घर का जोगी जोगड़ा - डा. राधेश्याम द्विवेदी

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खत्म होते होते बची कांग्रेस:- 1967 में लोक नायक राम मनोहर लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के नारे के परिणाम स्वरूप कई प्रदेशों में संयुक्त सरक...

खत्म होते होते बची कांग्रेस:- 1967 में लोक नायक राम मनोहर लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के नारे के परिणाम स्वरूप कई प्रदेशों में संयुक्त सरकारें बनीं. बाद में कांग्रेस के भी इंडिकेट-सिंडिकेट में दो टुकड़े हो गए. मगर अपने अपूर्व साहस, कल्पनाशीलता और समाजवादी आग्रहों से इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस को फिर से नयी जान भरना शुरू कर दिया था. इन्दिरा गांधी ने अपने समय में प्रादेशिक छत्रपों को कभी उभरने नहीं दिया गया था और सत्ता को काफी हद तक केन्द्रीकृत कर रखा था. धीरे-धीरे कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार की विरासत बन गई.नेहरू-गांधी परिवार का नेतृत्व ही वह आंचल साबित हुआ जो कांग्रेसियों को आपस में जोड़कर रखता रहा है. राजीव गांधी के जमाने तक यह पैटर्न करीब-करीब विना किसी अवरोध के चलती रही थी . प्रधानमंत्री नरसिंह राव को सीधा सादा तथा विश्वस्त मानकर 10, जनपथ ने उन्हें देश की सत्ता सौंपी थी, मगर वे उस्तादों के भी उस्ताद निकले. अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी के संयुक्त नेतृत्व में कांग्रेस फिर से टूट गई. आगे चलकर नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व में वह फिर एक बार एकजुट हो गई. अटल बिहारी वाजपेयी के एनडीए सरकार के सामान्य मगर अच्छे शासन के बावजूद उसे 2004 में दोबारा जनादेश प्राप्त नहीं हुआ था और सोनिया गांधी ने लगभग रिमोट कंट्रोल से 10 सालों तक मनमोहन सिंहजी की सरकार चलवाई थी. इसे कांग्रेस का गुण कहें या अवगुण, उसे बांधकर रखने वाली रस्सी नेहरू-गांधी परिवार ही है. यह रस्सी आजादी के संघर्ष में नेहरू परिवार के अपूर्व योगदान, नेहरू के भारत स्वपन, इन्दिरा गांधी के इस्पाती संकल्प और राजीव गांधी की कल्पनाशीलता का परिणाम है, जिसे सोनिया गांधी के तथाकथित त्याग ने किसी तरह एक जुट कर रखा था. यह भी कहा जाता है कि सोनिया जी को तत्कालीन भारतीय सेना अपना नेता मानने को तैयार ही नहीं था और यदि इसे नजरन्दाज किया गया होता तो भारत भी पाकिस्तान की तरह सौन्य प्रशासन जैसे अनुभवों से परिपूर्ण हो गया होता. वर्तमान कांग्रेस में राहुल गांधी इस मामले में कहीं नहीं ठहरते. दुर्भाग्य से उनका नेतृत्व कांग्रेस के लगातार क्षय का कारण बनता जा रहा है. इसी अवसान से निकल निकलकर आने वाले को भाजपा हीरा पाने जैसे स्वयं को इठला रही है। 

कांग्रेस अपने को संभालने में अक्षम :-कांग्रेस 2017 के विधान सभा के चुनाव में गोवा और मणिपुर में जीती बाजी हार गई जबकि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड मे उसका सूपड़ा ही साफ हो गया है. सिर्फ पंजाब और कर्नाटक को छोड़कर किस बड़े राज्य में उसका वजूद है? इसलिए कांग्रेस में तो और भी टूटू-फूट होनी है. लोग और भी हैं जो आने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी में शामिल होंगे और बीजेपी विशुद्ध चुनाव जीतने के उनके आसार के आधार पर उन्हें पार्टी में शामिल करती रहेगी. फिर कांग्रेसियों को अपने में शामिल करने को तत्पर बीजेपी चाल, चरित्र और चेहरे में अपने को दूसरों से अलग कैसे साबित करेगी? क्या बीजेपी अपने कांग्रेसीकरण को रोकने के लिए तैयार नहीं है? उसमें और कांग्रेस में उग्र हिन्दुत्व के अलावा नीतियों कार्यक्रमों और शैली में कहां अंतर है? मोदी और अमित शाह की जोड़ी का एक ही मंत्र है कि चाहे जो भी करो बीजेपी को एक ऐसी मशीन में तब्दील कर दो कि देश में और हर प्रदेश में उसी की सरकार बने. किसी भी पार्टी का कोई भी असन्तुष्ट हो, भ्रष्ट हो, आपराधिक छवि का हो, अगर चुनाव जितवा सकता हो तो उसे तत्काल पार्टी में शामिल कर लो. पार्टी के भीतर भी किसी को असहमति का अधिकार न हो और किसी भी नेता का कद या प्रभाव ऐसा न हो जो आगे चलकर चुनौती बन जाए. इन्हीं दुर्गुणों के कारण कांग्रेस का यह हश्र हुआ और ये ही दुर्गुण दूसरों से अलग और विशिष्ट होने का दावा करने वाली बीजेपी मे घर करती जा रही हैं. 

भाजपा में कैसा अजब अन्तर्विरोध :- एक तरफ अब तक के सबसे कद्दावर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व तथा सबसे कद्दावर रणनीतिकार पार्टी अध्यक्ष माननीय अमित जी शाह के प्रयास से पूरे भारत में भाजपा की सरकारें बनने की सिलसिला चल रहा है. कहीं अपने बल से कहीं समर्थन से. कहीं प्रलोभन से तो कही कूटनीति व चातुर्य से. कांग्रेस, सपा, वाम तथा बसपा मुक्त भारत अभियान को गति दिया जा रहा है. वहीं दूसरी ओर उन मुक्त लोगों में से चुन चुन कर एक एक को भाजपा में महिमामंडित भी किया जा रहा है। इसमें यह भी नहीं देखा जा रहा है कि कौन कितना उपयोगी है या कौन कितना स्थायी है। आज हवा अनुकूल है तो सब खिंचे चले आ रहे हैं जब थोड़ा प्रतिकूल होगा तो वे सभी दूर जा छितरा जायेगे. इस भारतीय जनता पार्टी ने भाजपा के स्तम्भ पुरुष माननीय लाल कृष्ण अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा जैसे अपने सबसे बुजुर्ग नेताओं को मार्ग दर्शक मंडल में भेजकर निष्प्रभावी बना दिया है.दूसरी तरफ एन. डी. तिवारी और एस. एम. कृष्णा जैसे अति बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं के राजनीतिक अनुभव और वरिष्ठता का आदर करने के आश्वासन के साथ पार्टी में शामिल किया जा रहा है. किसी किसी पुराने कार्यकर्ता या पदाधिकारी को महामहिम जैसे पदों पर भी भेजा जा रहा है पर उसके भी कुछ निहितार्थ देखकर ही किया जा रहा है. आज तो मार्केटिंग का जमाना है जिसका अच्छा प्रजेन्टेशन होगा वह शिखर पर रहेगा ही.

एस. एम. कृष्णा की प्रासंगिकता:- वर्तमान में भाजपा को ज्वाइन करनेवाले कर्नाटक के पर्व मुख्य मंत्री एस एम कृष्णा की प्रासंगिकता क्या है? यह एक विचारणीय प्रश्न है. उनकी राजनीतिक छवि काफी हद तक साफ-सुथरी है. वे वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं जिसकी कर्नाटक में आबादी करीब 13 प्रतिशत है. अगले साल कर्नाटक विधानसभा के चुनाव होने है और 2013 में कर्नाटक की सत्ता खोने वाली भाजपा 2018 में उसे वापस हथियाना चाहती है. दिक्कत यह है कि बीजेपी के पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा की भ्रष्टाचार के आरोपों से बरी होने के बाद पार्टी में फिर से पैठ तो जरूर हो गई है. लेकिन लिंगायत समुदाय के भारी समर्थन के बावजूद चुनाव जीतने के लिए उसे दूसरे प्रभावशाली समुदाय बोक्कालिगा के समर्थन की भी सख्त जरूरत है. इस समर्थन को दिलाने की कोशिश के बदले एस एम कृष्णा को क्या हासिल होगा, यह तो समय ही बताएगा. पर इतना तो साफ है कि जिस कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री, गवर्नर और विदेश मंत्री जैसे पद दिए, उसमें उनकी कोई पूछ नहीं रह गई थी. सक्रिय राजनीति ऐसी चीज है जो मुर्दे के मुँह में भी जान डाल देती है. यही कारण है कि जहां करीब 84 वर्षीय एस एम कृष्णा के पार्टी में शामिल होने पर बीजेपी अपने मनोबल बढ़ाने का दावा कर रही है, वहीं एस एम कृष्णा को लग रहा होगा कि अभी मैं खत्म नहीं हुआ हूं मरे हाथी लाखों की कहावत को चरितार्थ कर सकते हैं.और यह भी हो सकता है कि कोई सिम-सिम दरवाजा उनके लिए खुल जाए.उधर कांग्रेस इतनी बार बिखरी और टूटी है कि उसका होना ही अपने आप में किसी आश्चर्य से कम नहीं है.उत्तराखण्ड के हरीश रावत सरकार के कई वरिष्ठ मंत्रियों सतपालजी , बहुगुणा जी तथा अन्यानेक भी थोक के भाव से पाला बदल कर बीजेपी में शामिल किये गये हैं. उत्तर प्रदेश में रीता बहुगुणा जैसे शीर्षस्थ नेता यहां भले ही उपयोगी ना हों पर वे अपना वजूद तो बचा ही लीे हैं.इसी प्रकार शीला दीक्षित कभी भी भाजपा में आ सकती हैं बहुतों का वहां दम घुट रहा वे खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं.

जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं की बेकदरी:- इस आपाधापी में भाजपा का पुराना कार्यकर्ता जिसने दरी बिछाई है. घर घर सम्पर्क किया हैं. अपने घरों से भोजन के पैकट बनवा बनवाकर पार्टी को जीवित रखा है. चाय से चैपाल तक अटल और अडवानी के कसीदे पढ़े हैं. आज उनका वजूद खत्म होता दिख रहा क्योंकि वे तो इस पार्टी के जड़ से जुड़ हुए लोग हैं. उन्हें अन्य़त्र वातावरण ही सूट नहीं करेगा. वह मर जाएगें पर विचारधारा को नहीं बदल पायेंगे. इसका लाभ ये वाहर से आने वाले रंग विरंगी मछली व तितलियां खूब उठा रहें हैं। आज भाजपा के कब्जेदार इन आगंतुकों के मेजबानी में ही लगे हुए हैं। लोक जीवन में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि ‘घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध’. जोगी जी अपनी धूनी जमाते जमाते ऊपर चले जायेगें और आयातित पैराशूटर अपना जलवा विखेरने को स्वतंत्र होंगे.

डा.राधेश्याम द्विवेदी
लेखक परिचय - डा.राधेश्याम द्विवेदी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी.. और बी.एड. की डिग्री,गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.. (हिन्दी),एल.एल.बी., सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य तथा ग्रंथालय विज्ञान की डिग्री तथा विद्यावारिधि की (पी.एच.डी) की डिग्री उपार्जित किया। आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम..डिग्री तथा’’बस्ती का पुरातत्व’’ विषय पर दूसरी पी.एच.डी.उपार्जित किया। बस्तीजयमानवसाप्ताहिक का संवाददाता, ’ग्रामदूतदैनिक साप्ताहिक में नियमित लेखन, राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, बस्ती से प्रकाशित होने वाले  ‘अगौना संदेशके तथानवसृजनत्रयमासिक का प्रकाशन संपादन भी किया। सम्प्रति 2014 से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण आगरा मण्डल आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्यरत हैं। प्रकाशित कृतिःइन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू डायरेक्टर जनरल आफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, न्यू डेलही। अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं।

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