पूर्वाग्रह से ग्रस्त राजदीप सरदेसाई का एक और घटिया लेख !


आज के दैनिक भास्कर में छपा राजदीप सरदेसाई का लेख “भाजपा की हिंदुत्ववादी रणनीति पर संकट” अनेक विरोधाभाषों का समुच्चय है ! हर बार की तरह एक बार फिर अपने प्रिय विषय “2002 के गुजरात दंगे” से लेख की शुरूआत की है, राजदीप ने ! एक ओर तो वह मानते हैं कि दंगाई भीड़ के पैदल सैनिक दलित थे, पर कुटिलता से एक काल्पनिक और संभवतः मनगढ़ंत चर्चा का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि वे इस लिए थे, क्योंकि बजरंग दल बालों ने उनसे कहा था कि मुसलमानों के पलायन से खाली हुई जमीन पर उन्हें रहने दिया जाएगा !

राजदीप भूल जाते हैं कि गोधरा काण्ड की प्रतिक्रिया में हुए ये हादसे त्वरित प्रतिक्रिया थे, कोई सुविचारित योजना से हुए काण्ड नहीं थे ! दरअसल उनका मूल वामपंथी जेहन उन्हें आहत करता है, जब उन्हें एकजुट हिन्दू समाज का आभास होता है ! उन्हें गुजरात के ऊना में तथाकथित गौरक्षकों द्वारा दलितों की पिटाई, हिन्दू एकजुटता में दरार डालने का उपयुक्त अवसर प्रतीत होता है और इसे वे बड़ी कुटिलता से पूर्व में कांग्रेस एनसीपी शासनकाल में घटित खैरलांजी महाराष्ट्र, कांग्रेस शासित हरियाणा के हिसार व सोनीपत तथा राजद शासित बिहार के लक्ष्मणपुर बाघे में हुए नरसंहारों से जोड़ देते हैं ! एक विशुद्ध राजनैतिक नाकारापन को इस प्रकार सामाजिक विद्वेष भड़काने का साधन बनाने की यह धूर्तता, कितनी जन हितैषी पत्रकारिता है, यह या तो राजदीप बता सकते हैं, या उनके हमकदम बरखा दत्त और रवीश कुमार जैसे पत्रकार !

लेख में राजदीप स्वीकारते हैं कि उत्तरप्रदेश में कल्याणसिंह जैसे ओबीसी नेता तथा गुजरात में खुद नरेंद्र मोदी का उदय भाजपा की ब्राह्मण – बनिया छवि से आगे जाकर अधिक समावेशी और सामाजिक रूप से कम रूढ़िवादी पार्टी के रूप में आगे बढ़ने का प्रयत्न था ! राजदीप यह भी लिखते हैं कि आरएसएस ने भी इस प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया ! वे इस बात से खुश होते हैं कि रामविलास पासवान और उदित राज जैसे दलित नेताओं का भाजपा से जुड़ना और बाबू जगजीवनराम की जयन्ती से “स्टेंड अप इंडिया” जैसी योजना का मोदीजी द्वारा प्रारम्भ किया जाना, आदि सामाजिक सद्भाव के भाजपाई प्रयत्नों पर ऊना में हुई मारपीट की एक घटना पानी फेर सकती है !

और स्वाभाविक ही अपना पसंदीदा विषय “मनुस्मृति” वे कैसे भूल सकते थे ? आखिर जतिपाती के उल्लेख बिना तो उन्हें पूछेगा ही कौन ?

उनके लेख को लेकर आलोचना में कलम चलाने का मेरा मकसद केवल यह दर्शाना है कि एक ओर तो श्रीमान राजदीप सरदेसाई यह स्वीकारते हैं कि आरएसएस अस्पृश्यता व सामाजिक भेदभाव को समाप्त करने हेतु प्रयत्नशील है, किन्तु स्वयं राजदीप जी समाज को तोड़ने वाली घटनाओं को अधिकाधिक प्रचारित कर वैमनस्यता को और अधिक बढ़ावा देने में जुटे हुए हैं ! वे रंच मात्र भी उल्लेख नहीं करते कि ऊना की घटनाओं के बाद वहां हिन्दू संत महात्मा गए, व आहत लोगों के घावों पर मरहम लगाने की चेष्टा की ! आखिर जिनकी रोजी-रोटी ही घावों पर नमक रगड़ने से चलती है, वे मरहम लगाने वालों की तरफ क्यों देखेंगे ?

महाशय राजदीप जी भाजपा की जय पराजय से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है – देश की एकजुटता ! कभी तो समाजहितैषी बनकर भी कलम चलाईये !

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