जन्म एक खुदाई खिदमतगार का !

गाड़ी दिल्ली पहुंची तो लगभग खाली थी. ज्यादा लोग नहीं उतरे | फिर भी महात्मा गांधी ने जिसे लाने भेजा था, वह कहीं नहीं दिखे | उनका भेजा आदमी हर डिब्बे में जा जाकर देखने लगा | एक खाली डिब्बे में एक सज्जन बैठे बैठे सो रहे थे | खान अब्दुल गफ्फार खान को पहचानकर उस आदमी ने उठाया | खां साहब ने माफी मांगते हुए कहा कि लंबा सफर हुआ तो आंख लग गई | उस आदमी ने कहा कि आप लेट क्यों नहीं गए, गाड़ी तो खाली ही थी | खां साहब ने जवाब दिया, "वो मैं कैसे करता, मेरा टिकट स्लीपर का नहीं था ना."

गांधीवाद को इस कदर अपनी जिंदगी में उतारने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान की गांधी जी से पहली भेंट 1928 के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में हुई | उस समय बातचीत तो कुछ नही हुई, किन्तु विचार का बीज अंतस में पैठ गया | यह बीज 1929 में हुए कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के बाद तो मानो पल्लवित और पुष्पित हो गया |

गांधीवाद से प्रभावित खान अब्दुल गफ्फार खान साहब ने एक नया काम प्रारम्भ किया | पठानों में व्याप्त गुटबाजी, आपस की शत्रुता, कुरीतियाँ और बुरी आदतों को दूर करने के लिए 1929 में एक नई संस्था “खुदाई खिदमतगार” प्रारम्भ की | इस संस्था का सदस्य बनने के पूर्व व्यक्ति को एक शपथ लेना पड़ती थी – “मैं खुदाई खिदमतगार हूँ और चूंकि खुदा को खिदमत की जरूरत नहीं है, इसलिए खुदा की मखलूक (जीवों) की सेवा ही खुदा की सेवा है | अतः मैं खुदा की मखलूक – मानव मात्र की – सेवा, बिना किसी स्वार्थ या मतलब के, केवल खुदा के बास्ते करूंगा |”

खुदाई खिदमतगार को दूसरी प्रतिज्ञा यह करनी पड़ती थी – “मैं हिंसा नहीं करूंगा और न ही किसी प्रकार का बदला या प्रतिशोध लूंगा | मुझपर कोई चाहे कितना ही अत्याचार और जुल्म करेगा, मैं उसे क्षमा कर दूंगा | मैं आपस की फुट, दलबंदी, शत्रुता और गृहयुद्ध नहीं करूंगा और प्रत्येक पख्तून को अपना भाई तथा मित्र समझूँगा | मैं गलत रीति रिवाजों को छोड़ दूंगा | सादा जीवन व्यतीत करूंगा और नेक काम करूंगा | बुराईयों से अपने आप को बचाऊंगा | मैं अपने अन्दर अच्छे गुण, सच्चरित्रता और अच्छी आदतें पैदा करूंगा | मैं बेकारी का जीवन व्यतीत नहीं करूंगा |

प्रत्येक खुदाई खिदमतगार पर प्रतिबन्ध था कि चाहे वह अमीर है या गरीब, दिन में दो घंटे शारीरिक श्रम का कोई काम अवश्य करेगा | ये लोग गाँव गाँव घूमते, भाषण करते, जिरगे स्थापित करते | यह आन्दोलन बहुत शीघ्र पूरे सीमांत प्रांत में फ़ैल गया | यहाँ तक कि कबीलों में भी जा पहुंचा | खुदाई खिदमतगारों की पहचान बन चुके लाल कपडे पहने लोग, जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में "सुर्खपोश" कहा जाता था, सब दूर दिखने लगे |

सरहदी गांधी ने सरहद पर रहने वाले उन पठानों को अहिंसा का रास्ता दिखाया, जिन्हें इतिहास लड़ाके मानता रहा | एक लाख पठानों को उन्होंने इस रास्ते पर चलने के लिए इस कदर मजबूत बना दिया कि वे मरते रहे, पर मारने को उनके हाथ नहीं उठे | नमक सत्याग्रह के दौरान 23 अप्रैल 1930 को गफ्फार खां के गिरफ्तार हो जाने के बाद खुदाई खिदमतगारों का एक जुलूस पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में पहुंचा. अंग्रेजों ने उन पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया. 200 से 250 लोग मारे गए. लेकिन प्रतिहिंसा नहीं हुई |

जानेमाने गांधीवादी आलोचक और आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर वीके त्रिपाठी मानते हैं कि खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपने संघर्ष में गांधीवाद की आत्मा को जिंदा रखा | वह कहते हैं, "दो बातें हैं जो किसी भी संघर्ष को गांधीवादी बनाती हैं | एक तो आंदोलन जनमानस का होना चाहिए और दूसरा उसे अहिंसक होना चाहिए | खान अब्दुल गफ्फार खां ने इस काम को बेहद खूबसूरती से अंजाम दिया |

और अधिक जानने को पढ़ें -
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें