कबीर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में - प्रवीण गुगनानी


बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय 
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ll

कबीर के वृहद, विशाल रचना संसार की मात्र इन दो पक्तियों से ही कबीर की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सर्व स्वीकार्यता सिद्ध हो जाती है. आज के इस दौर में जबकि प्रत्येक व्यक्ति पराये दोष व पराई उपलब्धियों को देख-देखकर मानसिक रूप से रुग्ण हो रहा है तब कबीर की यह पंक्तियाँ हमें एक नई ताजगी देती हैं.

आज जबकि दलित विमर्श देश में एक प्रमुख विमर्श व चिंतन मनन का विषय हो गया तब कबीर को पढ़ना व उसे मथना एक परम आवश्यक कर्म हो गया है. भारत के दलित विमर्श के प्रत्येक शब्द के प्रणेता डा. भीमराव अम्बेडकर के तीन गुरुओं में से प्रमुखतम माने जाते हैं कबीर. बाबासाहब के जीवन, कृतित्व, मानस व हावभाव पर संत कबीर का गहन प्रभाव दृष्टिगत होता है.कबीर का काव्य संसार भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर है. कबीर केवल सामाजिक सुधारवादी नहीं थे अपितु उन्हें तो उस दौर की सामाजिक क्रांति का अग्रदूत भी कहा जा सकता है. कबीर की साखियों में उस समय के सामाजिक प्रचलनों के प्रति अस्वीकार्यता का स्वर ही उन्हें तब के समय में भी प्रासंगिक बनाता था और वर्तमान समय में भी समीचीन सिद्ध करता है. संत कबीर की मानवतावादी विचारधारा में गहन आस्था उन्हें सर्वकालिक बनाती है. उनके रचना संसार में संवेदना, चेतना व मानवीयता की महीन ग्रंथियों का समावेश सदैव जागृत भाव में उपस्थित रहा है. तत्कालीन समाज में व्याप्त शोषक व शोषित वर्ग के मध्य के तनाव व दूरियों को दूर करना ही उनके काव्य का ध्येय बिंदु था. जातिप्रथा के प्रति त्याज्य व उसे नकारने का भाव तो उनके रचना संसार का स्थायी भाव था. मानव के प्रति मानव के समानता भरे व्यवहार के प्रति उनका घोर आग्रह समाज में घृणा फ़ैलाने वालो के प्रति उद्घोष करता प्रतीत होता था. इसी रौ में संत कबीर ने कहा था -

एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा।एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।

आज के सामाजिक न्याय की अवधारणा को संत कबीर तब के दौर में कृतिरूप में प्रस्तुत कर पाने में सफल रहे थे. जाति वर्ण के प्रति उनका भाव योग्यता, श्रम व सिद्द्धि के आधार पर अवसर प्रदान करनें का रहता था. संत कबीर की स्पष्ट मान्यता थी कि विशेष प्रकार के वर्ण, सम्प्रदाय में जन्म लेने,विशेष वस्त्र पहनने व तिलकधारी हो जाने मात्र से योग्यता नहीं आ जाती, इसी संदर्भ में उन्होंने कहा था -

वैष्णव भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक।

छापा तिलक बनाय कर ठगद्या लोक अनेक।। 

प्रेम प्याला जो पिए, शीश दक्षिणा दे l 

लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का ले ll

परस्पर प्रेम व सत्य शोधन के मार्ग में किसी भी प्रकार के अवधारणा गत विरोध को वे सिरे से नकारने का साहस कर लेते थे फलस्वरूप समाज में उन्हें प्रतिरोध भी सहन करना पड़ता था. इस प्रतिरोध के गरल को संत कबीर नीलकंठ की भांति पी जाते थे. मानवमात्र में समानता व मानवमात्र का कल्याण यही उनकेविचार, दर्शन, काव्य व आख्यानों का मूल तत्व होता था. यही कारण है कि आज भी कबीर उतने ही सामयिक व समीचीन जान पड़ते हैं. वर्तमान समय में दलित विमर्श के नाम से चल रहा वैचारिक मंथन वस्तुतः कबीर की साखियों का निचोड़ मात्र है.

कबीर की दृष्टि में तब के समाज के अनुरूप आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व प्रमुखतः धार्मिक सरोकारों से दलित चिंतन झलकता था जबकि वर्तमान के दलित विमर्श में मूलतः सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि अधिक प्रमुख हो गई है. 

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । 

मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

दुर्भाग्य से आज दलित विमर्श में धर्म व समाज की दृष्टि गौण होती जा रही है, जबकि कबीर का अतीव व्यापक दृष्टिकोण आज के समाज को नई राह दिखाने व उत्कर्ष के मार्ग पर ले जानें में सक्षम है. आधुनिक चेतना, श्रम साधक समाज, स्वावलंबी ग्राम इकाई,संतोषी स्वभाव के मानव, दयालु प्रवृत्ति संवेदनशील समाज कबीर के “मानव शिल्प”का लक्ष्य थे; तभी तो उन्होंने कहा –

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया काशी जानि।

दसवाँ द्वारा देहुरा, तहाँ ज्योति पहिचानि॥

दुनियाँ मन्दिर देहरी, शीश नवावन जाई।

हिरदे भीतर हरि बसें, तू ताही सो लौ लाई॥

माला पहरयाँ कुछ नहीं, गाँठ हृदय की खोइ।

हरि चरनन चित राखिये, तो अमरापुर होई॥

केशन कहा बिगाड़ियो, जो मूड़ै सौ बार।

मन को कहे न मूँडिए जामें विषय विकार॥

कबीर का गृहस्थ होकर आध्यात्मिकता के शिखर पर पहुँच जाना उन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में और अधिक समीचीन व सार्थक रूप में प्रकट करता है. कबीर की गृहस्थ आध्यात्मिकता व संन्यास भाव ने एक नए प्रकार के भक्ति आन्दोलन को जन्म दिया था, जो उस समय एक सर्वथा नूतन व अनूठा प्रयोग था.अपनें परिवार के साथ रहते हुए, बच्चों-पत्नी का पालन पोषण करते हुए, चरखा चलाकर आजीविका चलाते हुए व पैसा कमाते हुए किसी संत व आध्यात्मिक पुरुष का वह समाज में प्रथम परिचय ही था. अपनें चरखे को कितने ही बार आध्यात्मिक रूपकों के माध्यम से वे अपनें काव्य में प्रस्तुत कर चुकें हैं, इससे प्रतीत होता है कि उनकी आजीविका व आध्यात्मिकता कहीं गहरे जाकर एक दुसरे से समरूप व परस्पर विलोपित हो गई थी. गृहस्थ कबीर के घर और आजीविका स्थल पर सारा समय साधू, संतो,चिंतको, विद्वानों, गायकों का जमावड़ा लगा रहता था; इन सब के मध्य अपनें परिवार व रोजगार को साध लेना हमें वर्तमान समय में परिवार के प्रति एक नई दृष्टि देता है. धार्मिकता, आध्यामिकता, सामाजिकता, राजनीति के साथ संन्यासी होने का निस्पृह भाव भी हो व परिवार-समाज के साथ स्वयं व राष्ट्र के विकास का उच्च भाव भी हो यही तो सिखा गए हैं हमें संत कबीर!!! उनकी सर्वकालिकता का बोध उनकी इस पंक्ति में भी झलकता है –

बैद मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार l
एक कबीरा न मुआ, जेहिं के राम आधार ll

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