क्या आरएसएस का मोदी जी से मोहभंग हो रहा है ?



आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी के नाम से बने फेसबुक पेज पर जो पोस्ट डाली गई, वह हैरत में डालने वाली है | यह तो सर्वज्ञात तथ्य है कि स्वयं सरसंघचालक जी तो इस पेज पर कुछ लिखते नहीं हैं, यह पेज कुछ स्वयंसेवकों द्वारा ही संचालित होता है | जो भी हो चूंकि इस पेज को पसंद करने वालों की संख्या 188,552 है, अतः इसे हलके में नहीं लिया जा सकता | विशेषकर तब जब भागवत जी के नाम से पोस्ट किये गए आलेख का शीर्षक कुछ यूं हो -
" 'मन की बात' करने में तीन साल बीत गए और 'काम की बात' करने का समय ही नहीं मिला, ऐसे कैसे देश चलेगा ? आखिर चुनाव लड़ने और देश चलाने में अंतर है !
क्या यह सीधे सीधे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी पर आक्षेप नहीं है ? उनकी स्पष्ट शब्दों में की गई निंदा है यह तो | इसका तात्पर्य क्या ? यातो किसी अतिउत्साही स्वयंसेवक ने संघ की किसी बैठक में की गई संगठनात्मक चर्चा की बातें पोस्ट में सार्वजनिक कर दी हैं अथवा संघ ने अब भाजपा से दूरी बनाना तय कर लिया है | खैर यह तो जल्द ही सामने आ जाएगा, तब तक आप भी उस पोस्ट का लुत्फ़ उठाईये -
सामाजिक व्यवस्था के लिए अपने प्रयास से समाज का विश्वास जीतना ही आज शाशन तंत्र के लिए सबसे बड़ा काम है, पर जब चुनाव जीतना ही राजनीति का परम लक्ष्य हो जाए और उसकी वैकल्पिक व्यवस्था भी हो तो राष्ट्र का सही दिशा में नेतृत्व करने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक चालों से सत्ता का स्थाईत्व सुनिश्चित करना हो जाता है, और प्रयास भी उसी दिशा में होती है; ऐसा में, राजनीतिक विचार और पक्ष के वर्चस्व के प्रभाव से संक्रमित समाज में राष्ट्र की प्राथमिकताओं का उपेक्षित और व्यवस्था का भ्रष्ट होना स्वाभाविक है। यही तो आज हो रहा है।
राष्ट्रीय स्तर पर जब समाज में व्यवस्था के प्रति अविश्वास का भाव हो तो इसकी अभिव्यक्ति से सामाजिक जीवन में घर्षण स्वाभाविक है, फिर व्यवस्था के प्रति अविश्वास का कारन, उसके अभिव्यक्ति का प्रारूप और उससे प्रभावित वर्ग एवं भौगोलिक क्षेत्र चाहे जो हो।
बात कश्मीर की करें या तमिल नाडु की, गुजरात के पाटीदारों की करें या नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों की, बेरोजगार युवाओं की करें, शोषित शिक्षकों की, आत्म हत्या करते किसानों की या अनिश्चितता से घिरे देश के व्यवसाई वर्ग की , राष्ट्र के शीर्ष नेतृत्व को चाहिए की वो अपने प्रयास से समाज का विश्वास जीते क्योंकि जब तक सब का साथ नहीं मिलेगा, सबका विकास हो ही नहीं सकता।
ऐसी परिस्थितियों में आवश्यक है की शाशन तंत्र अपने सार्थक प्रयास और समाज के साथ परस्पर संवाद स्थापित कर समाज में व्यवस्था के प्रति विश्वास के लिए कारन को अर्जित करे और इसके लिए पहल शीर्ष नेतृत्व को ही करनी होगी।
पर जब नेतृत्व की प्राथमिकताएं भ्रमित, प्रयास की दिशा गलत और व्यक्तित्व ही संशय का विषय हो तो ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व वाली व्यवस्था पर समाज को विश्वास कर पाना कठिन होगा; जब आवश्यकता समाज के साथ सार्थक संवाद स्थापित करने की हो तब राष्ट्र का शीर्ष नेतृत्व 'मन की बात' करने में व्यस्त रहे तो इसे आप क्या कहेंगे, देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या ?
जितना समर्पित प्रयास सरकारें और नेता चुनावी प्रचार में करते हैं और जितना समय और शब्द चुनावी भाषणों में खर्च करते हैं उसका एक हिस्सा भी यदि शाशन तंत्र द्वारा समाज से सार्थक संवाद स्थापित करने के लिए हुआ होता तो आज देश इतना अस्त व्यस्त न होता; अब इसे नेतृत्व की त्रुटि नहीं तो और क्या कहें जो आज व्यवस्था तंत्र की प्राथमिकताएं ही जैसे भ्रमित हैं।
किसी भी राष्ट्र के उत्थान या पतन में उसके नेतृत्व की भूमिका महत्व्पूर्ण होती है और ऐसा इसलिए क्योंकि उसके कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व के प्रभाव क्षेत्र में पूरा राष्ट्र आता है , इसलिए, कोई भी राष्ट्र अपने लिए कैसे नेतृत्व को चुनता है यह उसके भाग्योदय का कारन या दुर्भाग्य की शुरुआत सुनिश्चित करता है, फिर कालखण्ड चाहे जो हो !
सामाजिक जीवन में आज समस्याएं कई हैं पर जब तक हम समस्याओं को सरल नहीं बनाएंगे तब तक हम उनके समाधान को प्राप्त नहीं कर सकेंगे; जब किसी भी राष्ट्र के शीर्ष नेतृत्व के लिए राष्ट्र का सही दिशा में नेतृत्व करने से अधिक राजनीति महत्वपूर्ण हो जाए तो समस्या का मूल सार्वजनिक रूप से स्पष्ट हो जाता है जिसका समाधान तभी संभव है जब उक्त समाज के लिए राष्ट्र का महत्व राजनीति से अधिक हो ;
आज भारत और भारतियों के लिए महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए, प्रधानमंत्री कौन हो या प्रधानमंत्री कैसा हो, आप ही बताएं !"


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