लेबल

मीडिया की चमक और पत्रकार की मुश्किलें

 


आज की पत्रकारिता का दृश्य जितना चमकदार और ग्लैमर भरा दिखता है, उससे कहीं अधिक जटिल, रहस्यमयी और असुरक्षित भी है। हर दिन खबरें बनती हैं, स्टोरीज वायरल होती हैं, चैनल, पोर्टल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हेडलाइन्स छपती हैं, लेकिन जो लोग उन खबरों के पीछे मेहनत करते हैं, उनकी सुरक्षा और अधिकार कहीं खो गए हैं। सवाल उठता है क्या मीडिया हाउस पर श्रम विभाग के कानून लागू होते हैं? नियम तो कानून में हैं, लेकिन बड़े मीडिया हाउसों के मामले में यह अक्सर सिर्फ कागज़ों तक सीमित रह जाता है। कर्मचारियों के वेतन, छुट्टियाँ, पीएफ और ईएसआई के अधिकार कानूनी रूप से मौजूद होते हैं, लेकिन व्यवहार में इनका उपयोग बहुत कम होता है। वहीं छोटे पोर्टल और फ्रीलांस पत्रकारों के लिए कानून का जाल इतना जटिल और कठोर होता है कि उनकी वास्तविक सुरक्षा केवल नाम मात्र की रह जाती है।

पत्रकारीय कर्मचारी, कॉन्ट्रैक्ट बेस्ड कर्मचारी और फ्रीलांसर में फर्क भी अब सिर्फ कागज़ी नहीं रह गया। नियमित कर्मचारी वह है जिसे स्थायी रूप से किसी मीडिया संस्थान में नियुक्त किया गया हो, उसे निश्चित वेतन, छुट्टियाँ, सेवा सुरक्षा और अन्य लाभ मिलते हैं। कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी सीमित अवधि के लिए रखा जाता है, उसका वेतन तय होता है, लेकिन वह लगातार असुरक्षित रहता है, क्योंकि अनुबंध की समाप्ति के बाद उसे बिना किसी औपचारिक प्रक्रिया के बाहर किया जा सकता है। फ्रीलांसर तो और भी कमजोर स्थिति में है, वह किसी संस्था का कर्मचारी नहीं होता, केवल अपनी मेहनत और कलम की ताकत पर निर्भर करता है। उसका कोई स्थायी अधिकार नहीं, उसके पास पीएफ, ईएसआई या ग्रेच्युटी जैसी सुविधाएँ नहीं होती।

वर्किंग जर्नलिस्ट वही होता है जिसे कानून में स्थायी पत्रकार के रूप में मान्यता दी गई हो। इस परिभाषा में पारंपरिक प्रिंट मीडिया के पत्रकार आते हैं, लेकिन डिजिटल युग में ऑनलाइन पोर्टल, यूट्यूब चैनल और वेब पत्रकार इस परिभाषा से बाहर हैं। उनके पास कोई स्थायी सुरक्षा नहीं है। यदि उनका काम किसी परियोजना या प्रोजेक्ट आधारित है, तो उन्हें हर दिन यह पता नहीं होता कि अगले महीने काम जारी रहेगा या नहीं। वे अपनी खबरों के साथ समाज को जागरूक करते हैं, लेकिन खुद कानूनी सुरक्षा और अधिकारों से वंचित रहते हैं।

सवाल उठता है कि क्या कॉन्ट्रैक्ट या फ्रीलांस पत्रकारों को श्रम विभाग का कोई संरक्षण मिलता है? सीमित हद तक। Industrial Disputes Act, Shops and Establishment Act, Minimum Wages Act और Payment of Wages Act जैसे कानून कुछ हद तक उनके लिए राहत प्रदान कर सकते हैं, लेकिन अक्सर संस्थान इन कानूनों का पालन नहीं करते। Social Security Code 2020 में “Gig Worker” और “Platform Worker” की परिभाषा आयी है। इसका अर्थ है कि फ्रीलांसर और डिजिटल पत्रकार भविष्य में सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के दायरे में आ सकते हैं, जैसे बीमा, पेंशन और मातृत्व लाभ। लेकिन फिलहाल यह सिर्फ एक कानूनी संभावना है, वास्तविक सुरक्षा नहीं।

राज्य जनसंपर्क विभाग की भूमिका भी अब कई सवाल खड़े करती है। कभी यह विभाग सरकार की नीतियों को जनता तक पहुँचाने का माध्यम था, अब यह बड़े मीडिया हाउसों के प्रचार का साधन बन चुका है। छोटे पोर्टल और स्वतंत्र पत्रकार, जो सरकारी गलती या भ्रष्टाचार उजागर करते हैं, उन्हें सीमित मान्यता और विज्ञापन मिलता है, जबकि बड़े संस्थान नियमों की शिथिलता और राजनीतिक संबंधों के कारण लाभ में रहते हैं। छोटे समाचार पत्र, वेब पोर्टल और यूट्यूब चैनल जिनमें कर्मचारियों की संख्या एक या दो ही होती है, उनके लिए नियम कठोर होते हैं। ऑडिट, कर्मचारियों की सूची, कार्यालय की औपचारिकताएँ और मान्यता प्रक्रिया उन्हें अक्सर रोक देती हैं, जबकि बड़े मीडिया हाउसों के लिए वही नियम केवल औपचारिकता बनकर रह जाते हैं।

छोटे पोर्टल पत्रकारों के लिए श्रम विभाग के नियम भी बहुत सीमित हैं। यदि उनके पास नियमित वेतन और लिखित अनुबंध है, तो सामान्य श्रम कानून लागू हो सकते हैं। लेकिन अधिकांश फ्रीलांसर और कॉन्ट्रैक्ट पत्रकार कानूनी रूप से स्वतंत्र ठेकेदार माने जाते हैं। उन्हें वेतन, पीएफ, ईएसआई या अन्य सामाजिक सुरक्षा सुविधाएँ नहीं मिलती। इस वजह से उनके लिए काम करना एक अनिश्चित और जोखिम भरा सफर बन जाता है।

आज की पत्रकारिता में यह स्थिति किसी रहस्य से कम नहीं है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में खड़े पत्रकार अब खुद असुरक्षित हैं। बड़े मीडिया संस्थानों का प्रभाव और राजनीतिक संबंध उन्हें सुरक्षा देते हैं, जबकि छोटे पोर्टल और स्वतंत्र पत्रकार हर दिन कानून और प्रशासन के दायरे से बाहर खड़े होकर अपनी आवाज़ बनाते हैं। उनके सामने रोज़ाना यही सवाल होता है क्या कलम की ताकत उन्हें बचा पाएगी? क्या कानून उन्हें पहचान पाएगा?

कानून मौजूद हैं, लेकिन उनका उपयोग केवल वहीं होता है जहाँ प्रभाव और संबंध मजबूत हैं। जहाँ सिर्फ सच्चाई होती है, वहाँ कानून की पहुँच खत्म हो जाती है। पत्रकार जो सवाल उठाते हैं, आज वे खुद सवाल बन चुके हैं क्या उन्हें श्रमिक माना जाएगा ? क्या उनकी कलम सुरक्षित रहेगी? और क्या उनके प्रयासों को किसी संस्था या सिस्टम में जगह मिलेगी? यही आज की पत्रकारिता की सबसे बड़ी विडंबना और सबसे गहरी त्रासदी है।

पत्रकार अब केवल खबर नहीं लिखता, वह खुद एक खबर बन गया है। कलम की ताकत एक सवाल बन चुकी है। सवाल कि क्या लोकतंत्र में सच्चाई का सम्मान किया जाएगा, या वह केवल विज्ञापन, अनुबंध और प्रभाव की ताकत के आगे दब जाएगी। यही वह रहस्य है जो आज की पत्रकारिता को हैरतअंगेज, रहस्यमयी और चुनौतीपूर्ण बनाता है।
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें