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इतिहास के झरोखे से - शिवाजी के वंशज

क्षत्रपति शिवाजी के देहांत के उपरांत संभाजी का कार्यकाल प्रारम्भ हुआ ! 1683 में उन्होंने पुर्तगालियों को पराजित किया। उनके साले गनोजी शिर्के मनसबदारी चाहते थे, किन्तु शम्भाजी ने उन्हें साफ़ मना कर दिया | इससे नाराज होकर शिर्के मुग़ल सरदार मकर्रम खान के साथ जा मिले और जल्द ही उन्हें मौक़ा भी मिल गया | एक समय जब शम्भाजी किसी राजकीय कारण से संगमनेर (संगमेश्वर) में रुके तब कुछ ग्रामवासियों ने अपनी समस्या उन्हें निवेदन की । जिसके चलते छत्रपति संभाजी महाराज ने अपने साथ केवल 200 सैनिक रख के बाकि सेना को रायगढ भेज दिया । उसी वक्त गनोजी शिर्के, मुग़ल सरदार मकर्रम खान के साथ गुप्त रस्ते से 5000 की फ़ौज के साथ वहां जा पहुंचे। यह वह रास्ता था जो सिर्फ मराठाओं को पता था। इसलिए संभाजी महाराज को कभी नहीं लगा था के शत्रु इस ओर से आ सकेगा। उन्होंने लड़ने का प्रयास किया किन्तु इतनी बड़ी फ़ौज के सामने 200 सैनिकों का प्रतिकार क्या काम करता और 1 फरबरी, 1689 को वे अपने मित्र तथा एकमात्र सलाहकार कविकलश के साथ बंदी बना लिए गए ।
दोनों को मुसलमान बनाने के लिए औरंगजेब ने कई कोशिशे की। किन्तु धर्मवीर छत्रपति संभाजी महाराज और कवी कलशने धर्म परिवर्तन से इनकार कर दिया। औरंगजेब ने दोनों की जुबान कटवा दी, आँखें निकाल दी किन्तु शेर छत्रपति शिवाजी महाराज के इस सुपुत्र ने अंत तक धर्म का साथ नहीं छोड़ा। 11 मार्च, 1689 हिन्दू नववर्ष के दिन औरंगजेब के आदेश पर दोनों के शरीर टुकडे टुकडे कर कर दिए गए ।
किन्तु कहा जाता है कि हत्या के पूर्व औरंगजेब ने छत्रपति संभाजी महाराज से कहा के मेरे 4 पुत्रों में से एक भी तुम्हारे जैसा होता तो सारा हिन्दुस्थान कब का मुग़ल सल्तनत में समाया होता। जब छत्रपति संभाजी महाराज के शरीर के टुकडे तुलापुर की नदी में फेंकें गए तो उस किनारे रहने वाले लोगों ने वो इकठ्ठा कर के सिल दिए (तब से इन लोगों को " शिवले " इस नाम से जाना जाता है) जिस के उपरांत उनका विधिपूर्वक अंत्यसंस्कार किया।
औरंगजेब ने सोचा था कि मराठी साम्राज्य छत्रपति संभाजी महाराज के मृत्यु पश्चात ख़त्म हो जाएगा। किन्तु छत्रपति संभाजी महाराज की जघन्य हत्या ने सम्पूर्ण मराठा अस्मिता को जागृत कर दिया और सब एकजुट होकर मुग़ल सल्तनत के खिलाफ लड़ने लगे। अत: औरंगजेब को दक्खन में ही प्राणत्याग करना पड़ा। उसका दक्खन जीतने का सपना इसी भूमि में दफन हो गया।
उधर रायगढ़ में जुल्फिकार खान ने येसूबाई तथा शम्भाजी के बड़े पुत्र शाहूजी को कैद कर लिया ! राज्य का दायित्व संभाल रहे छोटे बेटे राजाराम को भी सुदूर दक्षिण में जिन्जी में आश्रय लेना पड़ा ! इसके बाद शुरू हुआ शिवाजी के वंश पर ग्रहण माना जाने बाला सत्ता संघर्ष !
क्षत्रपति शम्भाजी के बड़े पुत्र के नाते साहू राज्य के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थेकिन्तु लगातार बीस वर्षों तक कारावास में रहने के दौरान क्षत्रपति राजाराम तथा उनके बाद उनके पुत्र शिवाजी द्वितीय के नाम से कर्तव्य शालिनी ताराबाई ने राज्य का संरक्षण किया ! कारावास से मुक्त होने के बाद जनवरी १७०८ में साहू जी का राज्याभिषेक क्षत्रपति के रूप में हुआ !
जहां शम्भाजी सूर्य के समान प्रखर तेजस्वी थेकिन्तु उनके विपरीत उनके पुत्र साहू जीचन्द्रमा के समान शीतल तथा पर प्रकाशी थे ! उन्होंने युद्ध क्षेत्र तथा राजनैतिक वार्ताओं का सम्पूर्ण अधिकार पेशवा बालाजी विश्वनाथ को प्रदान कर दिया था ! लगातार बीस वर्षों तक एकनिष्ठ भाव से इस दायित्व का निर्वाह करने बाले बालाजी को साहू जी का सेवक भले ही कहा जाता हो किन्तु वस्तुतः वे उनके अभिभावक की भूमिका में रहे ! साहू जी के कारावास से मुक्ति तथा ताराबाई के पक्ष से प्रभावशाली सरदारों को साहू जी के पक्ष में करने आदि सभी कार्य उन्होंने अत्यंत कुशलता तथा चतुराई से संपन्न किये ! कई सरदारों को निठल्ले क्षत्रपति तथा उसके ब्राह्मण पेशवा की यह जुगलबंदी पसंद नही थी किन्तु दिल्ली की मुग़ल सल्तनत से मान्यता प्राप्त साहू जी की धाक बढ़ती ही गई !
बालाजी विश्वनाथ के बाद उनके युवा पुत्र बाजीराव को साहू जी ने पेशवा नियुक्त कियाजिन्होंने असामान्य युद्ध कौशल तथा अपूर्व लोक संग्रह के बल पर सर्व शक्तिमान निजाम हैदरावाद जैसे शत्रु का भी मान मर्दन किया ! बाजीराव की कुशलता के परिणाम स्वरुप मराठा राज्य की सीमा यमुना तट तक पहुँच गई ! २८ अप्रेल १७४७ को सवेर खेड में बाजीराव पेशवा का देहांत हुआ ! उनके बाद उनके बेटे नाना साहब पेशवा बने जिन्होंने अपने चचेरे भाई सदाशिव राव भाऊ के सहायता से पेशवाई कार्य का सुचारू संचालन किया !
१५ दिसंबर १७४९ को क्षत्रपति साहूजी की मृत्यु हुई ! उनके साथ उनकी पत्नी सकबार बाई भी सती हो गई !