यूरोपीय देशों में घुमड़ता नफ़रत का सैलाब !


विज्ञान का सामान्य सिद्धांत है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है ! इस्लामी आतंकवाद की प्रतिक्रिया से यूरोपीय देश कैसे अछूते रह सकते थे ! हाल ही में ब्रिटेन में संपन्न हुए जनमत संग्रह में निर्णायक बहुमत से यूरोपीय संघ छोड़ने के पक्ष में जो मतदान हुआ है, उसके मूल में भी यही प्रतिक्रिया है ! आईये इसे विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं ! 

महाद्वीप में हुए दो विश्व युद्धों के विनाशकारी प्रभाव के परिणामस्वरूप यूरोपीय एकता का सपना देखा गया था । 1946 में, ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री और नोबेल पुरस्कार विजेता, सर विंस्टन चर्चिल ने यूनाईटेड स्टेट ऑफ़ यूरोप के उद्भव की आशा जताई थी । इसके बाद पश्चिमी यूरोपीय परियोजना के अंतर्गत महाद्वीप में उदार सहकारी आदर्शों का जन्म हुआ, युद्ध के संकट से मुक्ति के साथ सामग्री, पूंजी, सेवाओं और लोगों की मुक्त आवाजाही को अनुमति मिली । अंततः 1957 में स्चुमन योजना से यूरोपीय आर्थिक समुदाय विकसित हुआ, जो 1992 आते आते यूरोपीय संघ के रूप में सुपर राज्य बन गया ।

अपने प्रारंभिक चरण में यूरोपीय संघ विशुद्ध रूप से एक पश्चिमी यूरोपीय संगठन था जिसके सदस्यों में समृद्ध राष्ट्र थे, जिनमें से अधिकाँश नाटो के भी सदस्य थे, साथ ही अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के सैन्य गुट में भी शामिल थे । किन्तु वारसा संधि के बाद 2004 और 2013 के बीच पूर्व में सोवियत संघ में रहे रोमानिया, बाल्टिक राज्य, पोलैंड और बुल्गारिया को भी इसमें शामिल किया गया । महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये देश पश्चिमी यूरोपीय देशों की तुलना में काफी गरीब थे ! यूरोपीय संघ में शामिल होने के बाद पिछले एक दशक में इन देशों से बड़ी संख्या में प्रवासियों का दबाब समृद्ध देशों विशेष रूप से ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी पर बनने लगा । एक अनुमान के अनुसार अकेले ब्रिटेन में 3 मिलियन प्रवासी आये, उनमें से भी लगभग 1 लाख तो अकेले पोलैंड से ही आये ।

ख़ास बात यह है कि यूरोपीय संघ के गरीब भागों से यूरोप में प्रवेश करने वालों में हजारों सीरिया में युद्ध से भागे मध्य पूर्व से आये शरणार्थी भी शामिल थे, जिनके कारण पूरे यूरोप में पश्चिमी उदारवाद के स्थान पर संशय वाद और अति-राष्ट्रवाद पनपने लगा । इसीकी परिणिति ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने में हुई है ! हैरत की बात यह है कि ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने की मुहीम चलाने वाले अतिराष्ट्रवादी इंडिपेंडेंस पार्टी के नेता निगेल फरगे खुद पूरी तरह ब्रिटिश नहीं है, उनकी पत्नी जर्मन है तथा वे स्वयं भी दूरदराज के फ्रेंच फ्रांसीसी प्रोटेस्टेन्ट वंश के हैं । ब्रिटेन में इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकेआईपी) के विषय में दस वर्ष पूर्व तक कोई जानता भी नहीं था, किन्तु महाद्वीप में बढ़ते असंतोष और बेचैनी ने उसे ताकत दे दी ।

पिछले दशक के दौरान पूरे महाद्वीप में अति राष्ट्रवादी राजनीतिक ताकतों का प्रभाव और समर्थन बढ़ा है । चिंताजनक पहलू यह है कि इन दलों की राजनीति 'अन्य' लोगों के प्रति घृणा पर केन्द्रित है ! इनके राजनीतिक उदय से यूरोप में एक बार फिर श्वेत व अश्वेत का संकट पैदा हो सकता है ! यूरोपीय देशों श्वेत ईसाईयों में पनपते संशयवाद और अतिराष्ट्रवाद के पीछे अनेक शक्तिशाली नौकरशाह हैं । ब्रिटेन के फरगे के ही समान नीदरलैंड में गीर्ट वाइल्डर्स और फ्रांस में मरीन ली पेन भी इसी वैचारिक सांचे में ढले हैं । स्पेन के केटलोनिआ तथा यूरोप के कई अन्य स्थानों में क्षेत्रवाद भी बढ़ रहा है, तथा वहां स्वतंत्रता व अलगाव के स्वर मुखरित हो रहे हैं ।

लम्बे समय से स्कॉटिश स्वतंत्रता के लिए अभियान चलाने वाली स्कॉटिश नेशनल पार्टी अभी तक अप्रासंगिक थी, किन्तु ब्रिटिश नेशनल संसद में स्कॉटलैंड की दोनों सीटें जीतने के बाद उसकी ताकत बढ़ गई है ।

पिछले एक दशक से यूरोप में, विशेष रूप से जर्मनी में मध्यपूर्व से आये प्रवासियों के प्रति घृणा जैसे अपराध तथा उनके खिलाफ प्रदर्शनों में वृद्धि हुई है ! ब्रेक्सिट के दौरान भी यूरोपीय संघ के भीतर और बाहर दोनों जगह नफ़रत की यही लहर देखने में आई है, जिसकी ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने निंदा भी की थी । जनमत संग्रह के परिणामों की घोषणा के दूसरे ही दिन पूर्वी लंदन में भारतीय मूल के एक बीबीसी संवाददाता तथा दो पोलिश पुरुषों की पिटाई की गई ।

इन घटनाओं से चिंताजनक संकेत मिल रहे हैं ! क्षेत्रीय सहयोग और परस्पर निर्भरता के जिस उदार अंतर्राष्ट्रवादी एजेंडे पर यूरोपीय संघ की स्थापना की गई थी, अपने ही यूरोपीय गढ़ में कमजोर होता दिख रहा है । यह तो अभी शुरूआत है, हो सकता है, निकट भविष्य में हमें Brexit (ब्रिटेन के एग्जिट) की ही तर्ज पर Dexit (यूरोपीय संघ से डेनमार्क के प्रस्तावित निकास) और Frexit (यूरोपीय संघ से फ्रांस के प्रस्तावित निकास) के लिए भी मतदान होता दिखाई दे ! यूरोपीय संघ के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है ।

तो यह है इस्लामी आतंकवाद की प्रतिक्रिया ! नफ़रत का जबाब नफ़रत ! कहाँ रुकेगा यह क्रम ? क्या हम अंतिम विश्व युद्ध के दर्शक बनने जा रहे हैं ! आखिर किसी विचारक ने कहा भी तो था कि मैं नहीं जानता कि तीसरा विश्व युद्ध कब होगा ! हाँ, किन्तु यह अवश्य जानता हूँ कि उसके बाद चौथा विश्वयुद्ध हथियारों से नहीं पत्थरों से लड़ा जाएगा ! मानवता के विनाश के बाद हम आदिम युग में पहुँच जायेंगे !

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