हद्द है - अब न्यायपालिका के खिलाफ भी जिहाद ? - उपानंद ब्रह्मचारी

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शरीयत का प्रचार करने वाली मुस्लिम मौलवियों की सबसे शक्तिशाली संस्था जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने जो कुछ कहा वह सीधे भारत की संप्रभुता को चुनौती...



शरीयत का प्रचार करने वाली मुस्लिम मौलवियों की सबसे शक्तिशाली संस्था जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने जो कुछ कहा वह सीधे भारत की संप्रभुता को चुनौती है | हैरत की बात यह है कि यह किसी मुल्ला या मौलवी का पिन्नक में दिया गया बयान नहीं है, यह सीधे सर्वोच्च न्यायालय में एक आवेदन प्रस्तुत कर कहा गया है |

आईये चर्चा करते हैं कि आखिर है क्या इस आवेदन में | जमीयत उलेमा हिन्द की ओर से वकील एजाज मकबूल ने इस आवेदन में फरमाया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ पवित्र कुरान से उत्पन्न है और संविधान के सिद्धांतों के आधार पर उस पर सुप्रीम कोर्ट विचार नहीं कर सकता। मनुष्य द्वारा गठित सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति नहीं है कि वह अल्लाह द्वारा बनाए गए नियमों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करे ।

मोहम्मडन कानून अनिवार्य रूप से पवित्र कुरान पर आधारित है और उसे 'कानूनों' के दायरे में नहीं बांधा जा सकता | संविधान के अनुच्छेद 13 में वर्णित अभिव्यक्ति के क़ानून उस पर लागू नहीं होते | साथ ही उस पर समानता के मौलिक अधिकार की गारंटी देने वाला संविधान का भाग III भी लागू नहीं हो सकता | न तो उसकी वैधता की जांच हो सकती न उसे चुनौती दी जा सकती | 

जरा विचार कीजिए कि आखिर ये चल क्या रहा है ? क्या आपको नहीं लगता कि जमीयत शरीयत के नशे में भारतीय न्यायतंत्र को पंगु बनाने का षडयंत्र रच रही है ? यह और कुछ नहीं तालिबान और इस्लामिक स्टेट (आईएस) ने सोची समझी रणनीति के तहत दीनिया या खुरासान के समान इस्लामी डिजाईन भारत में लागू करने के अपने मंसूबे बहुत ही सार्थक तरीके से जमीयत के माध्यम से जाहिर किये हैं ।

इरादा साफ है | मुस्लिम महिलाओं की समानता और उन पर हो रहे अमानवीय अत्याचार को लेकर समाज में बहस चालू हुई है, उस बहस की दिशा परिवर्तित करना भी इस बयान के मूल में है | अब तथाकथित सेक्यूलर बहस करेंगे मुस्लिम पर्सनल लॉ के धार्मिक आधारों को लेकर और बेचारी मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का विषय पीछे छूट जाएगा | अब राष्ट्रभक्त समाज की जिम्मेदारी बनती है कि वह संविधान की मूल भावना की रक्षा के लिए कमर कसे | शनि सिंगानापुर में महिलाओं के दर्शन को उनका मौलिक अधिकार बताने वाले, अब बगलें झांकते हुए मुस्लिम महिलाओं की समानता को लेकर बहस से कन्नी न काट पायें यह देखना होगा | न्यायालय तो न्याय संगत निर्णय देगा, लेकिन शरीयत, हलाल और जिहाद के खतरनाक खंजर वातावरण को विषाक्त न कर पायें, आखिर यह देखना तो समाज का ही काम है, यह हमारी भावी पीढी के सुरक्षित भविष्य का भी प्रश्न है | देश हित में यह भी आवश्यक है कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ढुलमुल नीति छोड़कर कठोरता से न्यायतंत्र की रक्षा करे । यही समय की मांग है |

हमें स्मरण रखना होगा कि भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान एक इस्लामी देश बना जबकि भारत ने स्वयं को हिन्दू राष्ट्र घोषित न करते हुए धर्मनिरपेक्षता का मार्ग चुना | किन्तु अब भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था, न्यायपालिका और एक स्वतंत्र नागरिक समाज के सम्मुख यह एक बड़ा खतरा आ गया है । ताजा घटनाक्रम हमें ब्रिटिश कट्टरपंथी अन्जेम चौधरी की याद दिलाता है, जिसने 2012 में "SHARIAH4HIND" परियोजना कि तानेबाने बुने थे | किन्तु जागरुक हिन्दू संगठनों के संयुक्त प्रयासों से उसकी योजना सफल नहीं हो सकी ।

गत वर्ष मुस्लिम महिलाओं से संबंधित शरीयत आवेदनों को लेकर प्रस्तुत की गई एक याचिका पर विचार करते हुए न्यायमूर्ति एआर दवे और आदर्श गोयल की दो सदस्यीय पीठ ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर विचार करने के लिए एक प्रथक जनहित याचिका दायर करने का निर्देश दिया था, ताकि मनमाने ढंग से तलाक (ट्रिपल तलाक) व पहली पत्नी के होते, मुस्लिम पुरुषों द्वारा दूसरी शादी करने की दशा में उनके निर्वाह भत्ते आदि के उनके अधिकारों कि रक्षा हो सके । अदालत ने अटॉर्नी जनरल और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) को तत्संबंधी नोटिस भी जारी किया था।

समाचारों के अनुसार शुक्रवार को मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर, न्यायमूर्ति एके सीकरी और आर बानुमथि की बेंच ने 'मुस्लिम महिलाओं के लिए समानता की खोज ' शीर्षक से दाखिल की गई एक याचिका को विचारार्थ स्वीकार कर लिया और जमीयत उलेमा ए हिन्द को एक पार्टी बनाने पर सहमति व्यक्त की, साथ ही उनसे जवाब मांगा, अटॉर्नी जनरल और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) को छह सप्ताह में जबाब देने को कहा गया । उम्मीद की जा रही है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी इस मामले में एक पक्षकार बनने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध कर सकता है।

जमीयत ने संविधान के अनुच्छेद 44 का उल्लेख किया है, जिसमें राज्य से हर भारतीय के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की बात कही गई है | लेकिन जमीयत का कहना है कि अनुच्छेद 44 केवल एक मार्गदर्शक सिद्धांत है और उसे जबरन लागू नहीं किया जा सकता । निहितार्थ यह है कि जब तक राज्य द्वारा सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू नहीं की जाती, तब तक यह अनुच्छेद अलग अलग धर्मों के अलग अलग कोड के अस्तित्व को स्वीकारता और मान्यता देता है और साथ ही यह उनके बने रहने की अनुमति भी है । 

इसमें शाहबानो मामले में मुस्लिम महिलाओं के तलाक और रखरखाव को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय को दरकिनार करने के लिए राजीव गांधी सरकार द्वारा मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 (तलाक पर अधिकार संरक्षण) में किये गए संशोधन का भी उल्लेख किया गया है । 

इस घटनाक्रम से स्पष्ट रूप से संकेत मिलता है कि अल्लाह से प्यार, शरीयत और मुहम्मद के नाम पर, उनके अनुयाई यह आशा कर रहे हैं कि वे एक के बाद एक भारतीय न्यायिक, राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर विजय प्राप्त कर लेंगे । इन लोगों ने तमिलनाडु में त्वाहिद जमात के नाम पर जोरशोर से मूर्ति पूजा के अंत की घोषणा की, पश्चिम बंगाल में इदारा -ए-शरीयत ने मालदा पुलिस स्टेशन को जलाकर ख़ाक कर दिया और अब जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने कुरआन और शरिया के नाम पर भारतीय न्यायपालिका को ही चुनौती दे डाली ।

वर्तमान विश्व और वैश्विक समुदाय को अभी शरिया लागू करने की इस्लामी विवेचना के नाम पर जिहाद की अधिकतम ऊंचाई के रूप को देखना शेष है । अभी जो कुछ दिख रहा है वह तो तब है, जब उसने सिर्फ आधा रास्ता ही तय किया है!

कुरान, शरीयत, हलाल और इस्लामी राज्य के कट्टरपंथी धीरे धीरे गर्भ से बाहर आ रहे हैं, स्थिति और विकट होने वाली है | अगर इनकी रोकथाम नहीं की गई तो गैर-मुस्लिम लोगों को यातो इस्लाम स्वीकार करना होगा या मरना होगा । यह समस्या केवल भारतीय या स्थानीय नहीं है, निकट भविष्य में पूरी दुनिया शरीयत और जिहाद इन दोनों शब्दों के खतरों से जूझती दिखाई देगी ।

यूरोप पहले ही इस्लामिक जिहाद, शरीयत के प्रसार और वहाँ मुस्लिम लोगों की बढ़ती आवादी के बोझ का शिकार है, जर्मन, बेल्जियम, फ्रांस, ब्रिटेन, ग्रीस और अन्य देश इसका स्पष्ट प्रमाण हैं । अमेरिका में भी मूक जिहाद और शरिया वृद्धि का प्रभाव दिखने लगा है । अफ्रीका तो पहले ही उनके द्वारा जीत लिया गया है। ऑस्ट्रेलिया इन शरिया और हलाल लोगों से छुटकारा पाने के लिए छटपटा रहा है।

एशिया में शरीयत का काफिला चीन के झिंजियांग में भी पहुँच गया है। मध्य-पूर्व, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में शरीयत प्रवर्तन और कुछ नहीं बल्कि कुरान और इस्लाम की बर्बर गाथा है । जमीयत उलेमा-ए-हिंद-भारत में भी शरीयत लागू करवाना चाहता है और उसके लिए योजनाबद्ध मुसलमानों को संगठित कर रहा है। भारत में शरीयत संविधान अर्थात, गैर मुसलमानों पर ईशनिंदा के फतवे, मानव अधिकारों के उल्लंघन, रक्त के परनाले । इसके अतिरिक्त शरीयत का क्या मतलब है? भारत का बहुमत कभी भी शरीयत की यह बर्बरता स्वीकार नहीं कर सकता | युगों से लोकतांत्रिक व्यवस्था और मुक्त उत्साह इसके स्वभाव में है ।

यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में तेजी से शरीयत और हलाल अवधारणा का विरोध शुरू हो गया है । वे मस्जिद की अजान, सार्वजनिक स्थानों में बुरका के उपयोग पर प्रतिबंध लगा रहे हैं, मस्जिदों और मदरसों (इस्लामी-अरबी मदरसे) को बंद कर रहे हैं | 

भारत के पवित्र संविधान में हस्तक्षेप की शरीयत को अनुमति नहीं दी जा सकती । यह कालबाह्य है, आदिम युग की प्रकृति प्रवृत्ति की परिचायक है, जबकि भारतीय संविधान अपने सह-अस्तित्व और सद्भाव के बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित है । इन दोनों में कोई साम्य नहीं है ।

अपने दायरे में मुसलमान शौक से शरिया के अनुसार खाएं, पियें, सोयें, सपने देखें, शादी करें, पूजा करें या मरें, कोई समस्या नहीं है। लेकिन अगर वे भारतीय वैध संविधान के खिलाफ और न्यायपालिका के खिलाफ इस प्रकार जिहाद चलाएंगे तो यह एक चुनौती मानी जायेगी, और इसे भारतीय समाज कभी बर्दास्त नहीं करेगा, इस चुनौती का मुंहतोड़ जबाब देगा |

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