लेबल

मप्र कफ सिरप कांड: जनऔषधि केंद्र और मेडिकल माफिया पर सवाल – दिवाकर शर्मा

 

मध्यप्रदेश से उठी खबर हर संवेदनशील मन को झकझोर रही है—कफ सिरप से मासूम बच्चों की मौत! यह कैसी त्रासदी है कि जीवन देने वाली औषधि ही मौत का कारण बन जाए? प्रश्न यही है कि आखिर दवा का मतलब राहत है या संकट? यह रहस्य और भय हर भारतीय परिवार को चिंतित कर रहा है।

प्रधानमंत्री जनऔषधि केंद्र जैसी महत्वाकांक्षी योजना गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए वरदान स्वरूप मानी गई थी। इसका उद्देश्य था—सस्ती, सुरक्षित और भरोसेमंद दवाएँ हर जरूरतमंद तक पहुँचें। लेकिन जब समाज का एक बड़ा हिस्सा इन केंद्रों पर भरोसा नहीं करता, जब लोग कहते हैं कि जनऔषधि की दवाइयाँ कमजोर या घटिया हैं, तो यह अविश्वास केवल केंद्रों पर नहीं बल्कि प्रधानमंत्री की सोच पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। आखिर इतनी बड़ी राष्ट्रीय योजना के प्रति इस तरह का संशय क्यों?

दवा कारोबार में गहरी पैठ बना चुके मेडिकल माफिया ने जनऔषधि जैसी योजनाओं को कमजोर करने का हर हथकंडा अपनाया है। निजी मेडिकल स्टोर, फार्मा कंपनियाँ और कमीशनखोरी में डूबे डॉक्टर—इनकी मिलीभगत जनता को सस्ती और ईमानदार दवा से दूर करती रही है। डॉक्टर, जिनके ऊपर जीवन बचाने की जिम्मेदारी है, यदि वही संदिग्ध नजर आने लगें तो सामान्य नागरिक किस पर भरोसा करे? क्या दवा का मतलब व्यापार है और इंसान की जान का कोई मूल्य नहीं?

यहीं पर एक और सवाल उठता है। भाजपा ने बाकायदा चिकित्सक प्रकोष्ठ बनाया है, जिसमें हजारों डॉक्टर जुड़े हुए हैं। तो क्या यह उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे आगे आकर जनऔषधि केंद्रों को लेकर फैली भ्रांतियों को दूर करें? समाज में यह विश्वास जगाएँ कि यहाँ की दवाइयाँ सुरक्षित और असरदार हैं? और यदि यह प्रकोष्ठ भी मौन साधे बैठा रहा, तो क्या यह मान लिया जाए कि उन्हें खुद भी इस योजना पर भरोसा नहीं है? क्या वे कभी सामने आएँगे या हमेशा की तरह जनता को मेडिकल माफिया के हवाले छोड़ दिया जाएगा?

आज स्थिति यह है कि एक ओर मासूमों की मौत की खबरें देश की आत्मा को झकझोर रही हैं, और दूसरी ओर सत्ता पक्ष के कार्यकर्ता तक इस मुद्दे पर मौन हैं। सवाल यह है कि प्रधानमंत्री के सपनों की इस योजना को बचाने की जिम्मेदारी कौन उठाएगा? भाजपा का संगठन? उसका चिकित्सक प्रकोष्ठ? या फिर आम जनता को ही अपने दम पर मेडिकल माफिया के खिलाफ लड़ाई लड़नी पड़ेगी?

क्रोध आता है यह देखकर कि जिन सफेद कोटधारियों पर लोग भगवान की तरह भरोसा करते हैं, वे ही कहीं न कहीं इस तंत्र का हिस्सा बनकर अपने ही पेशे की गरिमा को कलंकित कर रहे हैं। दवा उद्योग का लालच आखिर कब तक इंसानियत से बड़ा बना रहेगा? क्या हम मासूमों की लाशों पर भी खामोश रहेंगे?

यह केवल मध्यप्रदेश की त्रासदी नहीं है। यह पूरे भारत के लिए चेतावनी है। यदि आज भी समाज, सरकार और सत्ता का तंत्र इस सवाल का जवाब नहीं खोज पाया, तो कल और कितने घरों के चिराग बुझेंगे, इसका अंदाजा लगाना भी भयावह है।

आज सबसे बड़ा प्रश्न यही है—क्या प्रधानमंत्री की इस महत्वाकांक्षी योजना पर जनता का विश्वास लौटाया जा सकेगा? या फिर मेडिकल माफिया, चुप्पी साधे प्रकोष्ठ और मौन कार्यकर्ता मिलकर इसे भी असफल बना देंगे? यह रहस्य अभी अनुत्तरित है, लेकिन जवाब की प्रतीक्षा हर भारतीय कर रहा है।

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें