीते रहेंगे कि पत्रकारिता अब एक सौदेबाजी का नाम बन चुकी है?

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