जैन धर्मोस्तु मंगलम !



जैन दर्शन पर एक आलेख कुछ दिन पूर्व प्रकाशित किया था, जिसमें जैन दर्शन से सम्बंधित चार बिंदु थे ! उक्त आलेख में यह स्पष्ट किया गया था कि जैन क्या नहीं मानते ! आज उन चार बिन्दुओं के आगे के बिंदु प्रकाशित किये जा रहे हैं -
5. संसार माया है
जैन दर्शन के अनुसार यह ब्रह्माण्ड जो हमारी नज़रों के सामने है, कोई भ्रम नहीं, बल्कि यथार्थ है! ब्रह्मांड सदैव अस्तित्व में रहा है और हमेशा मौजूद रहेगा। यह ब्रह्मांडीय कानूनों द्वारा विनियमित और अपनी ही ऊर्जा प्रक्रियाओं द्वारा संचालित हो रहा है।
जैन मान्यता है कि सभी छह तत्व (द्रव्य) स्थायी है; ब्रह्मांड में न तो कभी कुछ नष्ट किया जा सकता है, ना ही निर्मित किया जा सकता है । हाँ अपनी विशेषताओं (गुण) के अनुरूप द्रव्य में परिवर्तन या संशोधन (पर्याय) संभव है, जैसे कि स्वर्ण एक द्रव्य है, किन्तु उससे चूड़ी या आभूषण निर्मित हो सकते हैं ।
जैन धर्म यह नहीं मानता कि कुछ भी मौजूद नहीं है। यह हमारी समझ को विकसित करता है कि चीजें कैसे मौजूद हैं । यह सिखाता है कि प्राणिमात्र और घटित होने वाली घटनाओं का आंतरिक अस्तित्व भी है और नश्वर अस्तित्व भी । इस प्रकार यह संसार माया नहीं है, अपितु सत और असत के प्रति हमारा अज्ञान ही हमारे भ्रम का कारण बनता है। अपरिवर्तनीय शाश्वत सत्य की पहचान ही संसार से मुक्ति है।
6. कर्म ही बाध्यकारी हैं, वे ही भाग्य है
जैन मत में कर्म द्रव्य के सबसे छोटे कण है, जो व्यक्ति के कार्य और उसकी नीयत पर निर्भर करते हैं, आत्मा कर्म के कणों को आकर्षित करती है - कर्मण वग्रगणा । वे आत्मा पर उसी प्रकार प्रभाव डालते हैं, जैसे तेल युक्त शरीर पर धूल कण । ये कर्मण कण, मुख्यतः कर्म के 8 मुख्य रूपों में विभाजित है और आत्मा की अन्तर्निहित अनंत शक्तियों में बाधा डालते हैं (जैसे अनंत ज्ञान, धारणा आदि), उसके अस्तित्व को प्रभावित करते हैं ।
जैन मान्यता के अनुसार कर्म बैसे ही सहज, सामान्य है जैसे कि गुरुत्वाकर्षण । यह निर्जीव है, इसी प्रकार कोई अनदेखा न्यायाधीश भी नहीं है, जो कर्म के तार से खींचकर अपराधियों को दंडित करे । यह ऊपर जाने और नीचे आने जैसा है, जो आप करते हो, वही आपके साथ होता है।
जहाँ तक कर्मबंधन का प्रश्न है, तो आत्मा एक 'शरीर' की बंदी है और उसे अनंत जन्म और पुनर्जन्म भोगने पड़ते हैं । मोह और अज्ञानता तेल के समान हैं, जिस दिन आत्मा इनसे मुक्त हो जाती है, पूरी दुनिया में मौजूद इन कणों में उसे कोई आकर्षण नहीं रहता । कर्म हमें बांधते हैं, लेकिन कर्मों को कौन बांधता है?
अतः कर्म का शब्दार्थ भाग्य नहीं किया जा सकता । यह वह है जिसे हम अपने विचारों, शब्दों और कर्मों द्वारा प्रतिक्षण कर रहे हैं । एक जैन इसे जानता है, अतः वह कर्म को कार्य की तरह देखता है, परिणाम की तरह नहीं । वह जानता है कि भविष्य कोई पत्थर पर लिखी इबारत नहीं है, वह अपनी जीवन धारा को अपनी इच्छाशक्ति से बदल सकता है, अथवा आत्म विनाशक लक्ष्य भी निर्धारित कर सकता है ।
7. जो भी होता है, अच्छे के लिए होता है
'सकारात्मक विचारकों' की लहर से प्रभावित हम भी यह कह देते हैं, लेकिन जैन मान्यता है कि - होता वही है, जो होना चाहिए ।
सकारात्मक सोच अच्छी बात है, लेकिन उसके परिणाम स्वरुप मोह उत्पन्न होता है और उसके बाद पसंदगी और नापसंदगी । उदाहरण के लिए मान लीजिये मैं एक बड़े मकान में रहता हूँ, बहुत प्रसिद्ध भी हो जाऊंगा, अरबपति बन जाऊँगा, लेकिन विचारक 'गुरु' उपदेश देते हैं कि ये सब बातें जीवन को प्रभावित करेंगी । और अगर अपर्याप्त पुण्य के कारण ऐसा नहीं होता है, तो व्यक्ति पहले की तुलना में और भी अधिक दुखी हो जाएगा! जैन जानता है कि वह केवल अभिनय करने के लिए जिम्मेदार है और उसे परिणाम के बारे में विचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह उसके नियंत्रण में नहीं है।
8. जीवन न्यायोचित नहीं है
जो कर्म सिद्धांत या कार्य कारण सिध्दांत के कानून को समझता है, वह जानता है कि जो कुछ भी होता है, वह सार्वभौमिक न्याय के अनुकूल होता है । व्यक्ति के जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल जो भी परिस्थितियों सामने आती हैं, वे हमारे कर्मों के हिसाब से निर्मित होती हैं । हम केवल वही प्राप्त करते हैं या सहन करते हैं, जो हमने पूर्व में ही सुनिश्चित कर दिया है । अब जो कुछ हो रहा है, वह पूर्णतः न्याय संगत है।
9. शकुन अपशकुन में विश्वास
हम बिना विचारे अंधविश्वास, भाग्यशाली वस्तु, चिन्हों और भविष्यवाणियों में विश्वास जताते हैं । हम लकड़ी का स्पर्श करते हैं, लॉटरी टिकट खरीदते हैं, भाग्यशाली मानकर चिन्हों को घर में लटकाते हैं और आशीर्वाद के लिए न जाने किस किसके पास जाकर उनसे गंडे ताबीज बनवाते हैं, यह सूची सूची अंतहीन है।
जबकि जैन धर्म में आस्था रखने वाले तो कार्य कारण सिद्धांत के कानून में विश्वास रखते है; वह कर्मों में विश्वास करते है और एक तर्कसंगत तरीके से अपने स्वयं के प्रयास से अपने स्वयं के कर्मों का परिणाम चाहते हैं।
उनका पूर्ण विश्वास है कि यदि हमने अतीत या वर्तमान में कोई बुरे कर्म किये हैं तो किसी भी तरीके से उसके दुष्परिणाम से बचना संभव नहीं है। यहाँ तक कि “जिन” को भी अपने कर्मों का फल सहना पड़ा। हाँ यह भी सुनिश्चित है कि अच्छे कर्म से निश्चित रूप से अनुकूल फल प्राप्त होंगे ही, कोई भी उसमें बाधा नहीं डाल सकता और ना ही उन्हें प्रभावित कर सकता ।
अतः अंधविश्वासों में लिप्त होना केवल अज्ञान और भय से उपजता है। वास्तविक तत्व में विश्वास करने वाला एक जैन जीवन में निडर और परिस्थितियों से अप्रभावित रहता है ।
10 जब तक जियो, सुख से जियो
जैन धर्म में प्राथमिक लक्ष्य सच्चे सुख की प्राप्ति है। लेकिन समस्या यह है कि जैन धर्म के अनुसार, ब्रह्मांड में कुछ भी ऐसा नहीं है जो ऐसी खुशी दे सके ! जैन चिंतन में खुशी के दो अलग अलग साधन हैं – एक है श्रेय; जिसके द्वारा स्थायी खुशी को प्राप्त किया जा सकता है (निर्वाण) ! और दूसरा है प्रेय; जिसका अर्थ है भौतिक आनंद हासिल करना ! हमें हमारे संबंधों, धन-संपत्ति, सत्ता-शोहरत, आदि से 'खुशी' मिलती है, 'सुख' मिलता है ! इनमें से पहली स्थायी और स्वतंत्र है, जबकि दूसरी अस्थायी और चीजों, घटनाओं या अन्य प्राणियों पर निर्भर है ।
एक जैन इस अंतर को जानता है, और वह जीवन के सांसारिक सुखों का आनंद लेते हुए भी, ऐसे कार्यों से बचता है, जो उसके अथवा दूसरों के लिए हानिकारक हैं, जैसे कि हत्या, चोरी, व्यभिचार, झूठ बोलना, और मादक द्रव्यों का सेवन आदि ।
जैन समझता है कि न केवल इस प्रकार के भौतिक सुख का उपभोग, बल्कि उनकी कामना भी उसकी आत्मा को प्रथ्वी से बांधती हैं । अतः जब इन सुखों की इच्छा भी जीवन को नियंत्रित करती है, तो स्वाभाविक ही इच्छाओं को नष्ट करना होगा ।
11. “जिन” से प्रार्थना करो, आपकी प्रार्थना का उत्तर मिलेगा
जितने भी”जिन” हुए हैं, वे सभी वीतरागी हैं, लगाव और घृणा से मुक्त, पूर्ण धैर्य और आनंद में रहने वाले । उनकी न तो कोई इच्छा है और न ही वे इच्छापूर्ति के माध्यम हैं । वे न तो आपका पक्ष लेंगे ना ही कोई वरदान देंगे ! जिन्होंने अपने त्याग से मुक्ति प्राप्त कर ली है, उनका आशीर्वाद ही क्या हमारे लिए परम संतोष का कारण नहीं होना चाहिए?
एक जैन जानता है कि किसी आशा अपेक्षा के साथ “जिन” की प्रार्थना करना व्यर्थ है ।
इसके स्थान पर वह स्वाध्याय, सत्संग और ध्यान की मदद से, वास्तविक तत्व को जानने और आत्म साक्षात्कार का अनुभव का प्रयत्न करता है । और जब वह प्रार्थना करता है, तब उसकी एक ही कामना होती है कि वह “जिन” की राह पर चलते हुए स्वयं भी सिद्ध आत्मा बन उनके पास निवास करने पहुंचे ।
12. मुक्ति पाने के लिए उसके समक्ष आत्मसमर्पण करना होगा
जैन चिंतन में कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर नहीं माना गया जिसकी आज्ञा मानी जाए, या जिससे भयभीत हुआ जाए । कोई फ़रिश्ता नही, कोई परमात्मा का दूत नहीं । इसलिए वह उसकी नियति को नियंत्रित करने वाले किसी उच्च अलौकिक शक्ति को नहीं मानता, जो उसे मनमाने ढंग से पुरस्कार या सज़ा दे ।
जैन धर्म अपने अनुयायियों से अंधविश्वास की अपेक्षा नहीं करता। एक जैन जब “जिन” की शरण चाहता है, तब भी वह किसी प्रकार का आत्म-समर्पण नहीं करता । ना ही वह अपने विचार स्वातंत्र्य का बलिदान कर एक मस्तिष्क हीन अनुयायी बनता है । जैन जानता है कि वह सतत अभ्यास से अपने ज्ञान को विकसित कर स्वयं भी “जिन” बन सकता है ।
उस पथ के प्रारम्भिक बिंदु है सही तर्क या समझ, या सम्यक दृष्टि । यहां मात्र विश्वास ही सिंहासन पर आरूढ़ होता है, वह भी ज्ञान के आधार पर पूर्ण आत्मविश्वास से; यही है श्रद्धा।
“जिन” पर अनुयायी का विश्वास बैसा ही होता है, जैसा कि किसी प्रख्यात चिकित्सक पर एक बीमार व्यक्ति का, या अपने शिक्षक पर एक छात्र का । वह अपने शिक्षक के शब्दों पर शक नहीं करता, क्योंकि वह अपनी सीमित को जानता है। वह सुनता है, याद करता है, सवाल पूछकर समझता है, चिंतन करता है और जो समझा है, उसे बार बार दोहराता है । वह “जिन” की शरण चाहता है, ताकि उसे उद्धार के मार्ग का पता चले।
13. गर्व से कहो हम जैन हैं
हाँ! जैन यह कभी नहीं कहते ! जैन, आध्यात्मिक विजेता “जिन” के अनुयायी हैं, जो अपने सभी संबंधों से ऊपर उठ चुके हैं, न किसी से प्यार, ना किसी से घृणा, जो पूर्ण समभाव में स्थित हैं ।
एक जैन लिए वीतराग की शुद्ध स्थिति ही उसकी सभी आध्यात्मिक गतिविधियों का लक्ष्य है। बुद्धिमान हमें बताते हैं कि जैसा बीज होगा, बैसा ही फल मिलेगा। यदि धैर्य की यह भावना ही अंतिम लक्ष्य है, तो एक जैन की यात्रा का प्रारम्भ भी 'सम-भाव' के साथ ही होना चाहिए – किसी के भी प्रति कोई सकारात्मक या नकारात्मक भावना नहीं, कोई भेदभाव नहीं, कोई सीमा नहीं, कोई मतभेद नहीं।
जैन वह जो बुद्धिमान हो, जागरूक हो, आत्मसाक्षात्कार की राह पर चलने वाला हो । जैन को जन्म, भौगोलिक सीमाओं, धार्मिक अनुष्ठान, विशिष्ट ड्रेस कोड या यहां तक ​​कि आचरण के समान कोड द्वारा भी परिभाषित नहीं किया जा सकता । जैन वह जो जीवन के सिद्धांत को मानता हो । अपने सीमित ज्ञान की परिधि में हम यह भेद नहीं कर सकते कि कौन जैन है और कौन नहीं ।
जैन चिंतन में जैन पहचान की कोई स्पष्ट व्याख्या भी नहीं है कि कहा जा सके - "मैं एक जैन हूँ और यह मेरा विश्वास है।" यह तो करुणा, प्यार और दया उपजाने वाला और हमारे जीवन से क्रोध और घृणा को मिटाने वाला चिंतन है । इसलिए जोरशोर से यह प्रचारित करना कि मैं एक जैन हूँ, व्यर्थ है, क्योंकि यदि हम हैं, तो वह हमारे आचरण और व्यवहार में दिखाई देगा । ऐसा कहने से तो केवल हमारा अहंकार बढेगा और सीमायें और दीवारें बनेंगी । यह हमारे उद्देश्य के विपरीत है!
जैन मानता है कि भले ही उसके शब्द सत्य हों किन्तु अगर उनसे किसी का दिल दुखे तो बेहतर हैं, न बोला जाए ! जैन तो सबको गले लगाने वाली दयालु आत्मा है। 

पूर्व का आलेख - 

कुछ बातें जिन्हें एक जैन को कभी नहीं कहना चाहिए 


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