मनु स्मृति में प्रक्षेप

मनु स्मृति के महत्त्व, देश और विदेश में मनु स्मृति का प्रभाव पिछले लेख "मनु स्मृति का पुनर्मूल्यांकन" में आपने पढ़ा ! इस लेख में मनु स्मृति में की गयी मिलावट जिसे "प्रक्षेप" कहा जाता है के बारे में आप पढेंगे !  

प्रक्षेप से आशय –

प्रक्षेप का अर्थ होता है – “बीच में की गयी मिलावट” ! किसी व्यक्ति द्वारा लिखे गए मूल ग्रन्थ में अन्य लोगों द्वारा मिलाये गए विचारों को ‘प्रक्षेप’ या ‘क्षेपक’ कहा जाता है ! मनुस्मृति में वे श्लोक जो मनु से भिन्न व्यक्तियों ने रचकर मिला दिए है, उनको ‘प्रक्षिप्त’ माना गया है ! यह आवश्यक नहीं कि प्रक्षेप ‘विरोधी विचारों’ से युक्त अथवा बुरा ही हो, वह ग्रंथकार के समर्थक विचारों वाला और अच्छे विचारों का भी होता है !

क्या मनु स्मृति में प्रक्षेप नहीं है ?

कुछ व्यक्ति मनु स्मृति में प्रक्षेप नहीं मानते ! उनका विचार है कि मनुस्मृति का यह उपलब्ध स्वरुप वास्तविक है, किन्तु उनका यह विचार पूर्णतः भ्रांतिपूर्ण है ! उपलब्ध मनुस्मृति को देखकर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इसमे प्रक्षेपों की भरमार है और यह प्रक्षेप एक साथ न होकर समय समय पर हुए है ! इनकी सिद्धि के लिए निम्न युक्तियाँ प्रस्तुत की जा सकती है –

उपलब्ध मनु स्मृति में विषय-विरुद्ध,परस्पर विरुद्ध,प्रसंग विरुद्ध तथा अनेक पुनरुक्तियाँ पायी जाती है ! आश्चर्य की बात यह है कि कहीं कहीं तो त्रिकोणात्मक ‘परस्पर विरोध’ भी है, या पहले श्लोक में जो विधान है, उसके अगले ही श्लोक में उसका विरोध है ! इस विडम्बना पूर्ण स्थिति को देखकर भी यह कहना कि मनुस्मृति में प्रक्षेप नहीं है, दुस्साहस और मिथ्या आग्रह ही कहलायेगा ! एक मध्यमस्तरीय लेखक की रचना में भी यह त्रुटियाँ नहीं होती है ! उनके लेखन में वैचारिक एकमत्य, विषय और प्रसंग की सुसंगति, अविरोध था स्पष्ट अभिव्यक्ति होती है ! फिर मनुसदृश्य तत्वदृष्टा विद्वान की रचना में इस प्रकार की त्रुटियों का होना सर्वथा असंभव है ! महर्षि मनु अपने समय के सर्वाधिक प्रख्यात और धर्म सम्बन्धी विषय के मर्मज्ञ विद्वान थे ! इसी कारण ऋषि लोग जिज्ञासा के समाधान के लिए एकत्रित होकर उनके पास आये थे ! वे निवेदन करते हुए कहते है –

भगवन सर्ववर्णानां ...................................कार्यतत्वार्थवित्प्रभो || (१|२,३||)
अर्थात – हे भगवन आप सब वर्णों और आश्रमों के धर्मों को ठीक ठीक बतलाने में समर्थ (योग्य) है, और क्यूंकि ईश्वर रचित, आचिंत्य और अपरिमित ज्ञान ही से युक्त वेदरूपी विधान के धर्मतत्व (व्यावहारिक तत्व) तथा अर्थ के जानने वाले आप ही एक मात्र विद्धवान है (अतः आप हमें इन धर्मों का उपदेश कीजिये)!
इससे स्पष्ट है कि महर्षि मनु अपने समय के प्रख्यात एवं इस विषय के सबसे अधिक अधिकारी विद्वान थे ! अतः ऐसे विद्वान की रचना में उक्त प्रकार की त्रुटियाँ नहीं हो सकती है ! फिर भी उक्त त्रुटियाँ पायी जाती है तो इसका सीधा सा अभिप्राय है कि मनु स्मृति में प्रक्षेप है ! 

मनु स्मृति में एक और तो गंभीर, युक्तियुक्त, साधार, दुराग्रह एवं पक्षपात रहित अरुढ़ तथा संतुलित शैली है, वहीँ बीच बीच में अतिसामान्य,अयुक्तियुक्त,निराधार, अतिशयोक्तिपूर्ण,दुराग्रह एवं पक्षपातपूर्ण तथा रूढ़ शैली के श्लोक भी आ जाते है ! निःसंदेह, उक्त विरोधी भिन्त्ताएं एक ही रचियता की शैली में नहीं हो सकती ! स्पष्ट है कि दूसरी शैली की रचनाएँ, मनुसदृश विद्वान द्वारा रचित न होकर अन्यों द्वारा रचित है, अतः वे प्रक्षेप है !

कहीं कहीं मनुस्मृति में मनु से परवर्ती व्यक्तियों,जातियों,स्थानों का उल्लेख किया है ! कहीं कहीं मनु द्वारा निर्धारित मौलिक व्यवस्थाओं से भिन्न व्यवस्थाओं का वर्णन है ! किसी श्लोक में “मनुरब्रवीत” “मनोरनुशासनम” आदि पदों का प्रयोग है जो स्पष्ट रूप से किसी और रचियता की और संकेत करता है ! इस प्रकार के सभी श्लोक परवर्ती होने से प्रक्षिप्त है! वे किसी भी अवस्था में मनु द्वारा स्वयंप्रोक्त नहीं हो सकते !

बहुत से श्लोक ऐसे है जो प्राचीन प्रतियों में नहीं है परन्तु अर्वाचीन प्रतियों में है ! उत्तरकालीन प्रति में श्लोकों की संख्या बढती ही गयी है ! जब प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में यह हाल है तो व्यतीत दीर्घकाल में प्रक्षेप न हुए हो, यह कैसे हो सकता है ? उदाहरण के तौर पर निम्न श्लोक द्वितीय अध्याय में अठारहवें श्लोक के पश्चात केवल मेघातिथि के भाष्य में ही पाया जाता है –

विरुद्धा च विगीता च .............................. चैषाsसंभवश्रुतिः ||
अर्थ – निर्दिष्ट कारण में प्रत्यक्ष से विरुद्ध, असंगत एवं असंभव अर्थ का प्रतिपादन करने वाली स्मृति वेद विरुद्ध स्मृति कहलाती है !
इसी प्रकार –

तदसत्र सर्ववर्णानामनिवार्य...................................बाधते ||(११|३३ के पश्चात)
अर्थ – ब्राह्मण की वाणी का अस्त्र वह अस्त्र है, जिसे कोई भी वर्णस्थ व्यक्ति अपने सामर्थ्य से नहीं हटा सकता ! और यह अस्त्र तप की शक्ति से संपन्न होने के कारण न मारने योग्य शत्रुओं को भी मार देता है !
सभी भाष्यकारों ने न्यूनाधिक रूप से ‘मनुस्मृति में प्रक्षेप’ होना स्वीकार किया है, उनमे कुल्लुकभट्ट ने सम्पूर्ण मनुस्मृति में १७० श्लोकों को प्रक्षिप्त माना है, अतएव उन्हें बहुतकोष्ठकों एवं भिन्न संख्याओं में दिया है ! परवर्ती सभी पौराणिक पंडितों ने उन प्रक्षेपों को यथावत स्वीकार किया है ! कुल्लुकभट्ट और उनसे परवर्ती अन्य तदनुसारी टीकाकारों-भाष्यकारों ने जो प्रक्षिप्त श्लोक स्वीकार किये है उनका अध्यायानुसार विवरण निम्न प्रकार है –

प्रथम अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या           –                11
द्वितीय अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या         –               11
तृतीय अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या          –               21
चतुर्थ अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या           –               19
पंचम अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या           –                22
षष्ठ अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या              –                  6
सप्तम अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या          –                16
अष्टम अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या          –                30
नवं अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या             –                  6
दशम अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या          –                  २
एकादशम अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या   –                १४
द्वादश अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोकों की संख्या         –                 12

इसी प्रकार मनु स्मृति पर कार्य करने वाले वुलर और जौली जैसे पाश्चात्य विद्वानों ने भी मनु स्मृति में प्रक्षेपों को स्वीकारा एवं उन्हें प्रथक दर्शाया भी है ! सर्वप्रथम मनुस्मृति में प्रक्षेपों की और ध्यान आकृष्ट महर्षि दयानंद सरस्वती ने किया ! उनके पश्चात कुछ विद्वानों ने भी प्रक्षेप निकालने के प्रयास किये ! 

निराधार एवं अयुक्तियुक्त शैली –

जहाँ कारण-कार्य या साधन-साध्य का पारस्परिक सम्बन्ध रहित वर्णन किया गया हो, जिस विधान का कोई बुद्धि संगत स्थिति न हो अथवा जो तर्क के आधार पर पुष्ट नहीं होता, ऐसा वर्णन निराधार एवं अयुक्तियुक्त शैली का है ! मनु ने प्रत्येक विधान और वर्णन को साधार एवं युक्तियुक्त ढंग से वर्णित किया है और धर्मनिर्णय के लिए तर्क को भी एक प्रमुख आधार माना है (१२|१०६,१११) | मनु के इस दृष्टिकोण के अनुसार उक्त शैली के श्लोक मनुकृत न मानकर प्रक्षिप्त माने गए है !

धान्यं हृत्वा भवत्याखु:....................................नकुलो घृतम || (१२|62 ||)

अर्थ – धान्य चुरानेवाला चूहा, कांसा चुरानेवाला हंस, जल की चोरी करने वाला जलमुर्ग, मधुचोर डांस, दूद्ज्चोर कौवा, रस चुरानेवाला कुत्ता और घी चुरानेवाला नेवला बनता है ! 
(यहाँ उक्त चोरियों का और उनके फलस्वरुप में वर्णित जन्मों का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है अतः यह कथन निराधार एवं युक्तियुक्त है !)

प्रत्यग्नि प्रतिसूर्यं च ..........................नश्यति मेहतः || (४|५२ ||)
अर्थ – अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, ब्राह्मण और गाय तथा वायु इनकी और मुख करके लघुशंका करने वाले व्यक्ति की बुद्धि नष्ट होती है !
यहाँ भी उक्त वस्तुओं की और मुख करने का और बुद्धि नष्ट होने का कोई युक्तियुक्त सम्बन्ध नहीं है ! इसी प्रकार निम्न विधान भी अयुक्तियुक्त और निराधार है –

मृदं गां दैवतं ....................................वनस्पतीन || (४|३९||)

अर्थ – मिट्टी, गाय, देवमूर्ति, ब्राह्मण, घी, शहद, चौराहा और प्रसिद्द वृक्ष, इनको दायभाग की और रखते हुए बाईं और से जाएँ !
विनादिभरप्सु वाप्यार्त:..........................विशुद्धयति || (११|२०२||)
अर्थ – पीढित व्यक्ति जल के बिना और जल में शरीर के मॉल मूत्र को त्यागकर वस्त्र रहित स्नान करे और जल से बाहर आकर गौ का स्पर्श करे, इस प्रकार वह शुद्ध होता है !
अतिश्योक्ति पूर्ण शैली –
अभीष्ट सिद्धि की प्रवृत्ति से जहाँ किसी बात को आवश्यकता से अधिक बढ़ा चढ़ा कर वर्णित किया गया है, वह अतिश्योक्तिपूर्ण शैली है ! मनु की शैली में संतुलित वर्णन है ! मनुस्मृति एक विधानशास्त्र है, अतः उसमे वर्णित प्रत्येक विधान, प्रत्येक धर्म-अधर्म का कथन यथावत होना चाहिए ! कहीं कहीं यह यथावत नहीं है, यथा –

अवगूर्य त्वब्दशतं................................ प्रतिपघते || (११|२०६||)
अर्थ – ब्राह्मण को मारने की इच्छा से दंड को उठाने मात्र से सौ वर्ष तक और दंड प्रहार करके मारनेवाला हजार वर्ष नरक में रहता है ! 
शोणितं यावतः........................................ नरके बसेत || (११|२०७||)
अर्थ- ब्राह्मण के शरीर से निकले रक्त से पृथ्वी के जितने रजकण भींगें, दंडप्रहार करके ब्राह्मण के शरीर से रक्त निकालने वाला व्यक्ति उतने ही सहस्र वर्ष पर्यंत नरक में पडा रहता है !

पक्षपातपूर्ण शैली –

जहाँ किसी वर्ग,व्यक्ति या बात की उपयुक्त आधार या कारण के बिना विशेष पक्षधरता अपनाई गयी है, अथवा किसी वर्ग या व्यक्ति की घृणा, निंदा, उंच-नीच, छुआ-छूत आदि से प्रेरित होकर अनुपयुक्त अवमानना की गयी हो, वह पक्षपातपूर्ण शैली है ! मनु की शैली में उपयुक्त ‘आधार’ या कारण के आधार पर ही प्रशंसा या निंदा है, पूर्वाग्रहबद्धता पूर्वक पक्षपात की प्रवति से नहीं ! बीच बीच में पक्षपात की भावना से ओतप्रोत श्लोक भी आते है, वे मनुप्रोक्त नहीं है –

ब्राह्मणवर्ग के लिए विशेष पक्षपात –

स्वमेव ब्राह्मणों...................................हीतरे जनाः || (१|१०१||)
अर्थ – ब्राह्मण जो कुछ खाता है, पहनता है, देता है, वह सब उसका ही है – यह सब ब्राह्मण का ही है ! अन्य जो लोग खाते है, वे सब ब्राह्मणों की कृपा से खाते है !
ब्राह्मण दशवर्ष.......................................तयो: पिताः || (२|१३५||)
अर्थ – दस वर्ष का ब्राह्मण और सौ वर्ष का क्षत्रिय, पिता पुत्र के बराबर है ! उनमे ब्राह्मण पिता के तुल्य है !
स्त्रियों के लिए पक्षपातपूर्ण विधान –

विशील: कामवृते.........................................देववत्पत्तिः || (५|१५४||)

अर्थ – पतिव्रता स्त्री को दुष्ट स्वभाव वाले, परस्त्रीगामी और गुणहीन पति की भी सदा देवताओं के सामान पूजा-सेवा करनी चाहिए ! 

अछूत की भावना से प्रेरित पक्षपातपूर्ण शैली –

न विप्रं स्वेषु ............................................. स्याच्छुद्रसंस्पर्शदूषिता || (५|१०४||)

अर्थ – जब तक अपने वर्ग के व्यक्ति विधमान है, तब तक ब्राह्मण के शव को शूद्रों से नहीं उठवाना चाहिए, क्यूंकि शूद्र के स्पर्श से दूषित शरीर की आहुति स्वर्ग में नहीं पहुँचती ! 

घृणा एवं निन्दायुक्त शैली –

वृषलीफेनपीतस्य ......................................... विधीयते || (३|१९||)

अर्थ – विवाह करके शूद्र स्त्री के अधरपान करनेवाले का और जिसके मुख पर शूद्रा का श्वास लगा हो, जो शूद्रा के के गर्व से उत्पन्न हुआ हो, उसका कभी निस्तार नहीं हो सकता !

ऊँच नीच की भावना से प्रेरित पक्षपात पूर्ण शैली –

सहासनमभिप्प्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ............................वास्यावकर्तयेत || (८|२८१||)

अर्थ – जो शूद्र, ब्राहमण के समान आसन पर बैठना चाहे तो उसकी कमर पर दगवाकर उसे देश निकाला दे दें अथवा नितम्बों को कटवा दें ! 
उपर्युक्त सभी श्लोक पक्षपातपूर्ण शैली के होने से मनुप्रोक्त सिद्ध नहीं होते, अतः प्रक्षिप्त है !

वेद विरुद्ध –

मनुस्मृति के १|3||२|६ (इस संस्करण में १|१२५) ९-१५ || १२|९३-९९ १०९-११३ श्लोकों से यह विदित होता है कि मनु वेद को ही धर्म का मूलाधार मानते है और उनकी मनुस्मृति भी वेदानुकूल है ! अन्य परवर्ती स्मृतियों ने भी मनुस्मृति को वेदानुकूल घोषित किया है ! इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुस्मृति में कोई मान्यता वेद विरुद्ध नहीं होनी चाहिए ! जो वेद विरुद्ध होगी वह मनु की मान्यताओं के आधार पर प्रक्षिप्त ही मानी जायेगी ! यहाँ यह स्पष्टीकरण भी उपयुक्त होगा कि वेद की मान्यताओं का निर्विवाद रूप में स्पष्ट करना अपने आप में एक जटिल कार्य है, अतः वेदों की जो मान्यताएं एक दम स्पष्ट है उन्ही के अनुसार इस आधार का उपयोग किया गया है ! विशेषतः उन विधानों में तो इस आधार का उपयोग करना अति आवश्यक हो गया है, जिनमे वेदों को उद्धत करने वर्णन है ! कुछ उदाहरण प्रस्तुत है –

निम्न श्लोक में स्त्री-शूद्रों को वेदमंत्रों के पठन पाठन का निषेध है –

अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषतः || (२|६६||) (२|४१ इस संस्करण में)
अर्थ – स्त्रियों के संस्कार के लिए ये समस्त कर्म बिना मंत्र के करें !
नाविस्पष्टमधीयीत न शूद्रजनसन्निधौ || (४|99||)
अर्थ – वेदों को अस्पष्ट न पढ़ें और शूद्रों के सामने न पढ़ें !

अतः वेद विरुद्ध होने से यह सभी श्लोक प्रक्षिप्त कहलायेंगे !    

क्रमशः .........

सहयोग :- वैदिक संस्थान शिवपुरी (म.प्र.)

साभार : "विशुद्ध मनुस्मृति" भाष्यकार प्रो. सुरेन्द्र कुमार

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