रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा - भाग 3


मेरी माँ
ग्यारह वर्ष की उम्र में माता जी विवाह कर शाहजहाँपुर आई थीं । उस समय वह नितान्त अशिक्षित एवं ग्रामीण कन्या के सदृश थीं । शाहजहाँपुर आने के थोड़े दिनों बाद श्री दादी जी ने अपनी बहन को बुला लिया । उन्होंने माता जी को गृह-कार्य की शिक्षा दी । थोड़े दिनों में माता जी ने घर के सब काम-काज को समझ लिया और भोजनादि का ठीक-ठीक प्रबन्ध करने लगीं । मेरे जन्म होने के पांच या सात वर्ष बाद उन्होंने हिन्दी पढ़ना आरम्भ किया । पढ़ने का शौक उन्हें खुद ही पैदा हुआ था । मुहल्ले की सखी-सहेली जो घर पर आया करती थी, उन्हीं में जो कोई शिक्षित थीं, माता जी उनसे अक्षर-बोध करतीं । इस प्रकार घर का सब काम कर चुकने के बाद जो कुछ समय मिल जाता, उस में पढ़ना-लिखना करतीं । परिश्रम के फल से थोड़े दिनों में ही वह देवनागरी पुस्तकों का अवलोकन करने लगीं । मेरी बहनों की छोटी आयु में माता जी ही उन्हें शिक्षा दिया करती थीं । जब मैंने आर्य-समाज में प्रवेश किया, तब से माता जी से खूब वार्तालाप होता । उस समय की अपेक्षा अब उनके विचार भी कुछ उदार हो गए हैं । यदि मुझे ऐसी माता न मिलती तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों की भांति संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता । शिक्षादि के अतिरिक्त क्रान्तिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की है, जैसी मेजिनी को उनकी माता ने की थी । यथासमय मैं उन सारी बातों का उल्लेख करूंगा । माताजी का सबसे बड़ा आदेश मेरे लिए यह था कि किसी की प्राण हानि न हो । उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दण्ड न देना । उनके इस आदेश की पूर्ति के लिए मुझे मजबूरन दो-एक बार अपनी प्रतिज्ञा भंग भी करनी पड़ी थी ।

जन्मदात्री जननी ! इस दिशा में तो तुम्हारा ऋण-परिशोध करने के प्रयत्न का अवसर न मिला । इस जन्म में तो क्या यदि अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न करूँ तो भी मैं तुम से उऋण नहीं हो सकता । जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है । मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुम ने किस प्रकार अपनी देव वाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है । तुम्हारी दया से ही मैं देश-सेवा में संलग्न हो सका । धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी । जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका श्रेय तुम्हीं को है । जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थीं, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक नत हो जाता है । तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर एक बात को समझा दिया । यदि मैंने धृष्तापूर्ण उत्तर दिया तब तुम ने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किन्तु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा । जीवनदात्री ! तुम ने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया किन्तु आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं । जन्म-जन्मान्तर परमात्मा ऐसी ही माता दें ।

महान से महान संकट में भी तुम ने मुझे अधीर न होने दिया । सदैव अपनी प्रेम भरी वाणी को सुनाते हुए मुझे सान्त्वना देती रहीं । तुम्हारी दया की छाया में मैंने अपने जीवन भर में कोई कष्ट अनुभव न किया । इस संसार में मेरी किसी भी भोग-विलास तथा ऐश्वर्य की इच्छा नहीं । केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता । किन्तु यह इच्छा पूर्ण होती नहीं दिखाई देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुःख-सम्वाद सुनाया जायेगा । माँ ! मुझे विश्‍वास है कि तुम यह समझ कर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता - भारत माता - की सेवा में अपने जीवन को बलि-वेदी की भेंट कर गया और उसने तुम्हारी कुक्ष को कलंकित न किया, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा । जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जायेगा, तो उसके किसी पृष्ठ पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जायेगा । गुरु गोविन्दसिंहजी की धर्मपत्नी ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु का सम्वाद सुना था, तो बहुत हर्षित हुई थी और गुरु के नाम पर धर्म रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बाँटी थी । जन्मदात्री ! वर दो कि अन्तिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूँ ।

मेरे गुरुदेव

माता जी के अतिरिक्त जो कुछ जीवन तथा शिक्षा मैंने प्राप्त की वह पूज्यपाद श्री स्वामी सोमदेव जी की कृपा का परिणाम है । आपका नाम श्रीयुत ब्रजलाल चौपड़ा था । पंजाब के लाहौर शहर में आपका जन्म हुआ था । आपका कुटुम्ब प्रसिद्ध था, क्योंकि आपके दादा महाराजा रणजीत सिंह के मंत्रियों में से एक थे । आपके जन्म के कुछ समय पश्चात् आपकी माता का देहान्त हो गया था । आपकी दादी जी ने ही आपका पालन-पोषण किया था । आप अपने पिता की अकेली सन्तान थे । जब आप बढ़े तो चाचियों ने दो-तीन बार आपको जहर देकर मार देने का प्रयत्न किया, ताकि उनके लड़कों को ही जायदाद का अधिकार मिल जाय । आपके चाचा आप पर बड़ा स्नेह रखते थे और शिक्षादि की ओर विशेष ध्यान रखते थे । अपने चचेरे भाईयों के साथ-साथ आप भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते थे । जब आपने एण्ट्रेन्स की परीक्षा दी तो परीक्षा फल प्रकाशित होने पर आप यूनिवर्सिटी में प्रथम आये और चाचा के लड़के फेल हो गये । घर में बड़ा शोक मनाया गया । दिखाने के लिए भोजन तक नहीं बना । आपकी प्रशंसा तो दूर, किसी ने उस दिन भोजन करने को भी न पूछा और बड़ी उपेक्षा की दृष्टि से देखा । आपका हृदय पहले से ही घायल था, इस घटना से आपके जीवन को और भी बड़ा आघात पहुँचा । चाचाजी के कहने-सुनने पर कालिज में नाम लिख तो लिया, किन्तु बड़े उदासीन रहने लगे । आपके हृदय में दया बहुत थी । बहुधा अपनी किताबें तथा कपड़े दूसरे सहपाठियों को बाँट दिया करते थे । एक बार चाचाजी से दूसरे लोगों ने कहा कि ब्रजलाल को कपड़े भी आप नहीं बनवा देते, जो वह पुराने फटे-कपड़े पहने फिरता है । चाचाजी को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्होंने कई जोड़े कपड़े थोड़े दिन पहले ही बनवाये थे । आपके सन्दूकों की तलाशी ली गई । उनमें दो-चार जोड़ी पुराने कपड़े निकले, तब चाचाजी ने पूछा तो मालूम हुआ कि वे नये कपड़े निर्धन विद्यार्थियों को बांट दिया करते हैं । चाचाजी ने कहा कि जब कपड़े बाँटने की इच्छा हो तो कह दिया करो, हम विद्यार्थियों को कपड़े बनवा दिया करेंगे, अपने कपड़े न बांटा करो । आप बहुत निर्धन विद्यार्थियों को अपने घर पर ही भोजन कराया करते थे । चाचियों तथा चचाजात भाईयों के व्यवहार से आपको बड़ा क्लेश होता था । इसी कारण से आपने विवाह न किया । घरेलू दुर्व्यवहार से दुखी होकर आपने घर त्याग देने का निश्चय कर लिया और एक रात को जब सब सो रहे थे, चुपचाप उठकर घर से निकल गये । कुछ सामान साथ में लिया । बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकते रहे । भटकते-भटकते आप हरिद्वार पहुँचे । वहाँ एक सिद्ध योगी से भेंट हुई । श्री ब्रजलाल को जिस वस्तु की इच्छा थी, वह प्राप्त हो गई । उसी स्थान पर रहकर श्री ब्रजलाल ने योग-विद्या की पूर्ण शिक्षा पाई । योगिराज की कृपा से आप 15-20 घण्टे की समाधि लगा लेने लगे । कई वर्ष तक आप वहाँ रहे । इस समय आपको योग का इतना अभ्यास हो गया था कि अपने शरीर को आप इतना हल्का कर लेते थे कि पानी पर पृथ्वी के समान चले जाते थे । अब आपको देश भ्रमण का अध्ययन करने की इच्छा हुई । अनेक स्थानों से भ्रमण करते हुए अध्ययन करते रहे । जर्मनी तथा अमेरिका से बहुत सी पुस्तकें मंगवाई जो शास्त्रों के सम्बन्ध में थीं । 

जब लाला लाजपतराय को देश-निर्वासन का दण्ड मिला था, उस समय आप लाहौर में थे । वहां आपने एक समाचार-पत्र की सम्पादकी के लिए डिक्लेरेशन दाखिल किया । डिप्टी कमिश्नर उस समय किसी के भी समाचारपत्र के डिक्लेरेशन को स्वीकार न करता था । जब आपसे भेंट हुई तो वह बड़ा प्रभावित हुआ और उसने डिक्लेरेशन मंजूर कर लिया । अखबार का पहला ही अग्रलेख 'अंग्रेजों को चेतावनी' के नाम से निकला । लेख इतना उत्तेजनापूर्ण था कि थोड़ी देर में ही समाचार पत्र की सब प्रतियां बिक गईं और जनता के अनुरोध पर उसी अंक का दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा । डिप्टी कमिश्नर के पास रिपोर्ट हुई । उसने आपको दर्शनार्थ बुलाया । वह बड़ा क्रुद्ध था । लेख को पढ़कर कांपता, और क्रोध में आकर मेज पर हाथ दे मारता था । किन्तु अंतिम शब्दों को पढ़कर चुप हो जाता । उस लेख के कुछ शब्द यों थे कि "यदि अंग्रेज अब भी न समझेंगे तो वह दिन दूर नहीं कि सन् 1857 के दृश्य फिर दिखाई दें और अंग्रेजों के बच्चों को कत्ल किया जाय, उनकी रमणियों की बेइज्जती हो इत्यादि । किन्तु यह सब स्वप्न है, यह सब स्वप्न है" । इन्हीं शब्दों को पढ़कर डिप्टी कमिश्नर कहता कि हम तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते ।

स्वामी सोमदेव भ्रमण करते हुए बम्बई पहुंचे । वहां पर आपके उपदेशों को सुनकर जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ा । एक व्यक्ति, जो श्रीयुत अबुल कलाम आज़ाद के बड़े भाई थे, आपका व्याख्यान सुनकर मोहित हो गये । वह आपको अपने घर ले गये । इस समय तक आप गेरुआ कपड़ा न पहनते थे । केवल एक लुंगी और कुर्ता पहनते थे, और साफा बांधते थे । श्रीयुत अबुल कलाम आजाद के पूर्वज अरब के निवासी थे । आपके पिता के बम्बई में बहुत से मुरीद थे और कथा की तरह कुछ धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने पर हजारों रुपये चढ़ावे में आया करते थे । वह सज्जन इतने मोहित हो गए कि उन्होंने धार्मिक कथाओं का पाठ करने के लिए जाना ही छोड़ दिया । वह दिन रात आपके पास ही बैठे रहते । जब आप उनसे कहीं जाने को कहते तो वह रोने लगते और कहते कि मैं तो आपके आत्मिक ज्ञान के उपदेशों पर मोहित हूँ । मुझे संसार में किसी वस्तु की इच्छा नहीं । आपने एक दिन नाराज होकर उनको धीरे से चपत मार दी जिससे वे दिन-भर रोते रहे । उनको घर वालों तथा शिष्यों ने बहुत समझाया किन्तु वह धार्मिक कथा कहने न जाते । यह देखकर उनके मुरीदों को बड़ा क्रोध आया कि हमारे धर्मगुरु एक काफिर के चक्कर में फँस गए हैं । एक सन्ध्या को स्वामी जी अकेले समुद्र के तट पर भ्रमण करने गये थे कि कई मुरीद बन्दूक लेकर स्वामीजी को मार डालने के लिए मकान पर आये । यह समाचार जानकर उन्होंने स्वामी के प्राणों का भय देख स्वामी जी से बम्बई छोड़ देने की प्रार्थना की । प्रातःकाल एक स्टेशन पर स्वामी जी को तार मिला कि आपके प्रेमी श्रीयुत अबुलकलाम आजाद के भाई साहब ने आत्महत्या कर ली । तार पढ़कर आपको बड़ा क्लेश हुआ । जिस समय आपको इन बातों का स्मरण हो आता था तो बड़े दुःखी होते थे । मैं एक सन्ध्या के समय आपके निकट बैठा था, अंधेरा काफी हो गया था । स्वामी जी ने बड़ी गहरी ठंडी सांस ली । मैने चेहरे की ओर देखा तो आंखों से आंसू बह रहे थे । मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । मैने कई घण्टे प्रार्थना की, तब आपने उपरोक्त विवरण सुनाया ।

अंग्रेजी की योग्यता आपकी बड़ी उच्चकोटि की थी । आपका शास्त्र विषयक ज्ञान बड़ा गम्भीर था । आप बड़े निर्भीक वक्ता थे । आपकी योग्यता को देखकर एक बार मद्रास की कांग्रेस कमेटी ने आपको अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुनकर भेजा था । आगरा की आर्यमित्र-सभा के वार्षिकोत्सव पर आपके व्याख्यानों को श्रवण कर राजा महेन्द्रप्रताप भी बड़े मुग्ध हुए थे । राजा साहब ने आपके पैर छुए और आपको अपनी कोठी पर लिवा ले गए । उस समय से राजा साहब बहुधा आपके उपदेश सुना करते और आपको अपना गुरु मानते थे । इतना साफ निर्भीक बोलने वाला मैंने आज तक नहीं देखा । सन् 1913 ई. में मैंने आपका पहला व्याख्यान शाहजहाँपुर में सुना था । आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर आप पधारे थे । उस समय आप बरेली में निवास करते थे । आपका शरीर बहुत कृश था, क्योंकि आपको एक अजीब रोग हो गया था । आप जब शौच जाते थे, तब आपको खून गिरता था । कभी दो छटांक, कभी चार छटांक और कभी कभी तो एक सेर तक खून गिर जाता था । बवासीर आपको नहीं थी । ऐसा कहते थे कि किसी प्रकार योग की क्रिया बिगड़ जाने से पेट की आंत में कुछ विकार उत्पन्न हो गया । आँत सड़ गई । पेट चिरवाकर आँत कटवानी पड़ी और तभी से यह रोग हो गया था । बड़े-बड़े वैद्य-डाक्टरों की औषधि की किन्तु कुछ लाभ न हुआ । इतने कमजोर होने पर भी जब व्याख्यान देते तब इतने जोर से बोलते कि तीन-चार फर्लांग से आपका व्याख्यान साफ सुनाई देता था । दो-तीन वर्ष तक आपको हर साल आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर बुलाया जाता । सन् 1915 ई० में कतिपय सज्जनों की प्रार्थना पर आप आर्यसमाज मन्दिर शाहजहाँपुर में ही निवास करने लगे । इसी समय से मैंने आपकी सेवा-सुश्रुषा में समय व्यतीत करना आरम्भ कर दिया ।

स्वामीजी मुझे धार्मिक तथा राजनैतिक उपदेश देते थे और इसी प्रकार की पुस्तकें पढ़ने का भी आदेश करते थे । राजनीति में भी आपका ज्ञान उच्च कोटि का था । लाला हरदयाल का आपसे बहुत परामर्श होता था । एक बार महात्मा मुंशीराम जी (स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्द जी) को आपने पुलिस के प्रकोप से बचाया । आचार्य रामदेव जी तथा श्रीयुत कृष्णजी से आपका बड़ा स्नेह था । राजनीति में आप मुझे अधिक खुलते न थे । आप मुझसे बहुधा कहा करते थे कि एण्ट्रेंस पास कर लेने के बाद यूरोप यात्रा अवश्य करना । इटली जाकर महात्मा मेजिनी की जन्मभूमि के दर्शन अवश्य करना । सन् 1916 ई० में लाहौर षड्यंत्र का मामला चला । मैं समाचार पत्रों में उसका सब वृत्तांत बड़े चाव से पढ़ा करता था । श्रीयुत भाई परमानन्द से मेरी बड़ी श्रद्धा थी, क्योंकि उनकी लिखी हुई 'तवारीख हिन्द' पढ़कर मेरे हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा था । लाहौर षड्यंत्र का फैसला अखबारों में छपा । भाई परमानन्द जी को फांसी की सजा पढ़कर मेरे शरीर में आग लग गई । मैंने विचारा कि अंग्रेज बड़े अत्याचारी हैं, इनके राज्य में न्याय नहीं, जो इतने बड़े महानुभाव को फांसी की सजा का हुक्म दे दिया । मैंने प्रतिज्ञा की कि इसका बदला अवश्य लूंगा । जीवन-भर अंग्रेजी राज्य को विध्वंस करने का प्रयत्न करता रहूंगा । इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर चुकने के पश्चात् मैं स्वामीजी के पास आया । सब समाचार सुनाए और अखबार दिया । अखबार पढ़कर स्वामीजी भी बड़े दुखित हुए । तब मैंने अपनी प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में कहा । स्वामीजी कहने लगे कि प्रतिज्ञा करना सरल है, किन्तु उस पर दृढ़ रहना कठिन है । मैंने स्वामीजी को प्रणाम कर उत्तर दिया कि यदि श्रीचरणों की कृपा बनी रहेगी तो प्रतिज्ञा पूर्ति में किसी प्रकार की त्रुटि न करूंगा । उस दिन से स्वामीजी कुछ-कुछ खुले । आप बहुत-सी बातें बताया करते थे । उसी दिन से मेरे क्रान्तिकारी जीवन का सूत्रपात हुआ । यद्यपि आप आर्य-समाज के सिद्धान्तों को सर्वप्रकारेण मानते थे, किन्तु परमहंस रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ तथा महात्मा कबीरदास के उपदेशों का वर्णन प्रायः किया करते थे ।

धार्मिक तथा आत्मिक जीवन में जो दृढ़ता मुझ में उत्पन्न हुई, वह स्वामीजी महाराज के सदुपदेशों का ही परिणाम हैं । आपकी दया से ही मैं ब्रह्मचर्य-पालन में सफल हुआ । आपने मेरे भविष्य-जीवन के सम्बन्ध में जो-जो बातें कहीं थीं, अक्षरशः सत्य हुईं । आप कहा करते थे कि दुःख है कि यह शरीर न रहेगा और तेरे जीवन में बड़ी विचित्र-विचित्र समस्याएँ आयेंगीं, जिनको सुलझाने वाला कोई न मिलेगा । यदि यह शरीर नष्ट न हुआ, जो असम्भव है, तो तेरा जीवन भी संसार में एक आदर्श जीवन होगा । मेरा दुर्भाग्य था कि जब आपके अन्तिम दिन बहुत निकट आ गए, तब आपने मुझे योगाभ्यास सम्बन्धी कुछ क्रियाएं बताने की इच्छा प्रकट की, किन्तु आप इतने दुर्बल हो गए थे कि जरा-सा परिश्रम करने या दस-बीस कदम चलने पर ही आपको बेहोशी आ जाती थी । आप फिर कभी इस योग्य न हो सके कि कुछ देर बैठ कर कुछ क्रियाऐं मुझे बता सकते । आपने कहा था, मेरा योग भ्रष्ट हो गया । प्रयत्न करूंगा, मरण समय पास रहना, मुझ से पूछ लेना कि मैं कहाँ जन्म लूंगा । सम्भव है कि मैं बता सकूँ । नित्य-प्रति सेर-आध-सेर खून गिर जाने पर भी आप कभी भी क्षुब्ध न होते थे । आपकी आवाज भी कभी कमजोर न हुई । जैसे अद्वितीय आप वक्ता थे, वैसे ही आप लेखक भी थे । आपके कुछ लेख तथा पुस्तकें आपके एक भक्त के पास थीं जो यों ही नष्ट हो गईं। कुछ लेख आपने प्रकाशित भी कराए थे । लगभग 57 वर्ष की उम्र में आपने इहलोक त्याग दिया । इस स्थान पर मैं महात्मा कबीरदास के कुछ अमृत वचनों का उल्लेख करता हूँ जो मुझे बड़े प्रिय तथा शिक्षाप्रद मालूम हुए –

'कबिरा' शरीर सराय है भाड़ा देके बस ।
जब भठियारी खुश रहै तब जीवन का रस ॥१॥
'कबिरा' क्षुधा है कूकरी करत भजन में भंग ।
याको टुकरा डारि के सुमिरन करो निशंक ॥२॥
नींद निसानी नीच की उट्ठ 'कबिरा' जाग ।
और रसायन त्याग के नाम रसाय चाख ॥३॥
चलना है रहना नहीं चलना बिसवें बीस ।
'कबिरा' ऐसे सुहाग पर कौन बँधावे सीस ॥४॥
अपने अपने चोर को सब कोई डारे मारि ।
मेरा चोर जो मोहिं मिले सरवस डारूँ वारि ॥५॥
कहे सुने की है नहीं देखा देखी बात ।
दूल्हा दुल्हिन मिलि गए सूनी परी बरात ॥६॥
नैनन की करि कोठरी पुतरी पलँग बिछाय ।
पलकन की चिक डारि के पीतम लेहु रिझाय ॥७॥
प्रेम पियाला जो पिये सीस दच्छिना देय ।
लोभी सीस न दै सके, नाम प्रेम का लेय ॥८॥
सीस उतारे भुँइ धरै तापे राखै पाँव ।
दास 'कबिरा' यूं कहे ऐसा होय तो आव ॥९॥
निन्दक नियरे राखिये आँखन कुई छबाय ।
बिन पानी साबुन बिना उज्जवल करे सुभाय ॥१०॥

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन वर्तमान समय में इस देश की कुछ ऐसी दुर्दशा हो रही है कि जितने धनी तथा गणमान्य व्यक्ति हैं उनमें 99 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपनी सन्तान-रूपी अमूल्य धन-राशि को अपने नौकर तथा नौकरानियों के हाथ में सौंप देते हैं । उनकी जैसी इच्छा हो, वे उन्हें बनावें ! मध्यम श्रेणी के व्यक्ति भी अपने व्यवसाय तथा नौकरी इत्यादि में फँसे होने के कारण सन्तान की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकते । सस्ता कामचलाऊ नौकर या नौकरानी रखते हैं और उन्हीं पर बाल-बच्चों का भार सौंप देते हैं, ये नौकर बच्चों को नष्ट करते हैं । यदि कुछ भगवान की दया हो गई, और बच्चे नौकर-नौकरानियों के हाथ से बच गए तो मुहल्ले की गन्दगी से बचना बड़ा कठिन है । रहे-सहे स्कूल में पहुँचकर पारंगत हो जाते हैं । कालिज पहुँचते-पहुँचते आजकल के नवयुवकों के सोलहों संस्कार हो जाते हैं । कालिज में पहुँचकर ये लोग समाचार-पत्रों में दिए औषधियों के विज्ञापन देख-देखकर दवाइयों को मँगा-मँगाकर धन नष्ट करना आरम्भ करते हैं । 95 प्रतिशत की आँखें खराब हो जाती हैं । कुछ को शारीरिक दुर्बलता तथा कुछ को फैशन के विचार से ऐनक लगाने की बुरी आदत पड़ जाती है शायद ही कोई विद्यार्थी ऐसा हो जिसकी प्रेम-कथा कथायें प्रचलित न हों । ऐसी अजीब-अजीब बातें सुनने में आती हैं कि जिनका उल्लेख करने से भी ग्लानि होती है । यदि कोई विद्यार्थी सच्चरित्र बनने का प्रयास भी करता है और स्कूल या कालिज में उसे कुछ अच्छी शिक्षा भी मिल जाती है, तो परिस्थितियाँ जिनमें उसे निर्वाह करना पड़ता है, उसे सुधरने नहीं देतीं । वे विचारते हैं कि थोड़ा सा जीवन का आनन्द ले लें, यदि कुछ खराबी पैदा हो गई तो दवाई खाकर या पौष्टिक पदार्थों का सेवन करके दूर कर लेंगे । यह उनकी बड़ी भारी भूल है ।

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अंग्रेजी की कहावत है "Only for one and for ever." तात्पर्य यह है कि कि यदि एक समय कोई बात पैदा हुई, मानो सदा के लिए रास्ता खुल गया । दवाईयाँ कोई लाभ नहीं पहुँचाती । अण्डों का जूस, मछली के तेल, मांस आदि पदार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होते हैं । सबसे आवश्यक बात चरित्र सुधारना ही होती है । विद्यार्थियों तथा उनके अध्यापकों को उचित है कि वे देश की दुर्दशा पर दया करके अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्न करें । सार में ब्रह्मचर्य ही संसारी शक्तियों का मूल है । बिन ब्रह्मचर्य-व्रत पालन किए मनुष्य-जीवन नितान्त शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है । संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं । ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी बंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो ।

जिन विद्यार्थियों को बाल्यावस्था में कुटेव की बान पड़ जाती है, या जो बुरी संगत में पड़कर अपना आचरण बिगाड़ लेते हैं और फिर अच्छी शिक्षा पाने पर आचरण सुधारने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु सफल मनोरथा नहीं होते, उन्हें भी निराश न होना चाहिए । मनुष्य-जीवन अभ्यासों का एक समूह है । मनुष्य के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक विचार तथा भाव उत्पन्न होते रहते हैं । क्रिया के बार-बार होने से उसमें ऐच्छिक भाव निकल जाता है और उसमें तात्कालिक प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है । इन तात्कालिक प्रेरक क्रियाओं की, जो पुनरावृत्ति का फल है, 'अभ्यास' कहते हैं । मानवी चरित्र इन्हीं अभ्यासों द्वारा बनता है । 

अभ्यास से तात्पर्य आदत, स्वभाव, बान है । अभ्यास अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं । यदि हमारे मन में निरन्तर अच्छे विचार उत्पन्न हों, तो उनका फल अच्छे अभ्यास होंगे और यदि बुरे विचारों में लिप्त रहे, तो निश्चय रूपेण अभ्यास बुरे होंगे । मन इच्छाओं का केन्द्र है । उन्हीं की पूर्ति के लिए मनुष्य को प्रयत्न करना पड़ता है । अभ्यासों के बनने में पैतृक संस्कार, अर्थात् माता-पिता के अभ्यासों के अनुकरण ही बच्चों के अभ्यास का सहायक होता है । दूसरे, जैसी परिस्थियों में निवास होता है, वैसे ही अभ्यास भी पड़ते हैं । तीसरे, प्रयत्न से भी अभ्यासों का निर्माण होता है, यह शक्ति इतनी प्रबल हो सकती है कि इसके द्वारा मनुष्य पैतृक संसार तथा परिस्थितियों को भी जीत सकता है । हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य अभ्यासों के अधीन है । यदि अभ्यासों द्वारा हमें कार्य में सुगमता न प्रतीत होती, तो हमारा जीवन बड़ा दुखमय प्रतीत होता । लिखने का अभ्यास, वस्त्र पहनना, पठन-पाठन इत्यादि इनके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । यदि हमें प्रारम्भिक समय की भाँति सदैव सावधानी से काम लेना हो, तो कितनी कठिनता प्रतीत हो । इसी प्रकार बालक का खड़ा होना और चलना भी है कि उस समय वह कितना कष्ट अनुभव करता है, किन्तु एक मनुष्य मीलों तक चला जाता है । बहुत लोग तो चलते-चलते नींद भी ले लेते हैं । जैसे जेल में बाहरी दीवार पर घड़ी में चाबी लगाने वाले, जिन्हें बराबर छः घंटे चलना होता है, वे बहुधा चलते-चलते सो लिया करते हैं ।

मानसिक भावों को शुद्ध रखते हुए अन्तःकरण को उच्च विचारों में बलपूर्वक संलग्न करने का अभ्यास करने से अवश्य सफलता मिलेगी । प्रत्येक विद्यार्थी या नवयुवक को, जो कि ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा रखता है, उचित है कि अपनी दिनचर्या निश्चित करे । खान-पानादि का विशेष ध्यान रखे । महात्माओं के जीवन-चरित्र तथा चरित्र-संगठन संबन्धी पुस्तकों का अवलोकन करे । प्रेमालाप तथा उपन्यासों से समय नष्ट न करे । खाली समय अकेला न बैठे । जिस समय कोई बुरे विचार उत्पन्न हों, तुरन्त शीतल जलपान कर घूमने लगे या किसी अपने से बड़े के पास जाकर बातचीत करने लगे । अश्लील (इश्कभरी) गजलों, शेरों तथा गानों को न पढ़ें और न सुने । स्त्रियों के दर्शन से बचता रहे । माता तथा बहन से भी एकान्त में न मिले । सुन्दर सहपाठियों या अन्य विद्यार्थियों से स्पर्श तथा आलिंगन की भी आदत न डाले।

विद्यार्थी प्रातःकाल सूर्य उदय होने से एक घण्टा पहले शैया त्यागकर शौचादि से निवृत हो व्यायाम करे या वायु-सेवनार्थ बाहर मैदान में जावे । सूर्य उदय होने के पाँच-दस मिनट पूर्व स्नान से निवृत होकर यथा-विश्वास परमात्मा का ध्यान करे । सदैव कुऐं के ताजे जल से स्नान करे । यदि कुऐं का जल प्राप्त हो तो जाड़ों में जल को थोड़ा-सा गुनगुना कर लें और गर्मियों में शीतल जल से स्नान करे । स्नान करने के पश्चात् एक खुरखुरे तौलिये या अंगोछे से शरीर खूब मले । उपासना के पश्चात् थोड़ा सा जलपान करे । कोई फल, शुष्क मेवा, दुग्ध अथवा सबसे उत्तम यह है कि गेहूँ का दलिया रंधवाकर यथारुचि मीठा या नमक डालकर खावे । फिर अध्ययन करे और दस बजे से ग्यारह बजे के मध्य में भोजन ले । भोज में मांस, मछली, चरपरे, खट्टे गरिष्ट, बासी तथा उत्तेजक पदार्थों का त्याग करे । प्याज, लहसुन, लाल मिर्च, आम की खटाई और अधिक मसालेदार भोजन कभी न खावे । सात्विक भोजन करे । शुष्क भोजन का भी त्याग करे । जहाँ तक हो सके सब्जी अर्थात् साग अधिक खावे । भोजन खूब चबा-चबा कर किया करे । अधिक गरम या अधिक ठंडा भोजन भी वर्जित है । स्कूल अथवा कालिज से आकर थोड़ा-सा आराम करके एक घण्टा लिखने का काम करके खेलने के लिए जावे । मैदान में थोड़ा घूमे भी । घूमने के लिए चौक बाजार की गन्दी हवा में जाना ठीक नहीं । स्वच्छ वायु का सेवन करें । संध्या समय भी शौच अवश्य जावे । थोड़ा सा ध्यान करके हल्का सा भोजन कर लें । यदि हो सके तो रात्रि के समय केवल दुग्ध पीने का अभ्यास डाल लें या फल खा लिया करें । स्वप्नदोषादि व्याधियां केवल पेट के भारी होने से ही होती हैं । 

जिस दिन भोजन भली भांति नहीं पचता, उसी दिन विकार हो जाता है या मानसिक भावनाओं की अशुद्धता से निद्रा ठीक न आकर स्वप्नावस्था में वीर्यपात हो जाता है । रात्रि के समय साढ़े दस बजे तक पठन-पाठन करे, पुनः सो जावे । सदैव खुली हवा में सोना चाहिये । बहुत मुलायम और चिकने बिस्तर पर न सोवे । जहाँ तक हो सके, लकड़ी के तख्त पर कम्बल या गाढ़े कपड़े की चद्दर बिछाकर सोवे । अधिक पाठ न करना हो तो 9 या 10 बजे सो जावे । प्रातःकाल 3 या 4 बजे उठकर कुल्ला करके शीतल जलपान करे और शौच से निवृत हो पठन-पाठन करें । सूर्योदय के निकट फिर नित्य की भांति व्यायाम या भ्रमण करें । सब व्यायामों में दण्ड-बैठक सर्वोत्तम है । जहाँ जी चाहा, व्यायाम कर लिया । यदि हो सके तो प्रोफेसर राममूर्ति की विधि से दण्ड-बैठक करें । प्रोफेसर साहब की विधि विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है । थोड़े समय में ही पर्याप्त परिश्रम हो जाता है । दण्ड-बैठक के अलावा शीर्षासन और पद्‍मासन का भी अभ्यास करना चाहिए और अपने कमरे में वीरों और महात्माओं के चित्र रखने चाहियें ।

क्रमशः
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