कौन हैं हम – एलन वाट


(पिछले दिनों क्रांतिदूत की एक पोस्ट क्या है वैज्ञानिकों की दृष्टी में ईश्वर ? पर एक पाठक की प्रतिक्रिया आई कि विषय को विस्तार दिया जाए ! उनका आग्रह मानकर प्रस्तुत है प्रख्यात पश्चिमी दार्शनिक एलन वाट्स की पुस्तक का एक अंश ! आपको हैरत होगी कि उनका अभिमत वही है, जो भारतीय ऋषि महर्षियों का रहा था !)
कई बार धर्मपरायणता निषेधात्मक अधिक दिखाई देती है ! निषेध भी इतने जैसे प्याज की परतें ! एक निषेध से निकलो तो सामने दूसरा निषेध आया दिखता है ! और जहाँ तक ईश्वरीय कृपा की बात है तो उसके विषय में हम केवल मात्र इतना ही जानते हैं कि, वह कुछ को मिली है, और कुछ को नहीं ! जिन्हें मिली है, उन्हें क्यों मिली है, अथवा जिन पर उस कृपा की वर्षा नहीं हुई, वह क्यों नहीं हुई, इसका कोई जबाब हमारे पास नहीं होता ! इसी प्रकार यह दुनिया क्या है और क्यों है, इस प्रश्न का भी दुनिया के लगभग सभी मान्य धर्म सतत उत्तर खोजते रहे हैं, पर अभी तक कोई संतोष जनक समाधान देने में समर्थ दिखाई नहीं देते ! यहूदी, ईसाई, मुसलमान, हिंदू या बौद्ध उन खदानों के समान हो गए हैं, जिनमें निकालने को अब कुछ नहीं बचा ! तो क्या किया जाए ? क्या कोई नया धर्म खोजा जाए ? ईमानदारी की बात तो यह है कि हमें किसी नए धर्म की नहीं, नए प्रयोगों और अनुभूतियों की जरूरत है !

लुडविग विटगेंस्तें जैसे अनेक दार्शनिकों ने तो यह कहना ही शुरू कर दिया कि यह प्रश्न ही बेमानी हैं और इन पर विचार ही नहीं किया जाना चाहिए ! इससे छुटकारा मिलते ही अनेकों दर्शन संबंधी समस्याएं समाप्त हो जायेंगी ! शायद ऐसे दार्शनिक चिंतन का ही प्रभाव है कि आज की भौतिकवादी सभ्यता में इन प्रश्नों पर विचार होना कम हो गया है ! किन्तु हम यह नहीं समझ रहे हैं कि यह वृत्ति अत्याधिक विध्वंसक है ! राजनीतिक और नैतिक सन्दर्भों में इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं ! वस्तुतः एक और गलत बात हुई है, वह यह कि इन बातों पर चिंतन मनन केवल कुछ लोगों तक सीमित रह गया है, समाज या समुदाय में इन पर व्यापक विचार नहीं होता ! 

कई बार उपचार रोग से ज्यादा नुकसानदेह साबित होता है ! जैसे कि रेबीज के लिए पाश्चर सीरम ! यह सही है कि आधुनिक सभ्यता ने विशाल तकनीकी सफलता अर्जित की है, किन्तु दूसरी ओर यही तकनीक परमाणु बम से पूरे ग्रह को उड़ा सकती है, बढ़ती जनसंख्या इसका गला घोंट सकती है, संरक्षण का अभाव प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर ही रहा है या रसायनों और कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग मिट्टी की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर रहा है, साथ ही साथ पैदावार को भी जहरीला कर रहा है ! क्या यह सब चौंकाने वाली और भयावह नहीं हैं ? दरअसल समय इतनी तेजी से बदल रहा है कि हमने स्कूलों में जो पढ़ा, कालेज में आते आते वह कालबाह्य हो जाता है ! तकनीक और मानव की यह समस्या अमूमन गलत ढंग से परिभाषित की जाती है ! नैतिक प्रामाणिकता के बिना तकनीकी शक्ति, या तर्कसंगत विचारों के अभाव वाली शिक्षा, मानवता का समग्र विकास नहीं कर सकती ! सच कहा जाए तो हम मृग मरीचिका में जी रहे हैं ! अपने स्वयं के अस्तित्व को लेकर एक विकृत और सनसनीपूर्ण जीवधारी की मान्यता !

हममें से कईयों की मान्यता है कि “मैं” इस शरीर से घिरा एक प्रथक अस्तित्व हूँ, जो इस शरीर में तो रहता हूँ, किन्तु उसकी अनुभूतियाँ और क्रियाकलाप अलग हैं ! एक ऐसा केंद्र जो बाहरी दुनिया और उसकी चीजों का सामना करता है ! हमारी बोलचाल में लगभग प्रतिदिन यह ध्वनित होता है – “मैं इस दुनिया में आया हूँ” ! जरा विचार कीजिए – क्या यह अनुभूति व्यक्ति को एकाकी नहीं बनाती ? इस दुनिया में अस्थाई आने की धारणा क्या विज्ञान सम्मत है ? हम इस दुनिया में नहीं आये हैं, इस दुनिया में से आये हैं ! जैसे वृक्ष में पत्तियां, या समुद्र में लहर आती हैं ! हममें से प्रत्येक इस सम्पूर्ण सृष्टि का एक घटक है, एक अद्वितीय क्रिया है !

जी के चेस्टरटन ने एक बार कहा था कि एक कुरूप और खूंखार प्राणी जो अस्तित्व में ही नहीं है, उसकी कल्पना कर के चकित होना एक बात है, किन्तु उससे कहीं अधिक बड़ी बात है – एक गेंडा या जिराफ जैसे असित्ववान प्राणी को जैसा वह नहीं है, बैसा मानकर चकित होना ! बैसे चकित होना कोई बीमारी तो है नहीं, यह तो महज अभिव्यक्ति है ! अभिव्यक्ति, जो इंसान को जानवर से और एक बुद्धिमान को मूर्ख से प्रथक दर्शाती है ! 

अतः प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन दर्शन हो सकता है, दुनिया को देखने का एक अलग नजरिया हो सकता है ! प्रत्येक व्यक्ति यह सोचने को स्वतंत्र है कि उसका जीवन कैसे सार्थक हो ! हमारा अस्तित्व अगर सजगता के धरातल पर है, तो वह चीजों को बैसे नहीं समझेगा, जैसा कि बताया जाएगा, वह अपने अनुभूत तथ्यों और तर्कों से समझेगा ! किसी के लिए पौराणिक गाथाएँ बेमानी हो जायेंगी, तो किसी को उनमें उपयोगी और महत्वपूर्ण तथ्य दिखाई देंगे ! सजगता होगी तो व्यक्ति दिशा निर्देशक पट पर नहीं चढ़ेगा, उसके द्वारा बताई गई दिशा में बढेगा ! 

यह दुनिया कहाँ से आई ? ईश्वर ने यह दुनिया क्यों बनाई ? जन्म के पहले मैं कहाँ था ? मरने के बाद लोग कहाँ जाते हैं ? अधिकाँश लोग एक पुरानी कहानी से संतुष्ट हो सकते हैं –

दुनिया के प्रारम्भ होने का कोई समय नहीं है ! क्योंकि यह वृत्ताकार है और वृत्त में कोई शुरूआती बिंदु नहीं होता ! जैसे कि समय बताने वाली घड़ी ! उसी के समान दुनिया भी बार बार शुरू होती है, जैसे कि घड़ी में सबसे ऊपर 12 और सबसे नीचे छः का होना ! इसी प्रकार दिन और रात का बार बार आना ! बार बार जागना और सोना ! जैसे गर्मी और सर्दी, बैसे ही जन्म लेना और मर जाना ! आप किसी एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं कर सकते ! जैसे कि सफ़ेद के बिना काले या काले के बिना सफ़ेद की कल्पना नहीं की जा सकती ! 

बैसे ही एक समय पर दुनिया है, एक समय पर नहीं है ! इसका विलुप्त होना और पुनः वापस आना अनथक जारी रहता है, जैसे कि हमारी साँसों का क्रम ! इसे आप छुपा छुपाई का खेल कह सकते हैं ! यही इसकी रोचकता है ! आखिर ढूँढने का भी तो अपना मजा है ! इस खेल में हर बार एक ही जगह नहीं छुपा जाता, इसलिए खोजने का यह आनंद और बढ़ जाता है, बशर्ते खोजी वृत्ति रहे !

ईश्वर को भी छुपा छुपाई खेलना पसंद है ! अब सवाल उठता है कि ईश्वर के बाहर तो कुछ है ही नहीं, तो क्या ईश्वर खुद से ही खेलता है ? इसलिए वह स्वयं को स्वयं से प्रथक दर्शाने का नाटक करता है ! यह उसका अपना तरीका है,स्वयं से स्वयं को छुपाने का ! वह स्वयं को आपमें, मुझमें, दुनिया के दूसरे लोगों और प्राणियों में छुपाता है ! यह उसका अनोखा, अचरज भरा और रोमांचक तमाशा है ! वह स्वयं को जल्दी नहीं ढूँढता, क्योंकि उससे तो उसके खेल का ही सत्यानास हो जाएगा ! यही कारण है कि हम और आप नहीं जान पाते कि हमारे वेश में ईश्वर है ! लेकिन जब हममें से किसी को खेल उबाऊ लगने लगता है, वह जाग जाता है, छुपना बंद कर देता है, और वह जान जाता है कि हम सब एक ही हैं ! सबमें ईश्वर है, कल भी था आज भी है और सदा रहेगा !

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