पत्रकार या प्रशंसा-कार? – दिवाकर शर्मा
ये वही लोग हैं जिन्होंने कभी अपने परिवार की फोटो तक सोशल मीडिया पर नहीं डाली, लेकिन किसी अधिकारी के साथ फोटो खिंचवाते ही पोस्ट पर लिख देते हैं “मेरे बड़े भैया”, “मेरी दीदी”, “मेरे मार्गदर्शक”। कभी-कभी तो इतनी हद पार कर देते हैं कि जिन अधिकारियों से जनता सवाल पूछने से डरती है, उन्हें यह लोग “पिताजी से भी ऊपर” तक घोषित कर देते हैं।
इनकी दुनिया पूरी तरह दिखावे पर टिकी होती है। गली-मोहल्ले में इन्हें कोई पहचानता तक नहीं, लेकिन फेसबुक और इंस्टाग्राम पर ऐसा दिखाते हैं मानो पूरा शहर इनकी लोकप्रियता से दंग है। ये लोग खुद को पत्रकार नहीं बल्कि “स्थानीय सेलिब्रिटी” समझने लगते हैं। हर पोस्ट में अधिकारी की प्रशंसा, हर वीडियो में किसी अफसर की मूर्ति पूजन वाली चमक। कभी कोई अधिकारी “सिंघम” बन जाता है, तो कभी कोई “लेडी सिंघम”। और असली पत्रकार? उसकी छवि इन लोगों की हरकतों से बदनाम हो जाती है। जनता पूछ लेती है “आप भी क्या वैसे ही पत्रकार हैं?”
और कमाल देखिए इनमें से कई का तो पत्रकारिता से कोई भी संबंध नहीं होता। इनके लिए पत्रकारिता सिर्फ एक “भेष” है, एक औजार है । साल में बस एक बार कैलेंडर निकालना, छह महीने में एक पत्रिका निकाल लेना, साल छः माह में एक क्रिकेट प्रतियोगिता करा देना और उसी के नाम पर स्पॉन्सरशिप के बहाने मोटी रकम वसूलना। दो-चार चेहरों को चमकाना, अफसरों के साथ मंच साझा करना, फोटो खिंचवाना और फिर उसी का तमगा लटकाकर खुद को “सीनियर पत्रकार” घोषित कर लेना यही इनका पूरा पेशा है। ना खबरों से मतलब, ना समाज से, ना जनता की पीड़ा से बस कमाई, पहचान, और सोशल मीडिया की चमक।
और अब दूसरी ओर असली पत्रकार। वह सुबह से रात तक जनता की पीड़ा के पीछे भागता है। उसके पास चैनल का बजट नहीं, बड़े संस्थानों का सहयोग नहीं, और न ही सत्ता का संरक्षण। वह अपनी जेब से पेट्रोल डालकर खबरों की तलाश करता है। कभी 50 रुपए में गाड़ी चलेगी या नहीं, इस पर विचार करते हुए भी वह पीड़ित के दरवाज़े पर पहुंच जाता है। उसके घर में दिवाली की सजावट नहीं, बल्कि जिम्मेदारी के दीये जलते हैं। उसकी थाली में नोट नहीं, ईमान रखा होता है। वह पत्रकारिता को नौकरी नहीं, समाज का धर्म समझता है। परन्तु आज तस्वीर उलटी दिखाई जा रही है। दिखावा करने वाले चमक रहे हैं और सच्चे लोग संघर्ष में हैं।
कभी-कभी मन में सवाल उठता है कि क्या अब वो दिन खो गए जब पत्रकार सत्ता से सवाल पूछता था? क्या पत्रकारिता सिर्फ अफसरों के सम्मान समारोह करवाने का काम रह गई है? क्या कलम अब स्याही से नहीं, चाटुकारिता से चलती है?
लेकिन नहीं अभी भी कुछ कलमें हैं जो बिकने से इनकार करती हैं । अभी भी कुछ हृदय हैं जो जनता के लिए धड़कते हैं। अभी भी कुछ आँखें हैं जो सत्ता की आंखों में आंख डालकर प्रश्न पूछने की हिम्मत रखती हैं और जब तक ऐसे पत्रकार जिंदा हैं, पत्रकारिता भी जिंदा है क्योंकि पत्रकारिता की जान “दिखावे में नहीं”, “सत्य के साहस” में है। हो सकता है सच्चे पत्रकार की दिवाली साधारण हो लेकिन उसकी थाली में पैसा नहीं, आत्मसम्मान रखा होता है। और यही आत्मसम्मान एक दिन पत्रकारिता को फिर से वही सम्मान दिलाएगा जहां कलम बिकेगी नहीं, सच लिखेगी।

बेहतरीन सटीक व्यवहारिक समालोचनामय प्रस्तुति 👍👍
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