मायावनी रस लालसा


मेरे मन ! अपने आप से पूछो कि तुम्हारे प्रत्येक कर्म की प्रेरणा कौन सी है ? क्या प्रभुसेवा की लालसा से कर्म प्रवृत्त होते हो ? तुम्हारा मौन रहना ही बताता है कि, भोग वासना, इन्द्रिय सुख का लोभ, अभी भी तुम्हे कर्म में प्रवृत्त कर रहा है, और उनकी तृप्ति के लिए ही तुम कर्म के कष्ट उठाते रहे हो | उन कर्मों का फल अनुकूल होने पर - तुम सुख मानते हो, और प्रतिकूल फल मिलने से दुखी होते हो | जब तक कर्मफल की आशा से कर्म होंगे - तुम कर्मों की अनंत चक्रीय गति में भटकने के लिए बंधे हो मन | तुम्हारी स्थिति कोल्हू के बैल के समान है | तुम्हे सामने टंगी आशा की गाजर प्राप्ति की अपनी चाह समेटनी होगी | तब और तब ही खोटी कर्म प्रेरणा से छुटकारा मिलेगा | उससे छुटकारा पाने के पश्चात ही स्वतंत्र, स्वैच्छिक, प्रभु सेवार्थ कर्म करना संभव है | मेरे मन तू स्वयं को आशा पाश से -वासना से व्यापित न होने दे | जब वासना जाती रहेगी - तुम स्वतः ही निर्मलता का अनुभव करोगे | प्रयत्न करो - प्रभु से प्रार्थना करो - वह तुम्हे, तुम्हारे मन से वासना को निर्वासित कर - अपने आवास में प्रवेश दे | तुम्हे स्वीकार करे |

मेरे मन ! वासना के रूप अनेक हैं | कभी वह - रसना की रस - स्वाद का रूप लेकर लुभाती है | खट्टा - मीठा - चटपटा - व्यंजनों का स्वाद - उन स्वादों से भरे पकवानों तथा फलों को खाने चखने की, चटखारे मारने के जीभ की इच्छा, भगवत चिंतन से चित्त को भटका देती है | कभी इन खाए पदार्थों की स्मृति मात्र से ही - लार टपकने लगती है | और भगवत चिंतन भूल जाता है - और साधू स्वादु बनकर रह जाता है | अतएव रसना की रस लालसा और स्वादु पदार्थ पाने की वासना का एक रूप हुआ | तुम उसे वश में करने का प्रयत्न करते हो, तो वह दूसरा ही रूप लेकर, तुम्हे भटकाती है | उसके सभी रूपों को अलग अलग करके देखने की अपेक्षा - उसे समग्र रूप में देखो समझो और - उस मायावनी से बचाने के लिए - उस प्रभु से - अनन्य मन हो प्रार्थना करो |

मेरे मन ! तू वासना की विचित्र लीला के फेर में सदा ही फंसा रहता है | वह तुझे इस भांति भरमाती रहती है कि तू जान ही नहीं पाता कि वासना का विष तेरी रग रग में समाया है | उलटे होता यह है कि जब वह विष उतरने लगता है, तो तू अवसाद में फंसकर पुनः पुनः उस विषपान हेतु ही तड़पता है | सभी प्रकार से जब तू वासना के आधीन रहता है, तब प्रभुस्मरण का भी स्मरण तुझे नहीं रहता | कभी कभी तो हाथ में सुमरनी घूमती रहती है, जीभ प्रभु नाम रटती रहती है और तू इस वाह्य आडम्वर के साथ दंभ का शिकार हो - भीतर ही भीतर - विषय विष के रसास्वाद में भटकता, अटकता रहता है | यह सच है कि नहीं ? यह बात तो तुम तटस्थ और स्थिर होकर अपनी क्रियाओं को - देखो - परखो - तब तुम्हे अनुभूति होगी कि - तुम्हे अभी वहुत कुछ सीखना - करना और व्यवहार में लाना है | मेरे मन भक्ति - ढोंग नहीं - सत्य व्यवहार है | उसे अपनाओ मेरे मन !

मेरे मन ! भक्ति को आचरण में लाना हो, तो दंभ को छोड़ना होगा | मन ! तू अंतर में वासना को वसाकर यदि - जप माला - छापा - तिलक - सजाकर रूप भले ही धर ले - परन्तु एक भी - काम का यदि परित्याग नहीं किया - सभी काम कामनाएं - वासना बन तेरे - अंतर में वसी रही - और तू भंवरे सा उनके आस पास ही मंडराता रहा - तो - तेरा - यह वाह्य रूप भले ही जगत के भोले श्रद्धालुओं को ठगने में सफल रहे - पर - प्रभु तेरी वगला भगति को भलीभांति जानते हैं | तू ही ठगा जाएगा - और दुखी होगा मेरे मन | अतएव कच्चा न पड़ - वृथा ना नाच | राम तो सांचे राचे हैं | वे सत्य रूप हैं - और सत्य व्यवहार और सत्य भाव से ही रीझते हैं | उन्हें रिझाना है न मेरे मन ? फिर सभी दंभ पाखण्ड छोड़ - और सत्य निष्ठ बन | प्रभु स्वयं सत्य से बंधे हैं |

मेरे मन ! सत्य नारायण है | वही उपास्य है | उसकी उपासना तू कर्म और वचन की एकरूपता से कर और इस उपासना के करते समय - ध्यान रख, कि सत्य की उपासना का घमंड तुझे उद्दंड - तथा अहंकारी न बना दे | सामान्यतः "मैं" सत्योपासक हूँ - मैं सत्य वचनी हूँ - मैं सत्य का आचरण करता हूँ - इन बातों का - विचारों का अहंकार - उद्दंड बना देता है - तथा तुम्हारे संपर्क में आने बाले प्रभु के अंतर रूपों का - अपमान, अवहेलना तथा उपहास तथा उपेक्षा कर, तू स्वयं ओछा बनता है - तथा उन्हें आहत कर - प्रभु की कृपा से वंचित हो जाता है | दुखी ह्रदय की आह - से बढ़कर दाहक कुछ भी नहीं है | अतएव - अन्यों के मन को दुखी करने से बच | दीन की दुआ तुझे सन्मार्ग पर - सत्य पालन का वल देगी | तू सत्य का प्रयोग सभी जीवों में - प्रकट प्रभु की सेवार्थ कर | मेरे मन - तभी तू - निर्भय और निर्मल होकर - निरीच्छ बनेगा |


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