मशाल खान टक्कर के साक्षात्कार का दूसरा भाग - पख्तूनों को पाकिस्तानी भेडियों के मुंह में फेंका 47 में कांग्रेस ने !


हम पख्तून स्वतंत्रता सेनानी पाकिस्तान में अपने बलूच भाइयों के संघर्ष का पूरा समर्थन करते हैं, जो पाकिस्तान के कब्जे से अपने देश बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के लिए जूझ रहे हैं ।

प्रश्न: पाकिस्तान के बलूच और पश्तून मुद्दों में क्या समानता है?

उत्तर: हजारों वर्षों से पख्तून और बलूच अपनी अपनी भूमि पर भाइयों की तरह रह रहे हैं, उन्होंने समय के थपेड़े साथ सहे हैं और हर उतार चढ़ाव में साथ साथ रहे हैं ।

हाल के अतीत पर ध्यान दें तो, 1747 में जब अफगान जनजातियों के सभी नेताओं ने कंधार में सभी समूहों की परिषद “जिरगा” आयोजित की तथा एक नए राज्य अफगानिस्तान की नींव रखी, उस समय न केवल अफगान आदिवासी नेता बल्कि एक अन्य जनजाति नेता को भी आमंत्रित किया गया था, उसका नाम था नसीर खान नूरी जो बलूच जनजाति का प्रमुख था। यही कारण है कि जब अफगान जनजातियों के लोग स्वयं को अफगानिस्तान का संस्थापक सदस्य मानते हैं, इसी तरह, हमारे बलूच भाई भी बैसा ही दावा करते हुए अफगानिस्तान को अपना मानते हैं ।

इन्ही नसीर खान नूरी की भतीजी का विवाह अहमद शाह दुर्रानी से हुआ था । कलात के खान अहमद यार खान की पत्नी सैयद जमालुद्दीन अफगानी की पोती थी; अकबर बुगती और खैर बख्श मर्री की पत्नियां भी पख्तून थीं ।

इस प्रकार ऐतिहासिक संबंधों के अलावा, बलूच और पख्तून के एक दूसरे के साथ रक्त संबंध भी हैं।

अप्रैल 1948 में, पाकिस्तान ने बलूचों का नरसंहार कर बलूचिस्तान पर कब्जा किया और 12 अगस्त 1948 को पाकिस्तानी सेना ने बाबरा चरसद्दा में शांतिपूर्ण जुलूस पर बेरहमी से गोलियां बरसा कर, महिलाओं और बच्चों सहित लगभग 700 पख्तूनों को मार दिया और हजारों को घायल किया ।

इस प्रकार ऐतिहासिक और रक्त संबंधों के अलावा, हम बलूच और पख्तूनों ने अत्याचार भी साथ साथ सहे हैं, इसीलिए पाकिस्तान के कब्जे के खिलाफ हम लोग स्वाभाविक सहयोगी हैं।

प्रश्न: बलूच आंदोलन के प्रति भारत के खुले समर्थन के बाद, क्या आपको पाकिस्तान के पश्तून मुद्दों पर किसी सकारात्मक परिवर्तन की उम्मीद है?

उत्तर: बेशक क्यों नहीं? लेकिन मैं एक बात का उल्लेख करना चाहता हूँ, 1930 में खैबर पख्तूनख्वा के हम पख्तून, खुदाई खिदमतगार के झंडे तले, ब्रिटिश उपनिवेश के खिलाफ संघर्ष में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ सविनय अवज्ञा आन्दोलन में शामिल हो गए थे । उसके बाद पख्तूनों ने भयानक ब्रिटिश अत्याचार सहे थे। वीजा खानी और टक्कर गांव के नरसंहार तो अविस्मरणीय हैं।

मेरे दादा जी भी खुदाई खिदमतगार के नेता थे ! जब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया तो टक्कर के लोगों ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की। यहाँ तक कि 28 मई 1930 को टक्कर के लोगों और ब्रिटिश सेना के बीच युद्ध हुआ, जिसमें बहुत सारे लोग शहीद हुए ! ब्रिटिश सेना ने हमारे घर को भी जला दिया।

लेकिन दुर्भाग्य से 1947 में, गांधी जी, जवाहर लाल नेहरू, राज गोपालाचार्य और वल्लभभाई पटेल ने बहुत ही नकारात्मक भूमिका निभाई और पख्तूनों को पाकिस्तान के हाथों में सोंप दिया । बाचा खान ने दुःखपूर्वक उनसे कहा भी कि आपने हमें भेड़ियों के मुंह में फेंक दिया है ।

तो अब यह भारत का नैतिक दायित्व है कि वह पाकिस्तान से छुटकारा पाने और अपनी मातृभूमि अफगानिस्तान से जुड़ने में पख्तून स्वतंत्रता सेनानियों की मदद करे ।

प्रश्न: इतने वर्षों तक पश्तून लोगों के उत्पीड़न और अत्याचार के बाद पाकिस्तान के पख्तून पाकिस्तान को लेकर क्या सोचते हैं?

उत्तर: पाकिस्तान में रह रहे पख्तून कर ही क्या सकते हैं । वे शक्तिशाली पाकिस्तानी सेना, सरकार और सरकार प्रायोजित आतंकवादियों के चंगुल में फंसे हुए हैं ।

अगर कोई भी पाकिस्तान से आजादी की मांग उठाता है, वह मारा जाता है और पाकिस्तान दर्शाता है कि उसे आतंकवादियों ने मार डाला। जबकि सब जानते हैं कि ये सभी आतंकवादी, कट्टरपंथी, चरमपंथी पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित है । उनके अधिकांश केन्द्र पंजाब में हैं, लेकिन उनका सैन्य अभियान चलता है पख्तून, बलूच और सिंधी क्षेत्रों में । क्योंकि 80% सैन्य प्रतिष्ठान और सिविल सर्विसेज पर पंजाबी ही काबिज हैं ।

हम पख्तून, बलूच और सिंधी तो अपनी ही जमीन पर महज पंजाब के आधिपत्य के तहत शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं।

हम पख्तून पाकिस्तान को इतिहास का हिस्सा बनाना चाहते हैं। लेकिन कुछ पख्तून हैं जो पाकिस्तान में रहना चाहते हैं, उनके लिए एक ही सूत्र है कि जो तरीका भारत विभाजन के समय अपनाया गया था, एक बार फिर अपनाया जाए । उन भारतीय मुसलमानों की तरह जो 1947 में अपनी मातृभूमि भारत को धोखा देकर पाकिस्तान चले गए, जिन्हें आज भी शरणार्थी कहा जाता है, पाकिस्तान को प्यार करने वाले पख्तून भी पंजाब की ओर पलायन कर जाएँ, क्योंकि पंजाब ही पाकिस्तान है और पाकिस्तान ही पंजाब है। लेकिन इस तरह के पख्तून नाम मात्र को हैं । केवल वे हैं जो पंजाब बहुल सेना, नागरिक और सैन्य प्रतिष्ठान से संबंधित हैं। पख्तूनों के लिए वे भी पंजाबियों की तरह ही दुश्मन हैं।

प्रश्न: मोदी जी द्वारा अंतरराष्ट्रीय मंच पर बलूच मुद्दे को उठाने के बाद, पख्तून मुद्दे पर क्या परिवर्तन आया ?

उत्तर: हम पाकिस्तान में रहने वाले पख्तून इसकी सराहना करते हैं। लेकिन साथ ही हम भी मोदी जी से यह आग्रह भी करते हैं कि वे पाकिस्तानी पख्तूनों की समस्या को भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठायें । पख्तून और बलूच दोनों को पाकिस्तान के खिलाफ संघर्ष में एक साथ शामिल होना होगा। बलूच केवल 14 लाख हैं, जबकि केवल पाकिस्तान में पख्तूनों की संख्या 35 लाख से अधिक है । अगर पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों की संख्या जोड़ दी जाए तो कुल पख्तून आबादी 50 लाख है। इतना ही नहीं तो अफगानिस्तान के पख्तून भी पाकिस्तान के बहुत अधिक खिलाफ हैं। हम बलूच और पख्तून स्वाभाविक सहयोगी हैं। अकेले बलूचों का पाकिस्तान से छुटकारा पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

प्रश्न: पाकिस्तान के पख्तूनों की मुख्य चिंता क्या हैं; आप क्या करना चाहते हैं? कृपया इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डालें ?

उत्तर: हम पख्तून पाकिस्तान से आजादी चाहते हैं और अपनी मातृभूमि अफगानिस्तान से जुड़ना चाहते हैं ।

डूरंड रेखा से सिंधु नदी तक का क्षेत्र अफगान क्षेत्र है और इसे अफगानिस्तान को सौंपा जाना चाहिए।

मुझे लगता है कि डूरंड लाइन मिटाने के तीन विकल्प हैं, एक राजनीतिक और दूसरा कानूनी, लेकिन अगर राजनीतिक और कानूनी दोनों विकल्प बंद हो गए, तो हम उस अंतिम व्यावहारिक विकल्प को अपनाने के लिए मजबूर हो जायेंगे, जो 1971 में बंगालियों ने अपनाया था ! मेरे पास डूरंड लाइन हटाने की पूरी योजना है, लेकिन मैं अभी उसे सार्वजनिक नहीं करूंगा ।

पाकिस्तान में रहने वाले हम पख्तूनों का मानना है कि भारत को वह गलती दुरुस्त करना उचित होगा, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लोगों ने 1947 मैं की थी और जिसका उल्लेख मैं पहले ही कर चुका हूँ । भारत को हमारी मदद करना चाहिए ताकि हम पख्तून पाकिस्तान से छुटकारा पाकर अपनी मातृभूमि अफगानिस्तान से जुड़ सकें । 

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