फर्जी इतिहासकार रामचंद्र गुहा, भारत को देशप्रेम सिखाओ मत, हो सके तो भारत से सीखो - उपानंद ब्रह्मचारी





जन्मजात बामपंथी - धर्मनिरपेक्ष उन्मादी इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने 1 9वीं सदी के उस यूरोपीय और मध्ययुगीन मध्य-पूर्वी (इस्लामी) विचारधारा के आधार पर राष्ट्रवाद की हिन्दू अवधारणा की मूर्खतापूर्ण व्याख्या की, जो स्वयं को श्रेष्ठ मानती है और शेष सभी को दोयम दर्जे का मानकर उन्हें नष्ट करने योग्य समझती है ।

बेंगलोर लिट्रेचर फेस्टीवल में “जिंगोइज्म वर्सेस पेट्रीओटिज्म” (अंधराष्ट्रवाद विरुद्ध राष्ट्रभक्ति) विषय पर बोलते हुए गुहा ने शुरूआत में ही विलक्षण तर्क रखा - "हिंदुत्व में कुछ भी स्वदेशी नहीं है ।" और उसके तुरंत बाद वे अपने काल्पनिक प्रिय विषय पर आ गए, अर्थात भारत में असहमति पर रोक |

गुहा ने कहा कि "हिंदुत्व की उत्पत्ति, आंशिक रूप से बैसी ही है, जैसी कि 1 9वीं सदी में यूरोपीय राष्ट्रवाद था । इसके मूल में भी वही वृत्ति है, जो मध्ययुगीन मध्य पूर्व की थी, जहां ईसाई और यहूदियों को मुस्लिम बहुमत वाले राज्यों में दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता था । मोदी राज में ऐसा ही हिंदुत्व जोर पकड़ रहा है |

बीएलएफ के इस कार्यक्रम में गुहा ने जो कुछ कहा, वह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यह तथाकथित इतिहासकार, भारत और उसके वास्तविक इतिहास और संस्कृति के बारे में कितना कम जानता है | इस मक्कार और फर्जी इतिहासकार की धर्मनिरपेक्ष कर्कश ध्वनि उस कुत्ते की याद दिलाती है, जिससे बेपरवाह हाथी बाजार में जा रहा होता है ।

विदेशी स्कूलों के प्रवासी हमेशा से यह साबित करने की कोशिश करते रहे हैं कि हिंदू धर्म का मूल भारत में नहीं है, कहीं विदेश में है । लेकिन कहाँ, इसका कोई जबाब उनके पास नहीं है | उनका हेतु केवल यह सिद्ध करना है कि जिस प्रकार ईसाई धर्म, इस्लाम या साम्यवाद विदेशी विचारधाराएँ हैं, उसी प्रकार हिंदुत्व भी मूलतः भारत का नहीं है | गोया कि भारत तो केवल एक सराय है, जहाँ हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या साम्यवादी आकर बसे हुए हैं | 

इसके पहले भी मार्च, 2016 में एक और पागल कॉमरेड, इरफान हबीब ने यह साबित करने की कोशिश की थी, कि भारत माता भी एक विदेशी विचार है और यह रोमन ब्रिटानिया की अवधारणा से उत्पन्न हुआ है ।

उस समय भी मैंने अपने लेख में कामरेड हबीब को सटीक जबाब दिया था कि इरफान हबीब यह समझ लो कि भारत माता रोमन ब्रिटानिया की कोई छाया नहीं है, वह भारत में हम सबकी माता है | साथ ही मैंने माता, मातृभूमि, भारत में राष्ट्रवाद और भारत माता की पहचान को विस्तार से व्याख्यायित किया था । यह सिद्ध किया था कि हिंदुत्व किसी विदेशी पेड़ का फल नहीं है ।

अब एक बार फिर रामचंद्र गुहा ने वही दावा किया है कि हिंदुत्व-राष्ट्रवाद विदेशी आदर्शों पर आधारित है |

सच कहा जाए तो हिंदू राष्ट्र और राम राज्य एक दूसरे के पर्याय है | अयोध्या के राजा राम, जिन्होंने धर्म के आधार पर अपने राज्य का संचालन किया, और जिनके राज्य में प्रजाजन पूर्ण संतुष्ट और समृद्ध थे ।

लंका के राक्षस राजा रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद जब लक्ष्मण ने लंका में रहकर वहीं से भारत पर शासन करने की इच्छा जताई, तब भगवान राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को संबोधित करते हुए जोर देकर कहा था - "अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। लक्ष्मण, यह स्वर्ण की लंका मुझे रुचिकर नहीं लगती, मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। 

हमें यहां से देशभक्ति और राष्ट्रवाद का सारतत्व मिलता है। स्मरणीय है कि 1 9वीं शताब्दी में राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा से बहुत पहले रामायण का यह महत्वपूर्ण श्लोक लिखा गया था | कोई उस मूर्खाधिराज गुहा से पूछे कि यह राष्ट्रवाद नहीं तो क्या था, जिसे श्री राम अभिव्यक्त कर रहे थे ?

भारत में वैदिक काल से राष्ट्रवाद और देशभक्ति की अवधारणा थी | निश्चित रूप से उस समय तक राष्ट्रवाद और देशभक्ति की यूरोपीय अवधारणा तो दूर की बात है, अधिकाँश देशों का जन्म भी नहीं हुआ था ।

अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया (माता भूमिः पुत्रोहम पृथ्वीव्याः आदि, 12.1.1 से 12.1.63 तक छंद देखें) स्पष्ट रूप से यह माता-पुत्र के नैसर्गिक संबंधों के अनूठे तरीके से, धरती और उस पर निवास करने वालों के मध्य देशभक्ति, राष्ट्रवाद और परोपकार के सिद्धांतों को आसानी से समझाता है ।

यह धरती, समुद्र, नदियों और जल स्रोतों से परिपूर्ण हो, कृषि से उत्कृष्ट अनाज, पौष्टिक वनस्पति और प्रचुर मात्रा में सम्पदा प्राप्त हो, जो हमें पर्याप्त पोषण प्रदान करें!

यह मातृस्वरूपा पृथ्वी, हमारा, अर्थात अपने पुत्रों का, जन्म से लेकर मृत्यु तक लालन पालन और संरक्षण करे और परजन्य (वर्षाकालीन बादल) के रूप में, पिता के समान हमारी परवरिश करे।

यह धरती सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर रहकर, मानव मात्र को दुष्प्रवृत्तियों की आक्रामकता, दैन्य और दुर्बलता के उन्मूलन को प्रेरित करे।

यह पृथ्वी हमें एक दूसरे के साथ सौहार्द्र से बोलने की क्षमता दे, ताकि हमारी भाषा से पारस्परिक सामंजस्य रहे ।

यह पृथ्वी जो सौभाग्य और सौन्दर्य से सभी पुरुषों और महिलाओं को आकर्षित करती है, घोड़े और हिरणों को चपलता तथा हाथियों को शक्ति देती है, हमें भी अपनी आभा से आलोकित करे, ताकि कोई भी हमारे प्रतिकूल न हो!

प्रथ्वी पर हमारे दैनंदिन जीवन में, चाहे हम बैठे हों, खड़े हो या गति में हो, हमारी गतिविधि ऐसी हो जिससे कभी भी किसी को चोट या दुःख न पहुंचे !

जो सत्य के अन्वेषण करने वालों, सहिष्णु, समझ रखने वालों, शक्ति पुष्टि देने वाली सभी वस्तुओं को आश्रय देती है, तथा जो रचनात्मक भावना का स्रोत है, हे धरती मां हम भी आप पर निर्भर हैं !

हे धरती, गांवों, जंगलों, विधानसभाओं, समितियों और पृथ्वी पर अन्य जगहों में, हम जो कुछ भी अभिव्यक्त करें, उसका आपके साथ तादात्म्य हो ।

ओ प्रथ्वी, तुम्हारे जंगल तुम्हारी पहाड़ियों और हिमाच्छादित पर्वत हमारे लिये शुभ हो। निराधार, अनावश्यक और निरुद्देश्य मैंने धरती पर पैर रखे, धरती जो भूरे, काले, लाल और हरे रंग की ही, दृढ़ पृथ्वी जिसकी इंद्र हर खतरे से रक्षा करता है। ओ प्रथ्वी, तुम्हारे नाभि केंद्र और आपके शरीर से उत्सर्जित सभी शक्तियों के मध्य हम स्थित होकर श्वांस लें, क्योंकि हम प्रथ्वी पुत्र हैं, पृथ्वी मेरी माँ है, पर्जन्य मेरे स्वामी हैं, ये हमें वृद्धिगत करें [राल्फ टी एच ग्रिफ़िथ द्वारा लिखित "अथर्व वेद के भजन" से लिए गए अंश।, [18 9 5], sacred-texts.com]

दरअसल, भारत की प्रकृति और प्रवृत्ति सार्वजनिक जीवन में विविधता में एकता की है । जनमानस की यह उदात्त भावना, यह जिम्मेदारी का अहसास ही वस्तुतः उस राष्ट्रवाद का बीज था, जिसे बाद में विदेशियों द्वारा भारत कहा गया। भारत में राष्ट्रवाद का विचार कहीं बाहर से आया, यह कहना मूर्खता पूर्ण है । भारतीय सदैव से किसी और की तुलना में अधिक राष्ट्रवादी और देशभक्त रहे । प्रोफेसर गुहा को कोई अधिकार नहीं कि वह उधारी के यूरोपीय चश्मे से भारत के राष्ट्रवाद की व्याख्या करे और न ही उन्हें भारतीयों को राष्ट्रीयता सिखाने की कोई जरूरत है | अगर जरूरत है तो स्वयं गुहा को भारतीय वांग्मय से राष्ट्रवाद और देशभक्ति सीखने की ।

प्रोफेसर गुहा को हिन्दू-पद-पादशाही का इतिहास नहीं भूलना चाहिए, जो कि भारत में आधुनिक हिंदुत्व का मूल आधार है। मराठा नायक महाराज शिवाजी (1627-1680) जिन्होंने 1674 में अपने गुरु समर्थ स्वामी रामदास के मार्गदर्शन में मराठवाडा में हिंदू संप्रभुता स्थापित की। समझना मुश्किल है कि कौन सा यूरोपीय मुल्क समर्थ रामदास या छत्रपति शिवाजी महाराज को राष्ट्रवाद या हिंदुत्व समझाने आया था ।


समर्थ स्वामी रामदास (1606-1681) ने 1618 में अपना घर छोड़ दिया और 12 साल तक सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया, तत्पश्चात हिन्दू समाज को चैतन्य करने के लिए 1100 अखाड़े और मठ स्थापित किये । इस दौरान उनकी भेंट श्रीनगर में छठे सिख गुरु हरगोबिंद साहब से भी हुई, जिनके वीरता पूर्ण योद्धा वेश से वे प्रभावित हुए । बाद में उन्होंने हिंदु धर्म के पुनरुत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया और छत्रपति शिवाजी द्वारा उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट्रवाद के उद्भव होने से पहले ही हिन्दू पद पादशाही का निर्माण किया। इस प्रकार, 'एक यूरोपीय अवधारणा के रूप में हिंदु-राष्ट्रवाद' का रामचंद्र गुहा का दावा न केवल फर्जी है बल्कि दुर्भावनापूर्ण भी है।

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद मूलतः स्वदेशी अवधारणाएं हैं और यह भारतीय संस्कृति और परंपरा के साथ गहराई से जुडी हुई है। भारत में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद कभी भी यूरोपीय विचारों का प्रतिफल नहीं हैं।


बाद में, हिंदुत्व की अवधारणा को तिलक, विवेकानंद, अरबिंदो, सावरकर, हेडगेवार आदि द्वारा प्रचारित किया गया ।
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