संघ का एजेंडा धर्मान्तरण करवाना नहीं उसे रोकना - आर एल फ्रांसिस

श्री आर एल फ्रांसिस  निर्धन ईसाई मुक्ति आन्दोलन (Poor Chrischian Liberationa Movement) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। वे भारत की ईसाई मिशनरियों के बीच व्याप्त भेदभाव और कटुता के खिलाफ लगातार अपनी आवाज बुलंद किये हुए हैं | निर्धन ईसाई मुक्ति आन्दोलन का विचार है कि चर्च का ध्यान सिर्फ संख्या मे इजाफा करने मे है, लोगो के जीवन स्तर सुधारने मे नही। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है जो पैसा विदेशो से आता है उसका उपयोग अच्छे जगह पर जमीन खरीदने मे या अच्छी जिन्दगी जीने मे खर्च कर देते है। इसका यह भी मत है कि दलितो और वनवासियों का धर्म-परिवर्तन रोका जाय। धर्म का परिवर्तन करके किसी भी समाज से व्याप्त बुराईयों को नही हटाया जा सकता है। 

जन संसद से लेकर मीडिया संसद तक क्या अजीब खेल हो रहा है। धर्मनिरपेक्षतावादी और अंग्रेजी मीडिया दशकों से जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को धर्मांतरण विरोधी घोषित कर रहा था वही आज उसे धर्मांतरण का जिम्मेदार ठहरा कर जमीन-असमान एक करने पर तुला हुआ है। आगरा में कुछ मुस्लिम परिवारों द्वारा हिंदू विधि से की गई  ‘घर वापसी’ अर्थात् पुनः हिंदू समाज में शामिल होने और फिर इससे इंकार करने की घटना ने ‘धर्मांतरण’ के मुद्दे को बहस में ला दिया है। 

आगरा की एक इस घटना को हमारे सेकलुरवादी और कुछ अंग्रेजी अखबार ऐसे पेश कर रहे है कि मानो, भारत को धर्म के आधार पर राष्ट्र घोषित कर दिया गया हो। इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, मेल टुडे, टाइम्स ऑफ़ इंडिया इंडिया, सटेट्मैन और हिन्दू जैसे अखबार लीड हेडिंग बनाकर और लेख लिखकर यह साबित करने में लग गए है कि चारो तरफ भगवाधारियों का राज हो गया है और वह जल्द ही भारत के एक चैथाई, 25-30 करोड़ ईसाइयों और मुस्लमानों को हिंदू बना देगें। 

अंग्रेजी मीडिया और सेकुलरवादी यह भी साबित करने की कोशिश कर रहे है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए संघ धर्मांतरण का मुद्दा उठाकर उनकी विकास वाली छवि को नुकसान पहुंचा रहा है। यहीं मीडिया भाजपा के कुछ सासंदो और कुछ मंत्रियों के हिंदू प्रेम के कारण भी विचलित हो रहा है। धर्मांतरण पर मचे इस हंगामें के बीच सरकार ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा यह कहा जा रहा है कि यह धर्मांतरण नहीं है, इसे ‘घर वापसी’ समझा जाए। अगर सेकलुरवादी धर्मांतरण पर इतने ही चिंतत और दुखी हैं तो इस मामले पर एक राष्ट्रीय कानून बनाने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। सेकुलरवादी खेमा और अंगे्रजी मीडिया इस मामले पर सरकार और संघ को बदनाम तो करना चाहता है लेकिन धर्मांतरण के मुद्दे पर किसी कठोर कानून को बनाए जाने के पक्ष में नहीं है। 
जो लोग यह मान रहे है कि भारतीय जनता पार्टी उतर प्रदेश में राजनीतिक लाभ के लिए धर्मांतरण का मुद्दा उछाल रही है, मेरा मानना है कि ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रमों से उसे भले ही कुछ लाभ मिल जाए, लेकिन पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेंडा धर्मांतरण को बढ़ावा देने का नहीं है, बल्कि उसे रोकना है। घर वापसी के विरोधी ये सवाल उठाते रहें है कि हिन्दू धर्म में वापस आये लोगों की जाति क्या होगी, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है। 
भारत सरकार ने नेहरू जी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही इस प्रश्न पर विचार किया था कि यदि अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति धर्मांतरण करके हिंदू धर्म का त्याग कर देता है तथा पुनः हिंदू धर्म स्वीकार कर लेता है तो उसे मूल अनुसूचित जाति का सदस्य माना जाएगा या नहीं। ध्यानपूर्वक विचार-विमर्श करने के लिए भारत सरकार को यह सलाह दी गई, कि ऐसे व्यक्ति के पुनःमतातंरण को मूल जाति में परिवर्तन माना जाएगा तथा वह अनुसूचित जातियों के सदस्यों के विशेषाधिकार और सहायता का पात्र होगा, मूलतः जिस अनुसूचित जाति से संबंधित था।
जाहिर है कि संविधान और सरकार ने इसे धर्मांतरण नहीं ‘घर वापसी’ की ही संज्ञा दी थी। जो लोग संघ पर इस बात के लिए फॅबतियां कस रहे है कि वह उन्हें हिंदू समाज में कहाँ फिट करेगा उनका हिंदू समाज में क्या दर्जा होगा? इसका समाधान भी नेहरु सरकार का यह राज्यों को लिखा पत्र आसानी से कर रहा है। 
साफ है कि जो धर्मांतरित हिंदू अपने पुरखों के धर्म में वापिस आना चाहते हैं, उनका यह पूर्ण और सवैंधानिक अधिकार है। आगरा या कहीं और इसी अधिकार के तहत उनकी घर वापसी हुई । इस पर जो लोग शोर-शराबा कर रहे हैं, उनका मकसद इसका राजनीतिकरण करना है। अगर ऐसा नहीं है तो एक ऐसा कानून बनाया जाना चाहिए, जिससे छल-कपट से होने वाले सभी तरह के धर्मांतरण पर प्रभावशाली तरीके से रोक लगाई जा सके। नया कानून ऐसा होना चाहिए कि किसी को अपनी पंसद की उपासना और पूजा पद्वति अपनाने की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का आघात् न हो। सेकलुरवादी और अंग्रेजी मीडिया द्वारा धर्मांतरण पर किए जा रहे शोर का कोई खास मतलब नहीं है, क्योंकि इस मुद्दे पर वह दोहरा रवैया अपनाता आया है। आगरा का मामला सुर्खिया बटोरता है लेकिन झारखंड,छतीसगढ़,ओडिशा, आदि राज्यों में ईसाई मिशनरियों और चर्च संगठनों द्वारा किए गए धर्मांतरण पर वह चुप्पी साध जाता है। 
ईसाई मिशनरी भारत में कई सदियों से धर्मांतरण का खुला खेल खेल रहे है। यह तथ्य है कि दलित और आदिवासी समाज के अंदर ईसाई मिशनरियों की बहुत गहरी पैठ बन चुकी है। और इन वर्गो का बड़े पैमाने पर धर्मांतरण करवाया जा रहा है, लेकिन इसके खिलाफ संसद में कभी कोई आवाज सुनाई नहीं देती। भाजपा यदाकदा ऐसे धर्मांतरण के विरुद्ध आवाज उठाती रही है। कुछ साल पहले ऐसे ही धर्मांतरण को लेकर ओडिशा के कंधमाल जिले में भयानक दंगे हुए थे जिसमें दर्जनों लोगो को अपनी जान गवानी पड़ी और सैकड़ो करोड़ रुपए की हानि उठानी पड़ी। इसके बावजूद ओडिशा में धर्मांतरण लगातार जारी है। कंधमाल को लेकर हाल ही में प्रकाशित पुस्तक (अर्ली क्रिश्चियन आफ ट्वेन्थी फर्स्ट सेन्चुरी: स्टोरी आफ इन्क्रीडेबल क्रिश्चियन्स फ्राम कंधमाल जंगल) में दावा किया गया है कि हिंसा के बाद हिंदू समुदाय के लोग किस तरह चर्च की शरण में आ रहे है। 
भारत में धर्मांमरण के अनेक कारण है जातिवाद, ऊंचनीच एक कारण है, लेकिन भय, लालच और षड्यंत्र एक बड़ा कारण है। इस्लामी और ईसाई राज में धर्मांतरण का ग्राफ बहुत ऊँचा रहा है लेकिन इसकी रफतार अभी भले तेज न हो लेकिन रुकी नहीं है। भारतीय संविधान हमें अंतकरण की स्वतंत्रता की गंरटी देता है, संविधान किसी भी धर्म को मानने और उसके प्रचार करने का अधिकार भी देता है। लेकिन धर्मप्रचार और धर्मांतरण के बीच की लक्षमण रेखा को समझने की जरुरत है। यदि धर्मांतरण कराने का प्रमुख लक्ष्य लेकर घूमने वाले संसाधनों से लैस संगठित संगठनों को खुली छूट दी जाए तो आप घर वापसी जैसे अभियानों को कैसे रोक सकते है। 
लोकतंत्र और संविधान का हवाला देकर धर्मांतरण पर दोहरा नजरिया घातक साबित होगा, हम हिंदुओं के धर्मांतरण पर आखें बद कर लें और घर वापसी पर कोहराम मचा दें, यह दोनों बाते एक साथ नहीं चलेगी। 
(विश्व संवाद केंद्र भोपाल द्वारा प्रेषित ) 


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