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शिवपुरी की पत्रकारिता के नाम एक सबक – दिवाकर शर्मा

 


मध्यप्रदेश के दो पत्रकारों आनंद पांडे और हरीश दिवेकर की राजस्थान पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी ने पत्रकारिता जगत में एक गहरी बहस छेड़ दी है। कोई इसे सत्ता के दमन की मिसाल बता रहा है, तो कोई इसे पत्रकारिता के भीतर घुस आए भ्रष्टाचार की परिणति मान रहा है। लेकिन शायद सच इन दोनों के बीच कहीं है जहां पत्रकारिता, कानून, और नैतिकता की सीमाएं एक-दूसरे से टकराती भी हैं और एक-दूसरे को परिभाषित भी करती हैं।

पत्रकारिता का मूल उद्देश्य समाज के हित में सत्य को सामने लाना है। यह पेशा सत्ता से प्रश्न पूछने का साहस देता है, लेकिन उसी के साथ सत्य, साक्ष्य और मर्यादा का अनुशासन भी मांगता है। जब यह अनुशासन टूटता है, तो पत्रकारिता केवल सूचना का माध्यम नहीं रहती, बल्कि वह भ्रम और अविश्वास का औजार बन जाती है।

बीते कुछ वर्षों में पत्रकारिता का स्वरूप तेजी से बदला है। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और यूट्यूब चैनलों ने आम व्यक्ति को भी “मीडिया” बनने का अवसर दिया, जो लोकतंत्र के लिए एक सकारात्मक कदम था। परंतु इसी खुली आज़ादी के साथ एक ऐसा वर्ग भी पैदा हुआ, जिसने पत्रकारिता को जिम्मेदारी नहीं, बल्कि अवसर के रूप में देखा — अवसर, पैसा कमाने का; अवसर, प्रभाव जमाने का; और अवसर, प्रतिष्ठा का दुरुपयोग करने का।

यहीं से पत्रकारिता का चरित्र कमजोर पड़ने लगा। अब खबरें कई बार साक्ष्य से पहले भावनाओं पर बनती हैं, और जांच से पहले वायरल होती हैं। कुछ लोग खुद को “सच्चाई का प्रहरी” कहकर, दूसरों के चरित्र पर उंगली उठाते हैं, जबकि अपने गिरेबान में झांकना भूल जाते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल पत्रकारिता की विश्वसनीयता को चोट पहुंचा रही है, बल्कि सच्चे और ईमानदार पत्रकारों की मेहनत को भी संदेह के घेरे में डाल रही है।

दूसरी ओर, यह भी उतना ही खतरनाक है कि कोई सरकार या प्रशासन आलोचना को अपराध समझने लगे। यदि पत्रकार के किसी कथन पर असहमति है, तो उसका समाधान गिरफ्तारी नहीं, बल्कि प्रमाण और पारदर्शी प्रक्रिया से होना चाहिए। न्याय की बुनियाद केवल कानून नहीं, बल्कि नीयत में निष्पक्षता भी है। यदि नीयत में राजनीतिक प्रभाव घुस आया, तो लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ता है।

पत्रकारिता में नैतिकता का प्रश्न आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है। पत्रकारों को भी यह समझना होगा कि “मीडिया” होना अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ मनमानी नहीं, बल्कि सत्यनिष्ठा है। जो पत्रकारिता जनता के विश्वास से खिलवाड़ करती है, वह समाज का दर्पण नहीं, उसका विकृत प्रतिबिंब बन जाती है।

शिवपुरी जैसे छोटे शहरों में यह घटना एक गहरी सीख छोड़ती है। यहां भी पत्रकारिता की दिशा बदल रही है — कुछ लोग सेवा के भाव से लिखते हैं, तो कुछ प्रभाव और स्वार्थ के लिए। यह समय आत्ममंथन का है। पत्रकारों को यह तय करना होगा कि वे समाज के प्रहरी बनना चाहते हैं या खबरों के व्यापारी। सच्ची पत्रकारिता वही है जो न बिकती है, न झुकती है, और न रुकती है। लेकिन इसके लिए पहले हमें यह तय करना होगा कि “सच्चाई” की परिभाषा क्या है — वह जो जनता को दिखे, या वह जो पत्रकार के भीतर जले?

यह प्रकरण शायद किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी नहीं, बल्कि पूरी पत्रकार बिरादरी के लिए एक आईना है — जिसमें हर पत्रकार को खुद को देखना चाहिए। सवाल यह नहीं कि कौन सही है और कौन गलत; सवाल यह है कि पत्रकारिता आखिर जा किस ओर रही है? यदि इस प्रश्न का उत्तर हम ईमानदारी से खोज सके, तो शायद पत्रकारिता का खोया सम्मान लौट आएगा — और वह फिर से वही बन सकेगी, जिसे कभी “लोकतंत्र का चौथा स्तंभ” कहा जाता था।

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