क्या मध्य प्रदेश के नगर निकाय अब भ्रष्टाचार के अड्डे बन चुके हैं?
मध्य प्रदेश के नगर निकायों में भ्रष्टाचार अब किसी एक विभाग, किसी एक व्यक्ति या किसी एक शहर की समस्या नहीं रही यह एक ऐसी व्यवस्थित बीमारी बन चुकी है, जो विकास के हर दावे को भीतर से खोखला कर रही है। जनता का पैसा, जो सड़कों, नालियों, पानी, सफाई और रोशनी पर खर्च होना चाहिए था, वह अब फर्जी बिलों, घटिया निर्माणों, और रिश्वत की थैलियों में गुम हो रहा है। यह विडंबना ही है कि लोकतंत्र का सबसे निचला और जनता के सबसे करीब माना जाने वाला शासन तंत्र नगर निकाय आज सबसे अविश्वसनीय साबित हो रहा है। दमोह में फर्जी बिलों से लाखों की हेराफेरी, भोपाल में जिंदा कर्मचारियों को मृत दिखाकर करोड़ों का घोटाला, शिवपुरी और गुना में सड़कों के नाम पर धन की बंदरबांट, और इंदौर में रिश्वतखोरी की घटनाएँ ये सब कोई अपवाद नहीं, बल्कि एक “रूटीन सिस्टम” का हिस्सा हैं।
हर नया अधिकारी जब पद ग्रहण करता है, तो जनता को उम्मीद होती है कि शायद अब कुछ बदलेगा। लेकिन बदलती केवल तारीख होती है, तरीका वही रहता है। ठेकेदार और अधिकारी एक-दूसरे के पूरक बन गए हैं, मानो बिना भ्रष्टाचार के कोई योजना पूरी नहीं हो सकती। सड़कें वर्षा के पहले ही उखड़ जाती हैं, नालियाँ अधूरी रह जाती हैं, और परियोजनाएँ कागज़ों पर ही ‘पूरा’ होने का प्रमाणपत्र पा जाती हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह भ्रष्टाचार अब समाज में स्वीकार्य होता जा रहा है। लोग शिकायत करने के बजाय यह मानने लगे हैं कि “सिस्टम ऐसा ही है।” यह सोच लोकतंत्र के लिए किसी कैंसर से कम नहीं। जब जनता भ्रष्टाचार को नियति मान लेती है, तो अधिकारी उसे अधिकार समझने लगते हैं।
ई-नगरपालिका पोर्टल पर साइबर हमला हो या अवैध कॉलोनियों को बढ़ावा देने के मामले हर घटना यह बताती है कि तकनीकी पारदर्शिता की बात करने वाला तंत्र अंदर से कितना खोखला है। डिजिटल इंडिया के युग में भी डेटा से लेकर धन तक, सबकी दिशा एक ही है “जहाँ से फायदा हो।” नगर निकायों के ये घोटाले केवल पैसे की चोरी नहीं हैं, बल्कि जनता के विश्वास की डकैती हैं। यह वही पैसा है जो आम आदमी टैक्स, हाउस टैक्स, पानी टैक्स और सफाई शुल्क के रूप में ईमानदारी से भरता है ताकि उसका शहर साफ-सुथरा, रोशन और व्यवस्थित दिखे। लेकिन उसके बदले उसे मिलती हैं टूटी सड़कें, बदबूदार नालियाँ और अधिकारियों की मुस्कराती बेपरवाही।
अब सवाल यह नहीं रह गया कि “कौन भ्रष्ट है?” बल्कि यह कि “कौन नहीं है?” क्योंकि इस तंत्र में जो ईमानदार रह गया है, वह व्यवस्था के लिए बोझ माना जाता है। जांचें होती हैं, नोटिस जारी होते हैं, निलंबन होते हैं मगर कुछ महीनों बाद वही चेहरे किसी और कुर्सी पर फिर से बैठ जाते हैं। मध्य प्रदेश के नगर निकायों में भ्रष्टाचार केवल प्रशासनिक समस्या नहीं, बल्कि यह नैतिक पतन का आईना है। जब जनता चुप रहती है, तो अपराध बोलने लगता है। शायद यही कारण है कि अब घोटाले छिपते नहीं, बल्कि खुलेआम जश्न मनाते हैं।

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