बादशाह खान का प्रारम्भिक जीवन

अपनी डॉक्युमेंट्री द फ्रंटियर गांधीः बादशाह खान, अ टॉर्च ऑफ पीस के बारे में बताते हुए मैकलोहान ने लिखा है, "दो बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए बादशाह खान की जिंदगी और कहानी के बारे में लोग कितना कम जानते हैं. 98 साल की जिंदगी में 35 साल उन्होंने जेल में सिर्फ इसलिए बिताए कि इस दुनिया को इंसान के रहने की एक बेहतर जगह बना सकें. सामाजिक न्याय, आजादी और शांति के लिए जिस तरह वह जीवनभर जूझते रहे, वह उन्हें नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गांधी जैसे लोगों के बराबर खड़ा करती हैं. खान की विरासत आज के मुश्किल वक्त में उम्मीद की लौ जलाती है."

आज के पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित है हस्तनगर | अब उसे अश्तंगर के नाम से जाना जाता है | इसी कसबे के “उतमान जई” नामक गाँव में खान बहराम खां के घर सन 1890 में खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म हुआ | इस्लाम के प्रादुर्भाव के पहले पख्तून हिन्दू थे | अतः पठानों में यह सोच बरकरार थी कि विद्या केवल ब्राह्मणों के लिए है | अतः पढ़ने इत्यादि में शिक्षा प्राप्ति की न तो रूचि थी और न ही उस पिछड़े इलाके में उसकी कोई व्यवस्था | मस्जिदों में धार्मिक शिक्षा के नाम पर केवल इमामत की शिक्षा दी जाती थी | लेकिन इनके प्रगतिशील पिता ने इन्हें व इनके बड़े भाई को डॉ. खान साहब को पढ़ने को हस्तनगर भेजा | 

इनकी प्राथमिक शिक्षा पेशावर के म्युनिसिपल बोर्ड हाई स्कूल व मिशन हाई स्कूल में हुई | बड़े भाई आगे डाक्टरी की पढाई के लिए मुम्बई और बाद में इंग्लेंड चले गए | गफ्फार खान की कोलेज शिक्षा अलीगढ़ में हुई | खान अब्दुल गफ्फार खान साहब का सामाजिक जीवन अपने प्रदेश के लोगों को अशिक्षा और अज्ञान से निकालने के प्रयत्नों से प्रारम्भ हुआ | इनकी कोशिशों से प्रान्त भर में अनेकों विद्यालय खुल गए और लोगों में शिक्षा के प्रति रूचि जागृत हो गई | 

1912 में इनका विवाह हुआ व 1913 में पहले बेटे गनी का जन्म हुआ | 1915 में दूसरे बेटे बली का जन्म हुआ | जब बडा बेटा गनी 3 वर्ष का ही था कि तभी वह इन्फ्लुएंजा महामारी की चपेट में आ गया | उस दौरान एक ईश्वरीय चमत्कार हुआ | गनी के बचने की कोई आशा नहीं थी | तभी शाम के समय मरणासन्न गनी की चारपाई के चारों ओर उसकी मां ने परिक्रमा की और सिरहाने खड़े होकर दोनों हाथ उठाकर आंसू बहाते हुए करुणा भरे स्वर में कहने लगी – ए खुदा, इस मासूम का कष्ट और बीमारी मुझे दे दे और इसे स्वस्थ कर दे | या खुदा, इसकी बीमारी मुझे लगा दे ....|

विधाता का विधान कि ज्योंही रात बीती और सबेरा हुआ, गनी धीरे धीरे ठीक होता गया और उसकी मां धीरे धीरे बीमार पड़ने लगी | अंत में गनी स्वस्थ हो गया और उसकी माँ ने प्राण त्याग दिए |

खान साहब का संघर्षपूर्ण राजनैतिक जीवन प्ररम्भ हुआ 1919 में, जब अंग्रेज सरकार ने देश पर रोलेट एक्ट जैसे काले कानून की तलवार लटका दी | समूचे भारत वर्ष के समान सीमांत प्रदेश में भी व्यापक आन्दोलन प्रारंभ हो गया | एक्ट के बिरुद्ध आयोजित जलसों जुलूसों में लाखों लोग एकत्रित होते थे | स्थिति से निबटने व आन्दोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने देश में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया | आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निबाहने वाले लोग या तो पडौस में अफगानिस्तान चले गए, या छुपकर रहने लगे | गफ्फार खान भी इस दौरान 150 अन्य पठानों के साथ पहली बार गिरफ्तार हुए | इनके लम्बे चौड़े शरीर के नाप की कोई हथकड़ी बेडी नहीं मिली, जबरन छोटी बेडी पहनाई जाने के कारण इनके पैर खून से लथपथ हो गए | 

खैर पूरे गाँव पर सामूहिक 30 हजार रुपये जुर्माना किया गया | भ्रष्ट अधिकारियों ने अलग अलग लोगों से बसूला तो लगभग एक लाख रूपया बसूला | जुर्माने के बाद सबके साथ खान साहब भी रिहा हुए |

इस घटना चक्र का सकारात्मक परिणाम यह रहा कि लोगों में एक राजनैतिक चेतना जागृत हो गई | जगह जगह लोग देश और समाज की बात करने लगे | 1920 में खान साहब का दूसरा विवाह हुआ | इन्होने अपना ध्यान एक बार फिर शिक्षा पर केन्द्रित किया | अपनी मातृभाषा पश्तू में बच्चों को शिक्षा देने के लिए मदरसे प्रारम्भ किये | 1921 में अपने गाँव उतमान जई में एक हाई स्कूल भी प्रारंभ किया | उसी दौरान प्रारंभ हुए खिलाफत आन्दोलन में भी सक्रिय हुए | 

अंग्रेज सरकार को इनके मदरसे रास नहीं आये और इन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया | केवल इस कारण इन्हें 3 वर्ष जेल में व्यतीत करने पड़े, क्योंकि इन्होने जमानत पर छूटने से इनकार कर दिया | 3 वर्ष बाद जब ये रिहा हुए तब इनका जबरदस्त स्वागत किया गया | ख़ास बात यह रही कि इनकी गिरफ्तारी के बावजूद इनके पीछे से भी इनका मदरसा कायम रहा | सोया हुआ समाज जागने लगा था | 

1926 में हजयात्रा के दौरान इनकी दूसरी पत्नी भी अपने पीछे दो बच्चों को छोड़कर सीढियों से गिरकर चल बसीं | उसके बाद तो खान साहब पूरी तरह मानो समाज को ही समर्पित हो गए | 

अपनी मातृभाषा में इन्होने “पश्तून” नामक एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया, जो इतनी लोकप्रिय हुई, कि दुनिया के किसी भी भाग में रहने वाले पश्तून उसे मंगाकर पढ़ने लगे |

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