क्या आरक्षण की चुनौती को भी अवसर में बदल पायेंगे नमो ? - प्रवीण गुगनानी


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Praveen Gugnani,-

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आंदोलन की बलि पर अनावश्यक चढ़ा कर खड़े कर दिए गए गुजरात के संदर्भ में तीन नाम प्रतीक स्वरूप प्रस्तुत हैं. एक- कभी प्रधानमंत्री की दौड़ में असमय प्रवेश करके विध्वंस मचानें वाले नितीश, दूजे- समय-समय पर परिपक्वता का परिचय देते रहे शरद यादव और तीजे- गुजरात के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी. गुजरात में पटेलों के आरक्षण हेतु आंदोलन के बीज तो 1985 में कांग्रेसी मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी ने “खाम” शब्द को गढ़ने के साथ ही बो दिए थे. अब आरक्षण विषय में आंदोलन के समाचार यदि गुजरात जैसे सक्षम, सफ़ल, सुस्थापित, साधन संपन्न, समृद्ध राज्य से आयें तो चिंता युक्त आश्चर्य होना स्वाभाविक है. 

किन्तु आज जो गुजरात की परिस्थितियाँ हैं उनमें चिंता युक्त आश्चर्य से कहीं अधिक आवश्यकता सम्पूर्ण राष्ट्र को अध्ययन, अन्वेषण, अनुसंधान करनें की है. देश के नए और स्पष्ट बहुमत धारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जो स्वभाव और जिस प्रकार की कार्य पद्धति रही है, उसमें वे चुनौतियों में अवसर खोजते हैं, और उससे अपने संगठन, राज्य, देश को शीर्ष पर पहुँचानें का कार्य कुशाग्रता से करते रहे हैं. यह समय भी निश्चित ही आरक्षण जैसे संवेदनशील विषय पर आमूलचूल रूप से उसके आद्द्योपांत अध्ययन, परीक्षण तथा पुनर्निर्धारण के अनुरूप बन कर आया है. इस चुनौती को यदि नरेंद्र मोदी अपनें इतिहास के अनुरूप अवसर में परिवर्तित कर पाए तो यह आनें वाले दशकों में उभरने को उद्यत अनेकों समस्याओं के एकमुश्त निपटारे का अवसर बन जाएगा. 

ध्यान देने योग्य है कि 1985 के पूर्व तक गुजरात का पटेल समुदाय कांग्रेस समर्थक रहा था. अन्य राजनैतिक विचारधाराओं और दलों के बढ़ते प्रभाव की काट के रूप में 1985 में कांग्रेस के मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी ने राजनैतिक सौदेबाजी करते हुए एक प्रयोग किया था जो उस समय “खाम” नाम से प्रसिद्ध हुआ था. क्षत्रिय, दलित, आदिवासी और मुस्लिम वर्गों के तुष्टिकरण पर केन्द्रित इस खाम के कारण, तब गुजरात में ओबीसी आरक्षण को लेकर, पटेलों और अन्य पिछड़े वर्ग के बीच वर्ग संघर्ष की स्थिति बन गई थी. गुजरात का बहुसंख्य, शक्तिशाली पटेल समुदाय तब से ही कांग्रेस से नाराज़ माना जाता है. पटेल समुदाय ने कांग्रेस से हुई इस नाराजी का चुनाव दर चुनाव हर बार प्रबल प्रकटीकरण भी किया है. 

देश में आरक्षण को लेकर दशकों से बहस चलती रही है. आरक्षण हेतु कई आंदोलन भी हुए हैं. आरक्षण को लेकर पिछले सात दशकों से सतत चल रहे मंथन से विष तथा अमृत दोनों ही निकलें हैं. किन्तु परिस्थितियों में संघर्ष तब प्रविष्ट हो जाता है जब एक वर्ग या जाति समाज को मिलनें वाला अमृत दूजे वर्ग या जाति समाज हेतु विष प्रभाव का कारक बन जाता है. गला काट प्रतियोगिता के वर्तमान समय में, जीवन यापन तो दूभर है ही, बच्चों के कैरियर की चिंता अभिभावकों के लिए एक गंभीर चुनौती है. 

एक वर्ग विशेष को पिछली पीढ़ियों में मिले उपेक्षा भाव, तिरस्कार, अवनति, के कारण दिया आरक्षण आरक्षण का फार्मूला स्पष्टतः बाद के दशकों में समीक्षा योग्य माना जाकर अस्थायी व्यवस्था के रूप में ही स्वीकार किया गया था . देश भर के सभी वर्गों के विद्वान व नेतृत्व पुरुष यह भी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष मानतें हैं कि आरक्षण की अवधि आधारित समीक्षा सदैव राजनैतिक दृष्टि या चुनावी दृष्टि का शिकार रही है. तुष्टिकरण का शब्द विभिन्न नागरिक क्षेत्रों में समान रूप से एक वोट कबाडू हथियार के रूप में उपयोग किया गया, स्वाभाविक ही था की इस हथियार उस दल ने सर्वाधिक दुरूपयोग किया जो देश में अधिकाँश समय सत्ता में रहा. कांग्रेस ने देश के लगभग सभी प्रदेशों में आरक्षण का खेल, विभिन्न चुनावी अवसरों पर, बड़ी चतुराई से खेला किन्तु वह देश की दृष्टि से आत्मघातक ही सिद्ध हुआ . 

यह केवल संयोग नहीं है कि जिस महेसाणा से एक माह पूर्व पटेल आरक्षण आंदोलन प्रारम्भ हुआ, वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व मुख्यमंत्री आनंदी बेन का क्षेत्र माना जाता है. और यह तो कतई संयोग नहीं है कि ऐन बिहार चुनाव के पूर्व इस पटेल आरक्षण की मांग के अंगारे दहका दिए गए हैं जिससे पूरा गुजरात सहम गया है!! 

जहाँ तक गुजरात के पटेल पाटीदार समाज की ओबीसी आरक्षण की मांग का प्रश्न है, इसमें विशेष ध्यान योग्य बात यह है कि यह समाज गुजरात का सर्वाधिक समृद्ध समाज है. गुजरात की कृषि योग्य भूमि का अधिकतम प्रतिशत का स्वामी यह पटेल समाज 1960 के बी-सुधार क़ानून का सबसे बड़ा हितग्राही समाज बनकर आर्थिक रूप से उभरता चला गया. इस समाज ने अपनी कृषि आय का उपयोग मृत निवेश के रूप में नहीं अपितु छोटे छोटे किन्तु जीवंत उद्योग धंधों में किया जिससे यह मूलतः कृषक रहा समाज बाद के दशकों में उद्यमी व्यवसायी समाज बनकर उभरा. 

गुजरात ओबीसी आरक्षण कमीशन के सदस्य और पटेल समुदाय के ही गौरांग पटेल तो पटेलों की समृद्धि तथा सक्षमता के आधार पर आरक्षण की मांग को सिरे से ही नकार देते हैं. यद्दपि गौरांग पटेल इस सरकारी गलती को भी उत्तरदायी मानते हैं जिसनें ओबीसी आरक्षण की मांग के छोटे छोटे रूप में उभरने के समय ओबीसी की अवधारणा को विभिन्न समाजों के समक्ष संवाद द्वारा स्पष्ट नहीं किया, तथापि वे यह भी मुखर रूप से मानतें हैं कि पटेल समाज की ओबीसी की मांग वर्तमान परिदृश्य में किसी षड्यंत्र का अंश होकर अनैतिक जैसी श्रेणी में आती है. 

उनके सुर में सुर मिलाते हुए ‘शेपिंग ऑफ मॉर्डन गुजरात और रॉयल सिटी मेगा सिटी टू मेगा सिटी’ पुस्तक के लेखक अच्‍युत याग्निक इस आंदोलन को अलग दृष्टिकोण से देखते हैं. उनका कहना है कि नगदी फसलों से आर्थिक शक्ति बन गए पटेल समाज ने जिन लघु व मंझोले उद्योगों में अपनी पूँजी का निवेश किया वे उद्योग मोदी राज में बड़े उद्योगों की बाढ़ के शिकार होकर बीमारू इकाइयों में बदलते चले गए. अच्युत याग्निक का कथन है कि लगभग 60 हजार औद्योगिक इकाइयां बंद हो गई जिसमें सर्वाधिक हानि पटेल समुदाय को हुई है. यद्दपि अच्युत भी इस आधार पर पटेल समाज के इस आन्दोलन को अनैतिक ही ठहराते हैं क्योंकि इस सब के बाद भी पटेल समुदाय कई पार्टी नेताओं सहित पचास के लगभग विधायकों, आधा दर्जन मंत्रियों, कई सारे आला प्रशासनिक, शैक्षणिक, बैंकिंग, चिकित्सा अधिकारियों सहित मुख्यमंत्री के आसन पर भी दृढ़ता से विराजित है. 

अब प्रश्न यही है कि अपनें आपको गुजरात में 50 लाख तथा देश भर में 27 करोड़ की जनसँख्या वाला समाज बतानें वाला यह समुदाय अचानक क्यों इस प्रकार तीक्ष्ण आंदोलित हुआ?! निस्संदेह राजनैतिक कारणों से उपजा यह सामाजिक आंदोलन समाज को आरक्षण विषयक सकारात्मक चिंतन की ओर बढ़ाता तो यह आंदोलन गुजरात माडल के नाम को सार्थक करता किन्तु हिंसा तथा जबरिया भाषा का उपयोग करके इस आंदोलन को संदेह की परिधि में ला खड़ा किया है. 

देश में तीस वर्षों के बाद केंद्र में आरूढ़ एक स्पष्ट बहुमत तथा सुस्पष्ट दिशा से बढ़ रही सरकार को अपनें मार्ग से विचलित करने के अन्तराष्ट्रीय षड्यंत्रों का भी सशक्त आभास इस आंदोलन में दिखता है. देशज राजनीति में चोटिल होकर घर बैठने को विवश हुए प्रादेशिक छत्रप भी नरेंद्र मोदी को सुरक्षात्मक रवैया अपनानें को मजबूर करनें हेतु विदेशी ताकतों से समर्थित इस आंदोलन को समर्थन देंगे यह भी सुनिश्चित ही है. बिहार चुनाव के आसन्न में यद्दपि नितीश जैसे नकारात्मक स्वरों ने बिना एक क्षण की देरी किये पटेल वर्ग का समर्थन किया है तथापि शरद यादव जैसे परिपक्व स्वर भी उभरें हैं जिन्होनें इस आंदोलन को छोटी सोच का परिणाम बताया है | और इस प्रकार अपनी राष्ट्रीय सोच को अभिव्यक्त करते हुए सार्वजनिक प्रतिक्रिया दी है.

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