कैसा होता है सन्यासी जीवन ?



चित्र परिचय – बाएं से दायें – सपत्नीक श्री गोपाल सिंघल, श्री विमलेश गोयल, श्री गोपाल कृष्ण डंडौतिया, स्वामी भैरवानंद सरस्वती, हरिहर शर्मा, श्री गोकुल दुबे !
लगभग 40 वर्षों के संन्यास जीवन के बाद स्वामी भैरवानंद एक बार फिर शिवपुरी पधारे, तो अनेकों पुरानी यादें ताजा हो गईं ! मेरे द्वारा सोशल मीडिया पर कुछ बातें तो कई बार दोहराई जा चुकी हैं, किन्तु कल जब उपरोक्त पांच मीसाबंदी व एक अन्य आत्मीय मित्र गोकुल जी दुबे साथ बैठे तो स्वामी भैरवानंद पूर्व नाम श्री लक्ष्मीनारायण गुप्ता के संन्यास जीवन के कुछ नए संस्मरण भी सामने आये !

पूर्व कथानक - एक अकिंचन की राम कहानी - जेल जीवन के मजे

मीसा से मुक्त होने के बाद लक्ष्मीनारायण जी के मन में संन्यास लेने का विचार आया व वे वैष्णोदेवी के दर्शन को निकल लिए ! दर्शन उपरांत अमृतसर आते आते उनकी जेब खाली हो चुकी थी तथा पास में थे महज तीन जोडी कपडे ! एक पोलिएस्टर का पेंट शर्ट व दो कुडते, एक धोती व एक पाजामा ! पोलिएस्टर के पेंट शर्ट बेचकर आठ रुपये मिले, जिनसे हरिद्वार का टिकिट ले जा पहुंचे गंगा किनारे !

हर की पैडी पर एक साधू ने इन्हें भटकते देखकर अपने पास बुलाया व इनकी रामकहानी पूछी ! ये साधू बनना चाहते हैं यह जानकर उनकी बाछें खिल गईं, लगा कि एक मुफ्त का दास मिल गया ! बोले आओ हम बनाते हैं तुम्हें साधू ! पास में ही हार फूल माला बेचने वाले चार और लोग आये और किसी ने इन्हें लंगोटी दी, किसी ने भगवा गमछा तो किसी ने रुद्राक्ष और देखते ही देखते बन गए इनके पांच गुरू ! इनकी ड्यूटी लगाई गई, घाट पर आने वाले श्रद्धालुओं को कथा सुनाने की और धर्म चर्चा करने की तथा बाद में भंडारा आदि बनाने की ! इनके मूल गुरू तो यह कर नहीं पाते थे ! शीघ्र ही स्वयंभू गुरू के कुछ अन्य रहस्य भी इनके सम्मुख उजागर होने लगे ! और एक रात गुरूजी को शराब पीते देख इनका मन उचट गया और ये बिना किसी को कुछ बताये वहां से भी रवाना हो गए !

लक्ष्मीनारायण जी सन्यासी बनने चले थे, मूल तत्व की खोज में ! “पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं” से मुक्ति पाने हेतु, किन्तु नए गुरूजी के आचार व्यवहार तो साधना के थे ही नहीं ! वे तो सामान्य जन के समान ही लोभ लालच पाखण्ड से घिरे हुए थे ! उदास चित्त ये देवभूमि हिमाचल की ऊंचाई चढ़ते जा रहे थे ! सोच रहे थे कि दत्तात्रय जी ने तो अनेकों गुरू बनाए थे, क्या मुझे भी किसी नए और वास्तविक गुरू की खोज करना होगी, जो मुझे मुक्ति का मार्ग दिखाए !

तभी एक खिरनी के पेड़ के नीचे बैठे एक महात्मा को देखकर इन्होने उन्हें ॐ नमो नारायण कहकर अभिवादन किया ! महात्मा ने इन्हें प्रेमपूर्वक अपने पास बुलाया और पूछा कहाँ से आये हो, किसके चेले हो आदि आदि ! इनकी गाथा सुनकर उन्होंने कहा कि चूंकि न तो तुम्हारी चोटी कटी और नाही बाल, इसलिए तुम अभी साधू तो बने ही नहीं हो ! साधू तो जो भी वस्तु धारण करता है, उसके मन्त्र होते हैं, क्या तुम्हें पता है कि रुद्राक्ष गमछा आदि के मन्त्र क्या हैं ?

स्वाभाविक ही इनका उत्तर “ना” था ! महात्मा जी ने तब इन्हें अपना परिचय दिया ! उन महात्मा जी का नाम था, परशुराम भारती ! दया कर वे इन्हें अपने साथ भैरव अखाड़े में लेकर गए और वहां माया देवी मंदिर के पास स्थित आनंद भैरव मंदिर में इन्हें विधिवत संन्यास की दीक्षा दी गई, जिसे अर्द्ध संस्कार कहा जाता है ! एक ने इन्हें रुद्राक्ष दिया, एक ने लंगोटी पहनाई, एक ने भगवा पहनाया तो एक ने भभूती रमाई ! इन चार के अतिरिक्त मुख्य गुरू महात्मा परशुराम भारती थे ही, जो स्वयं भी जूना अखाड़े के श्री महंत थे ! संयोग देखिये कि जिन दत्तात्रय का स्मरण करते ये हिमालय की यात्रा कर रहे थे, वे ही इनके अखाड़े के भी इष्टदेव थे, अतः स्वाभाविक ही इनके भी इष्टदेव हो गए ! 

महात्मा अत्रि और महासती अनसुईया जी के पुत्र और त्रिदेव ब्रह्मा विष्णु महेश के अंशभूत दत्तात्रय जी द्वारा जिस संन्यास मार्ग को प्रचलित किया गया, उसमें सात अखाड़े शामिल हैं - आवाहन अखाड़ा, जूना अखाडा, निरंजनी अखाड़ा, अग्नि अखाडा, महा निर्वाणी अखाडा, अटल अखाडा और आनंद अखाडा !

दीक्षा के बाद इनका नामकरण हुआ ! लक्ष्मीनारायण नाम का अंत और भैरवानंद का जीवन शुरू हुआ और प्रारम्भ हुआ प्रशिक्षण ! जो भी वस्तु इनके पास थी उनके धारण करने के मन्त्र सिखाये गए, संन्यास के कर्मकांडों की जानकारी दी गई ! शिव महिम्न स्तोत्र, मानस पूजा, चरपट मंजरी व अन्य शिव स्तुतियाँ सिखाई गईं ! योग की विभिन्न स्थितियां भी जैसे लगातार लम्बे समय तक खड़ेसरी रहना, मौन रहना, पंचाग्नि तपना आदि का भी अभ्यास कराया गया ! बड़े मनोयोग से स्वामी भैरवानंद जी ने सभी शिक्षाओं को आत्मसात किया ! 

गुजरात में जूनागढ़ के पास अमरेठी जिले में जंगल हनुमान धारा नामक स्थान पर प्रातः तीन बजे उठना, चार बजे तक स्नान आदि के बाद पूजन पाठ, तदुपरांत भोजन आदि बनाना, अपरान्ह तीन बजे पुनः स्नान, भभूती रमाना, पूजन, सायंकाल आरती और फिर भोजन उपरांत शयन, यही गुरू आश्रम की दिनचर्या थी ! बीच बीच में भारत भ्रमण भी होता रहा ! अमरनाथ यात्रा, चामुंडा देवी, ज्वाला देवी की यात्रा व दक्षिण भारत की यात्राएं भी भैरवानंद जी ने कीं ! लगातार दो तीन वर्षों तक यही क्रम चला ! उसके बाद एकान्तिक साधना की गुरू अनुमति मिलने के बाद भैरवानंद एक बार फिर हिमालय की ओर लौटे !

गुरू का साथ छूटते ही एक बार फिर जीवन संग्राम शुरू हो गया ! लखनऊ के मनकामेश्वर मंदिर से कुछ साधुओं के साथ कांगड़ा देवी के दर्शन को पहुंचे ! वहां एक अप्रिय प्रसंग हो गया ! साथी साधुओं ने एक मौनी बाबा का त्रिशूल छीन लिया ! उन लोगों ने मौनी बाबा से कहा कि तुम्हारे पास त्रिशूल है तो उसका मन्त्र बताओ, तुम्हारा प्रेमपट क्या है, श्यामपट क्या है ! बाबा ने चूंकि मौन वृत लिया हुआ था, अतः उन्होंने कोई जबाब नहीं दिया ! साधुओं ने कहा, तुम्हें मन्त्र नहीं आता, इसका मतलब है कि तुम वास्तविक साधू नहीं हो, डुप्लीकेट हो और उन लोगों ने मौनी बाबा से त्रिशूल छीन लिया ! बेचारे मौनी बाबा उदास और दुखी वहां से चले गए ! यह बात भैरवानंद जी को चुभ गई और उनका भी उन साधुओं से विवाद हुआ ! भैरवानंद जी का कहना था कि मौनी बाबा वास्तविक साधू थे या नकली, इससे हमारा क्या वास्ता ? उनसे त्रिशूल छीनने का अधिकार आपको किसने दिया ?

झगडा बढ़ा और बात हाथापाई तक आ गई ! युवा थे, अतः उनको तो धराशाई कर दिया, किन्तु फिर साथ भी छोड़ दिया और अकेले ही चल दिए ! आखिर नियति को इनका नया स्थान जो देना था ! बैजनाथ धाम के आगे, कांगड़ा और मंडी जिले की सीमा पर एक दुर्गम और दुरूह क्षेत्र में ये नदी किनारे चले जा रहे थे कि तभी एक स्थान इनको रुकने योग्य प्रतीत हुआ – पूण्य नदी के किनारे, पूण्यखड्ड नामक पवित्र स्थान पर स्थित माता विजयलक्ष्मी का छोटा सा सुन्दर मंदिर, सुरम्य वातावरण, पास में ही बनी हुई आठ वाई आठ की छोटी सी कुटिया, जिसमें ताला लगा हुआ था ! दो तीन दिन ये वहीं रुके ! आसपास के गाँव बालों ने इस पर आपत्ति जताई और कहा कि यह कुटिया एक रिटायर्ड फ़ौजी बाबा की है, जो स्वास्थ्य खराब होने के कारण गाँव में हैं ! अगर वे आपको चाबी दे देते हैं तो ही आप यहाँ रुक सकते हो अन्यथा नहीं ! भैरवानंद जी के आग्रह पर एक ग्रामवासी उन फ़ौजी बाबा के पास चाबी मांगने भी गया, किन्तु उन्होंने मना कर दिया !

भैरवानंद जी को बैसे तो तुरंत वहां से चल देना चाहिए था, किन्तु शायद नियति ने नहीं जाने दिया ! इन्होने एक रात और वहां रुकने की ठानी ! सुबह पौ फटते ही जब ये वहां से चलने को ही थे, तभी एक ग्रामवासी कुटिया की चाबी लेकर इनके पास पहुंचा ! उसने बताया कि फ़ौजी बाबा अब इस दुनिया में नहीं रहे, किन्तु जाते जाते वे आपको यह चाबी देने को कह गए हैं ! फ़ौजी बाबा का कहना था कि शायद ईश्वर ने ही आपको उनका चार्ज लेने को भेजा है, अन्यथा आप इस दुर्गम स्थान पर आते ही क्यों ? अब इसे ईश्वरीय विधान न कहा जाए तो क्या कहा जाए ?

तबसे स्वामी भैरवानंद सरस्वती उसी स्थान पर विराजमान हैं ! पूर्व में आरएसएस के स्वयंसेवक तो थे ही, वहां भी कुछ समविचारी लोग मिल गए ! उनके व विद्यालय के बच्चों की मदद से उस स्थान को और अधिक सुरम्य बना दिया गया ! साफ़ सफाई कर फुलवारी लगाई गई, आसपास के तीन जलाशय कुंडों में से दो को ज्यादा गंदे होने के कारण बंद कर दिया गया, किन्तु एक को स्वच्छ किया गया, कुटिया को भी व्यवस्थित किया गया ! शिवपुरी के अनेकों लोग वहां की यात्रा कर चुके हैं !

ध्यान और समाधि के आनंद का वर्णन भी भैरवानंद जी ने अपनी चर्चा में किया ! साथ ही ईश्वरीय चमत्कार की गाथाओं का भी ! एक बार मणि महेश की यात्रा से लौटते समय बन्दरघाटी नामक स्थान पर इनका पैर फिसल गया और ये सैंकड़ों फीट गहरी वर्फीली खाई में फिसलते हुए नीचे जाने लगे ! मन ही मन ओंकार का जाप करते हुए, आँख बंद कर इन्होने स्वयं को ईश समर्पित कर दिया ! मान लिया कि अब अंतिम समय आ गया है ! किन्तु अचानक मानो चमत्कार हो गया ! वर्फ के उस ग्लेशियर में न जाने कहाँ से एक पत्थर मार्ग में आ गया जिस पर इनका पैर स्वयं जाकर टिक गया ! तीन घंटे बर्फ में रहने के बाद सेना के जवानों ने इन्हें वहां से बाहर निकाला ! ये जिन्दा बच गए यह अपने आप में एक चमत्कार है ! 

ऐसे ही एक बार सिर पर भारी पत्थर आ गिरा, इन्होने हवन कुंड की राख से सर पर पगड़ी जैसी बना ली, और कोई उपचार उस निर्जन स्थान पर संभव ही कहाँ था ! समय के साथ अपने आप राख झड़ती गई और उसके साथ ही घाव भी भरता गया !

एक बार सफाई करते समय बर्र के छत्ते से सर टकरा गया और बर्रों ने पूरे सिर को काटकाट कर सुजा दिया, पर बाबा का बिगड़ा कुछ नहीं ! बाद में भक्तों ने सिर में से चुनचुनकर लगभग ढाई सौ डंक निकाले ! सोचकर ही सिहरन होती है !

तो यह है भैरवानंद जी की गाथा ! कौन जाने कितने भैरवानंद भारत भूमि पर विचरण कर रहे हैं, और पाखंडी डुप्लीकेट साधुओं की जमात भी कम नहीं हैं ! कोई सत्य सोधन के लिए संन्यास लेता है, तो कोई धर्मप्राण जनता के शोषण के लिए ! अन्धकार और प्रकाश दोनों ही मानव जीवन के अविभाज्य अंग हैं ! सन्यासी भी समाज के ही घटक हैं, जैसा समाज, बैसे ही वे भी ! हाँ इतना तो तय है, ईश्वर की अनुभूति केवल सद्प्रव्रत्ति वालों को ही होती है ! यही कारण है कि दुष्प्रवृत्ति के लोग अधिकांशतः नास्तिक या पाखंडी होते हैं !

भैरवानंद जी ने साधू की जो परिभाषा बताई वह भी अद्भुत है व नारी के वन्दनीय जगज्जननी स्वरुप को प्रतिबिंबित करती है ! उनके अनुसार - क्षमा, धैर्य, शालीनता, मर्यादा, अतिथि सत्कार जैसे स्त्रियोचित गुणों को साधू का लक्षण माना जाता है ! जिस पुरुष में ये गुण आ जाते हैं उसे साधू कहा जाता है !