भारत की दुर्दशा का कारण समझो मोदी जी - शंकर शरण


भारत के दुश्मन जैश-ए-मुहम्मद और मसूद अजहर के बचाव में चीन का उतरना आश्चर्यजनक नहीं है। आश्चर्यजनक तो इस पर भारतीय नेताओं व पत्रकारों का चकित होना है! सैकड़ों प्रतिकूल अनुभवों के बाद भी हम कोई सबक नहीं सीख पाए। यह हमारे मानसिक खालीपन का प्रदर्शन है। स्वतंत्र भारत में आरंभ से ही पड़ोसियों द्वारा घुसपैठ, सीमा में घुस कर सैनिक चौकी बना लेने और विश्वासघात की घटनाएं होने लगीं। सन् 1954-55 में चीन द्वारा लद्दाख में चुपचाप कब्जे का पता चला तो ‘शांति के पुजारी’ प्रधानमंत्री नेहरू (जो तीन दशक से कांग्रेस के विदेश-नीति विशेषज्ञ, और कम्युनिज्म-ज्ञाता भी माने जाते थे!) ने इसे छिपाए रखा। यानी, संदेश दिया कि किंकर्तव्यविमूढ़ भारतीय नेता प्रतिकार का कोई प्रयास तक नहीं करेंगे। इस तरह, लद्धाख का एक हिस्सा गया। यह स्वतंत्र भारत की विदेश-नीति की पहली देन थी।

जब मामला खुला तब संसद में नेहरू ने बयान दियाः – क्या हुआ, यदि चीन ने उस इलाके पर कब्जा कर लिया, ‘वहाँ तो घास तक नहीं उगती!’ यह लज्जास्पद प्रसंग साठ वर्ष पहले का है। आज क्या बदला, इस पर हम कब खुल कर विचार करेंगे? लद्दाख ही नहीं, असम और बंगाल में भी भारतीय सीमा आज अंदर बड़ी दूर खिसक कर आ चुकी है, सभी नेता यह जानते हैं।

नेहरू के बयान कि ‘लद्दाख में घास तक नहीं उगती’ के कितने भयावह अर्थ थे? तब नए भारत की नीतियों का आरंभ ही हुआ था। यह थी हमारी शुरुआतः कि राष्ट्रीय सुरक्षा की पहली जिम्मेदारी जिस पर थी, वही उस से भाग रहा था। यही नहीं, अपने भगोड़ेपन को सही ठहरा रहा था – वह भी सार्वजनिक रूप से! न केवल नेहरू में नीति-निर्माण की क्षमता व समझ नहीं थी, उन्हें इस का भान तक न था। इस के दुष्परिणामों की करुण कथा कश्मीर, तिब्बत, चीन संबंधी नीतियों से आरंभ होकर पाकिस्तान द्वारा बार-बार ठगे जाने तक अनवरत चल रही है। हम इन सब को जोड़कर देखना और सबक कब सीखेंगे? केवल सेना, आधुनिक हथियार और प्रक्षेपास्त्र जमा कर लेने से कोई दुश्मन नहीं डरता, यह हम कब तक नहीं समझेंगे?

अंदर-बाहर हमारी लाचारी के मूल में वैचारिक गड्ड-मड्ड पन है। आरंभ से ही दुनिया को या अंदरूनी दुष्टों को उपदेश देना, देशी-विदेशी मंचों पर शांति व भाई-चारे के आत्म-तुष्ट बयान देना, कबूतर उड़ाते या हँसते फोटो खिंचवाना तथा व्यापार समझौते करके देश को तसल्ली देना हमारी आंतरिक-बाह्य सुरक्षा नीति का मानो आदि-अंत रहा है।

स्वतंत्र भारत की नीतियों में इस सभी दिग्भ्रम का मूल गाँधी-नेहरू के विचारों का दुष्प्रभाव है। इस से भाजपा भी सराबोर है। यह दो बार देखा जा चुका कि उसके पास नेहरूवादी लीक के सिवा अपना कोई विचार नहीं। जब तक इस कड़वी सच्चाई से बचने की कोशिश रहेगी, हमें अंदर-बाहर निरंतर छलित, अपमानित होते रहना पड़ेगा। हम अपनी ही बचकानी समझ के बंदी हैं। यह अंदरूनी और बाहरी, दोनों तरह के दुश्मन हमारे नेताओं, बुद्धिजीवियों से बेहतर जानते हैं!

इसीलिए आए-दिन भारत उस हट्टे-कट्टे आदमी सा दिखता है जो अस्त्र-शस्त्र सज्जित होकर भी अपने ऊपर किसी दुष्ट के आक्रमण को बेबस देखता, सदैव दूसरों से सहायता की अपेक्षा करता हो। यदि पठानकोट और मसूद अजहर जैसे अंतहीन अपमानों से हमें उबरना है, तो पहले अपने वैचारिक जाले को झाड़ कर साफ करना होगा।

राज-काज शांति, अहिंसा, समाजवाद या ‘विकास’ की लफ्फाजी से नहीं चलता। सब से बड़ा व्यंग्य यह है कि शांति, सदभाव की रट पर निर्भर रहने से लाखों भारतवासियों की जानें गई, जबकि जो देश जैसे को तैसा अथवा शक्ति-आधारित नीति चलाते हैं, उन्हीं के नागरिक और सैनिक निरापद जीवन जीते हैं। चीन या ईरान पर आज तक किस ने आक्रमण किया? उसे कितनी बार ताशकंद, शिमला या कारगिल जैसा धोखा झेलना पड़ा? यह हम कब जानेंगे कि अपने अधिकार के लिए, लड़ने-मरने को तैयार रहने से ही कम लोग मरते हैं। इस के विपरीत, शांति और बंधुत्व के भजन पर निर्भरता से लाखों भारतवासी अंदर-बाहर शत्रु-ग्रास बनते रहे हैं।
पर हमें अभी तक यह बात समझ नहीं आई। विभाजन, कश्मीर, पंचशील, तिब्बत, 1962, 1965, लाहौर-बस यात्रा और कारगिल, पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद का निर्यात, बात से मुकरना और झूठे आरोप लगाना। यह सब हमारे एक ही भ्रम के नियमित दुष्परिणाम हैं। शत्रु अपनी कार्रवाई पर हमारी प्रतिक्रिया पहले से जानता है। जैसे, अंग्रेज अपने कदमों पर गाँधीजी की प्रतिक्रिया पहले से जानते हुए अपनी चाल चलते थे।

जब तक हम इतिहास के सही परीक्षण से बचते रहेंगे, तब तक परमाणु बम और प्रक्षेपास्त्र बनाना बेकार है। जैसे ऊपर से मजबूत भवन की दीवारें अंदरूनी रिसाव से गीली, कमजोर होती जाती हैं। उसी प्रकार भारतीय राज्य, समाज का भवन भीतर से बढ़ते रिसाव का शिकार है। इस खतरनाक स्थिति से अनजान बना जा रहा है। कश्मीर के विस्थापित कवि डॉ. कुन्दनलाल चौधरी का यक्ष-प्रश्न हमारे सामने यथावत् खड़ा हैः ‘क्या हमारे देवताओं ने हमें निराश किया या हम ने अपने देवताओं को’?

यह कश्मीरी हिन्दू के अनुभव से उपजा प्रश्न था, जिसे अपनी अखंड शांति-प्रियता के बावजूद अपनी ही धरती से उजड़ जाना पड़ा। वह भी, स्वदेशी शासन में! क्या कश्मीरी पंडितों के लिए विदेशी अंग्रेजी-राज ही अच्छा न था? गाँधी-नेहरू शासन की शुरुआत होते ही उन का, दुर्बलों का संहार शुरू हो गया – इस सीधे तथ्य का सबक क्या हम ने आज तक सीखा?

डॉ. चौधरी का प्रश्न संपूर्ण भारत से है। शत्रुओं द्वारा कश्मीर, असम, अरुणाचल, लद्दाख, केरल को छीन सकने की संभावना से हम आशंकित हैं। वीर एक बार मरता है, कायर बार-बार। यह भारतीय नीतियों में बार-बार झलका है। यह विशुद्ध रूप से गाँधी-नेहरू की देन है, जिसे भाजपा ने भी यथावत् अपनाया। इसीलिए, ‘आर्थिक सुपर-पावर’ जैसी झूठी शेखी और परमाणु हथियारों के बावजूद हमारी दुर्बलता साफ है। युगों-युगों से सार्वभौमिक सिद्धांत है कि राज्य की रक्षा बल से होती हैः वीर भोग्या वसुंधरा। चीन, रूस और ईरान इसी पर चलते हैं और दुनिया से इज्जत पाते हैं।

मगर हम गाँधी-नेहरू पर गर्व करते हैं। गाँधी ने हिटलर के आसन्न आक्रमण पर ब्रिटेन को सलाह दी थी कि विरोध न करें। हिटलर को खुशी-खुशी कब्जा करने दें। ‘हिटलर कोई बुरा आदमी नहीं है’, गाँधी ने ब्रिटिश प्रधान मंत्री को लिखा। नेहरू ने लद्दाख पर आंशिक चीनी कब्जा होने दिया। वी.पी. सिंह से लेकर वाजपेई तक, सब ने कश्मीर में हिन्दुओं का सफाया चुपचाप देखा। जम्मू और लद्दाख पर अन्याय भी। उसी तरह, अभी पश्चिम बंगाल में इस्लामपंथियों की हिंसा पर चुप्पी है। अंदर-बाहर नीतियों में बुनियादी रूप से कुछ नहीं बदला…

दुष्टों, आततायियों से आँख मिलाकर न देखना, लड़ने से बचना, निर्भय होकर विचार-विमर्श तक न करना – यह पिछले सौ वर्ष से हमारी मूल दुर्बलता रही है। देश-विभाजन से लेकर कश्मीर, कारगिल, तिब्बत, बढ़ते जिहादी तथा चीनी दबाव – यह सब एक ही दुर्बलता के रूप हैं। हिंसकों की खुशामद कर काम निकालने की गाँधीवादी कल्पना बचकानी है। यह कोई शांति-प्रियता या कूटनीति नहीं, यह सारे विदेशी जानते हैं।

सामान्य भारतवासी भी जानते हैं। हमारे सिपाही सीमा पर या संसद में प्राणों की आहुति दे-देकर जो भूमि और सम्मान जीतते हैं, उसे भी गाँधी-नेहरूवादी नीतियाँ खोती रही हैं। हमारे देवताओं ने हमें निराश नहीं किया। हम ने उन्हें किया है। मर्यादापुरुषोत्तम राम, योगीश्वर कृष्ण एवं कौटिल्य चाणक्य जैसे सनातन आदर्शों को भुलाकर हम ने बौने, दलीय आदर्श अपना लिए। अकर्मण्यता और परमुखापेक्षिता को बढ़ावा देने वाले सुविधाभोगी विचार ले लिये। समस्या की जड़ यहाँ है। इसे खत्म किए बिना भारत अपमानित होता रहेगा। 

साभार - नया इंडिया 

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