उपनिषदों का महत्व


मनुष्य सांसारिक दुःखों से संतृप्त होकर सृष्टि के आदिकाल से परमशान्ति तथा शाश्वत सुख की खोज करता रहा है । सांसारिक भोगों के सुख क्षणिक तथा नश्वर होते हैं । उनमें शाश्वत-सुखों की आशा करना मरु-मरीचिकाओं में जल समझने के समान ही है । सांसारिक भोगों को भोगते-भोगते मानव समस्त जीवन बिता देता है, किन्तु परम सुख प्राप्त नहीं होता । 

महाराज भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है कि -

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः ।। (भर्तृहरि॰ )

अर्थात् भोग भोगे नहीं जा सकते । हमें ही भोग खा जाते हैं, अर्थात् जीवन समाप्त हो जाता है परन्तु भोग-कामनाओं की तृप्ति नहीं होती । 

मनु जी के शब्दों में भोगों को भोगने से -

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। (मनु॰ ) 

कभी भी वासनाओं की शान्ति नहीं होती । प्रत्युत कामनाओं की वैसी ही वृद्धि होती है । जैसे घृतादि से अग्नि प्रचण्ड हो जाती है । धन-धान्यादि से सम्पन्न देश इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि उन देशों में भौतिक सुखों की न्यूनता न होते हुए भी सुख व शान्ति कहाँ ?

उपनिषत्कार ने ठीक ही कहा है कि -

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः । (कठोप॰२.२७ )

अर्थात् मनुष्य सांसारिक धनों या पदाथो से कभी तृप्त नहीं हो सकता । समस्त वैदिक दर्शनों का भी यही लक्ष्य रहा है कि शाश्वत-सुख (मोक्ष) कैसे उपलब्ध हो सके । संसार की प्राचीनतम पुस्तक र्इश्वरीय ज्ञान वेदों में मोक्ष-प्राप्ति या परम सुख का उपाय शुद्धान्तः करण करके धर्मानुष्ठान करते हुए परब्रह्म का जानना ही है । वेद में कहा है -

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेsयनाय (यजु॰३१.१८ )
यस्य छायाsमृतं यस्य मृत्युः (यजु॰२५.१३ )

अर्थात् परब्रह्म को जानकर ही मृत्यु दुःखों से पार होकर मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है । इससे भिन्न और कोर्इ उपाय नहीं है, क्योंकि उस परमब्रह्म का आश्रय (शरण) अमृत= मोक्ष सुखप्रद है और जिसकी अकृपा या उपासना न करना ही मृत्यु दुःखों का कारण है । उस परब्रह्म को जानने व प्राप्त करने के लिए ऋषि-मुनियों ने जीवन भर तपस्यारत होके जो ज्ञान (ब्रह्म-ज्ञान ) प्राप्त किया है । उसी का संग्रह उपनिषद ग्रन्थों में है, इसलिए इन्हें ब्रह्मज्ञान की उत्कृष्टतम पुस्तकें भी माना जाता है । ‘उपनिषद्’ शब्द का यौगिकार्थ भी इसी बात की पुष्टि करता है। इस शब्द में ‘उप’ तथा ‘नि’ दो उपसर्ग तथा ‘षद्लृ’ धातु है । जिसका अर्थ यह है -

’उप सामीप्येन नितरां सीदन्ति प्राप्नुवन्ति परं ब्रह्म यया विद्यया सा उपनिषद् ।’

अर्थात् उपनिषद् वह विद्या है । जिसके द्वारा परब्रह्म का ज्ञान होने से परब्रह्म के सामीप्य को प्राप्त किया जा सके और उपनिषत=परब्रह्म-ज्ञान का प्रतिपादन करने से ‘र्इशादि’ ग्रन्थों का नाम भी उपनिषद् प्रसिद्ध हुआ । श्री शंकराचार्य जी ने उपनिषत् की व्याख्या करते हुए लिखा है
‘सेयं ब्रह्मविद्या उपनिषद् वाच्या संसारस्यात्यन्तावसादनात् उपपूर्वस्य सदेस्तदर्थत्वात् ग्रन्थोsप्युपनिषद् उच्यते । (बृहदान भूमिका) अर्थात् यह उपनिषद् नामक ब्रह्मविद्या संसार के अत्यन्त अवसादन =उच्छेद करने के लिए है । उपपूर्वक सद् धातु का ऐसा अर्थ होने से । किन्तु यह सत्य नहीं है । उपनिषत् से दुखोच्छेद होता है । संसारोच्छेद नहीं । यह विद्या अत्यन्त गूढ़ होने से ‘रहस्य’ नाम से भी जानी जाती है ।

व्याकरण महाभाष्य में महर्षि पतन्जलि ने उपनिषत् को ‘रहस्य’ नाम देकर लिखा है -

चत्वारो वेदाः सागः सरहस्या बहुधा भिन्नाः ।

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