राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता वीरवर राठौड़ राय श्री कल्लाजी व महासती कृष्णकांता की अमर प्रेम गाथा |

कल्लाजी का जन्म का विक्रम संवत 1601 में राजस्थान प्रान्त के मेड़ता नगर में हुआ था। इनके पिताजी सामियाना जागीर के राव श्री अचलसिंहजी थे। भक्तिमती मीरा बाई कल्लाजी की बुआ थी। कल्लाजी ने अश्वारोहण, खडग संचालन, तीर कबाण, ढाल, भाला आदि शस्त्र संचालन में निपुणता पाई। युद्ध कौशल और नेतृत्व के गुणों से उनके पराक्रम का प्रकाश विधुतीय गति से फैलने लगा। अपनी भावज के मधुर उपालंभ सुन क्रोध में कल्लाजी ने मारवाड़ छोड़ मेवाड़ की तरफ प्रस्थान किया।

चित्तौड़के राणा उदयसिंह व काका जयमलजी ने कल्लाजी व उनके साथियों का स्वागत किया। राणा उदयसिंह ने कल्लाजी के शौर्ये, पराक्रम एवं स्वाभिमान को देखकर उन्हें रनेला का जागीरदार घोषित किया।

कल्लाजी ने अपने भाई तेजसिंह व साथीयों सहित अपनी नवीन राजथानी रनेला की ओर प्रस्थान किया। वहीं मार्ग में तेज वर्षा के कारण कल्लाजी व उनके साथीयों ने शिवगढ़ में रात्रि विश्राम किया और यहीं पर वागड़ राज्य की राजकुमारी कृष्णकान्ता से उनका प्रथम मिलन हुआ । 

वागड़ से विदा लेकर नवीन राजधानी रनेला में प्रवेश किया, जहाँ कल्लाजी का मधुर गीतों और ढोल व नगाड़ो की आवाज के मध्य राज्यभिषेक हुआ। 

गुरु भेरवनाथ के दर्शन –

कहा जाता है कि एक बार सोम नदी के किनारे घूमने निकले कल्लाजी को एक गुफा में योगिराज भैरवनाथ के दर्शन हुए । भैरवनाथ की प्रेरणा से कल्लाजी अकेले आकर प्रतिदिन गुफा में गुरु भैरवनाथ से योग की शिक्षा ग्रहण करने लगे। गुरु भैरवनाथजी की कृपा से कल्लाजी एक परम तेजस्वी योगिराज हुये। और गुरु की कृपा से कल्लाजी ने भविष्य दर्शन की कला सीखी। इस कला के फलस्वरूप कल्लाजी अपने जीवन की भावी घटनाओं की जानकारी जान लेने पर भी उसे सहज भाव से स्वीकारा।

विवाह –

अपनी पुत्री की भावना का अनुमान कर वागड़ के राजा कृष्णदास ने कुंवर कल्लाजी को राजकुमारी के योग्य समझते हुये सम्बन्ध का श्रीफल भेजा, जसे कुंवर कल्लाजी ने सहर्ष स्वीकार किया।

विवाह की निश्चित तिथि के दिन कुंवर कल्लाजी ने विवाह के लिए बारातियों सहित शिवगढ़ प्रस्थान किया। जिस समय कुंवर कल्लाजी दूल्हें की वेशभूषा धारण कर, सिर मोड़ बांध कर, ढोल नगाडों की धूम के साथ अश्व पर सवार होकर तोरण को उद्यत होते हैं, उसी समय मेवाड़ से सैनिक सूचना लेकर पहुंचते हैं कि चितौड़ पर अकबर ने विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दिया है। चितौड़ पर संकट की सूचना पाते ही शूरवीर कल्लाजी वैभव, सुख, रूपसी राजकुमारी के ब्याह को छोड़ कल्लाजी सेना सहित चित्तौड़ प्रस्थान करते है। राजकुमारी कृष्णकांता से वरमाला अवश्य ग्रहण करते हैं और राजकुमारी को पुनः आकर मिलने का वचन भी देते हैं |

सूर शिरोमणी कल्लाजी का चित्तौड़ रक्षार्थ युद्ध

दुर्गरक्षक वीर जयमल इनके आगमन पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और वीर कल्लाजी को अपने साथ दुर्ग की रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। वीरवर कल्ला, जयमल, पत्ता और ईश्वरदास आदि अपने प्राणों का मोह छोड़ कर अपनी दोनों भुजाओं से तलवार चलाते हुए देशभक्त, शूरवीर, सैनिकों एवं क्षत्रियों के साथ शत्रुदल पर भूखे शेर की भांति महाकाल बन कर टूट पड़े। 

जब बादशाह ने देखा की किला आसानी से प्राप्त नही होगा तो उसने सुरंगे और साबात (यानी जमीन में ढ़के हुए मार्ग जिससे सेना किले की दीवार तक पहुंच सके) बनवाना आरम्भ किया। सुरंगे तलहटी तक पहुंच गई और उनमे 80 मन और दूसरी में 120 मन बारूद भरी गई। इनके छुटने से किले का बुर्ज उड़ गया और कई योद्धा हताहत हुए। परन्तु अब तक अकबर को युद्ध में सफलता नही मिली, अकबर के सैनिकों ने कई जगह किले की दीवारें तोड़ दी, परन्तु राजपूतों ने पुनः बना ली।

राव जयमल की जांघ में गोली लगना –

अकबर की सेना के बार – बार तोपों के आक्रमण से किले की कई दीवारें टूट चुकी थी। एक रात्रि जयमल टूटी हुई प्राचीर की मरम्मत मशाल की रोशनी में करा रहे थे, तब अकबर ने मशाल की रोशनी को देख अपनी “संग्राम” नामक बन्दुक से निशाना साध कर गोली चाला दी, जिसकी गोली राव जयमलजी की जांघ में लगी जिससे जयमल घायल होकर चलने लायक नही रह सके। दुर्ग में सेनाध्यक्ष जयमल के घायल होने से शोक की लहर छा गयी।

तीसरा जौहर व शाका –

रात्रि में सभी क्षत्रिय व क्षत्राणियों ने एकत्र होकर शाही फौज का बढता हुआ दबाव, दुर्ग में गोला बारूद की कमी, भोजन की कमी और सेनाध्यक्ष के घायल होने कारण जौहर और शाका का फैसला किया। तारीख 24 फरवरी 1568 को 13000 राजपूत रमणियो और कुमारियों गंगा जल का पान कर, चन्दन लेप लगाकर और अपने परिजनों को अंतिम बार मिल कर गीता सार का स्मरण कर हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये हँसते – हँसते जौहर की अग्नि में समर्पित हो गई।

क्षत्रीयों ने दुर्ग के गौमुख में स्नान कर केसरिया बाना धारण कर गंगा जल का पान व गीता पाठ सुन अमल पान किया। सेनाध्यक्ष राव जयमल ने सरदारों को अमल पान कराया। सेनाध्यक्ष के अन्तिम मनुहार को चित्तौड़ की सेना ने बड़े प्रेम और सत्कार से स्वीकार किया। अब राजपूतों के उत्साह की कोई सीमा न रही। इस युद्ध में घायल सेनापति जयमल को लड़ते – लड़ते युद्ध में वीरगति प्राप्त करने की इच्छा थी। लेकिन गोली जयमल की जांघ में लगी थी। युद्ध करना तो दूर वे चलने– फिरने से भी मजबूर हो गये थे। तब वीर शिरोमणी कल्लाजी राठौड़ ने काका जयमल जी की पीड़ा को दूर करने के किये अपनी पीठ पर बैठा कर युद्ध करने का फैसला किया।


किले के विशाल कपाट को खोलना –

25 फरवरी 1568 की सुबह राजपूतों व क्षत्रियों ने दो हाथों में तलवार धारण कर और नर नाहर शूरवीर राठौड़ रणबंकेश श्री कल्लाजी अपनी दोनों हाथों में भवानी धारण कर 60 साल के काका जयमल जी को अपनी पीठ पर बैठा कर उनके दोनों हाथों में भवानी धारण करा कर मुगलों सेना पर भूखे शेर की तरह किले के विशाल कपाट खोल आक्रमण कर दिया।

क्षत्रियों ने जय एकलिंगनाथ, जय महादेव के नारों के साथ कई मुगलों को मार डाला वही श्री कल्लाजी व वीरवर जयमल जी का चतुर्भुज रूप रणभूमि में कही भी गुजरता वही को शत्रु सेना का मैदान साफ हो जाता। यह देख शत्रु सेना मैदान छोड़ भाग जाती थी। घायल जयमल कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठकर चल पड़ा रणचंडी का आव्हान करने | जयमल के दोनों हाथो की तलवारों ने बिजली के समान चमकते हुए शत्रुओं का संहार किया उसके शौर्य को देख कर अकबर भी आश्चर्यचकित था | इस भंयकर युद्ध में सैकडों घाव लगने पर राव जयमल का शरीर निश्चेष्ट हो गया और चित्तोड़ की रक्षा करते हुए यह वीर दुर्ग की हनुमान पोल व भैरव पोल के बीच वीर गति को प्राप्त हुआ, जहाँ उसकी याद में स्मारक बना हुआ है | 

इस युद्ध में वीर जयमल और पत्ता सिसोदिया की वीरता ने अकबर के हृदय पर ऐसी अमित छाप छोड़ी कि अकबर ने दोनों वीरों की हाथी पर सवार पत्थर की विशाल मूर्तियाँ बनाई | जिनका कई विदेश पर्यटकों ने अपने लेखो में उल्लेख किया है | यह भी प्रसिद्ध है कि अकबर द्वारा स्थापित इन दोनों की मूर्तियों पर निम्न दोहा अंकित था |

जयमल बड़ता जीवणे, पत्तो बाएं पास |
हिंदू चढिया हथियाँ चढियो जस आकास ||

बादशाह अकबर ने मुगल सेना को रणक्षेत्र से पीछे हटते देख राजपूतों पर मतवाले खूनी हाथियों को छोड़ दिया। अकबर ने अपने विशाल हाथियों की सूंड़ो में तलवारें की झालरें और दुधारे खांडे बंधवाई। इन हाथियों ने राजपूतों का घोर संहार करना आरम्भ कर दिया, लेकिन वीर क्षत्रिय राजपूत भीषण गर्जना कर विशालकाय हाथियों पर खड्ग लेकर टूट पडे ।

कई राजपूतों ने मतवाले हाथियों से लड़ते – लड़ते वीरगति प्राप्त की। “सर्वदलन” नामक हाथी जो एक राजपूत सैनिक को सूंड में पकड़ उठा लिया यह देख सुर शिरोमणी कल्लाजी ने तलवार के एक भीषण प्रहार से उस विशालकाय हाथी की सूंड काट दी। हाथी वही धराशायी हो गया। 

वीर कल्ला तलवारें चलाते हुए युद्ध कर रहे थे कि तभी एक मुगल ने पीछें से तलवार चला कर वीर कल्ला का सिर काट दिया। किन्तु बिना सिर के कल्लाजी का कंबध (कमधज) घोर संग्राम करता हुआ दोनों हाथों से तलवार लिये मुगलों की फौज को चीरता जा रहा था। भला इस कंबध को रोकने की शक्ति किसमें थी। शाही फौज रास्ता छोड़ कर खड़ी हो गई। मान्यता है कि कल्ला का कंबध योग शक्ति और गुरु आशीर्वाद से कृष्णकांता की याद में आधुनिक मंगलवाड़, कुराबड़, बम्बोरा जगत और जयसमन्द होता हुआ रनेला जा पहुंचा। 

मरण नहीं तरण –

शिवगढ़ में राजकुमारी कृष्णकांता ने तपोबल एवं विशुद्ध स्नेहाकर्षण शक्ति से यह अनुभव कर लिया की कल्लाजी ने मेवाड़ रक्षार्थ अपना शीश मातृभूमि को अर्पण कर दिया है। और अपने दिये हुये वचन के कारण मुझसे मिलने आ रहे है। तब सोलह श्रृंगार कर शिवगढ़ से विदा लेकर कृष्णकांता प्रिय मिलन को आतुर होकर दुल्हन के रूप में रनेला जा पहुंची।

रनेला में कल्लाजी का कबंध नीले घोड़े पर सवार होकर दो हाथों में तलवार लेकर आया। वीर शिरोमणी कल्लाजी ने राजकुमारी को दिये हुये वचन को पूरा कर रनेला की पावन धरा पर अपना मानव देह त्याग दिया।

विधिवत चन्दन की चिता तैयार की गई। राजपुताना परम्परा के अनुसार कृष्णकांता सती होने के लिये कल्लाजी का कबंध को गोद में लेकर चिता में विराजमान हो गई। हाथ जोड़ राजकुमारी ने मन ही मन भगवान को स्मरण किया कि मेरे स्वामी का सिर मुझको प्राप्त हो। राजकुमारी के सतीत्व की शक्ति से कल्लाजी का सिर भैरवनाथ व देवीय शक्ति की कृपा से उनकी गोद में आ गया। तब कल्लाजी का शीश कबंध से जोड़ विक्रम संवत 1624 (26 फरवरी 1568) में कल्लाजी के भाई तेजसिंह ने ईश्वर का स्मरण कर चिता में आग लगा दी। इस प्रकार वीर शिरोमणी कल्लाजी और महासती कृष्णकांता का प्रेम पूरे विश्व में अमर हो गया।


महावीर कल्लाजी व वीर अग्रणी जयमल की विमल स्मृति एवं निर्मल कीर्ति बनाये रखने के लिए चित्तौड़ किले के भैरोंपोल में जहा कल्लाजी का शीश कटा तथा जहा जयमलजी ने वीरगति प्राप्त की वहा इनकी दो छतरी बनी हुयी है।

आधार साभार - http://kallaji.blogspot.in/p/story-of-kallaji.html
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