विज्ञान ने किया आर्यों को आक्रमणकारी बताने वाले झूठ का पर्दाफाश - ए.एल. चावडा

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लेखक परिचय - ए. एल. चावडा एक जानेमाने सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी हैं जिनके शोध का विषय रहते हैं – डार्क मेटर, डार्क इनर्जी, ब्लैक होल...



लेखक परिचय - ए. एल. चावडा एक जानेमाने सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी हैं जिनके शोध का विषय रहते हैं – डार्क मेटर, डार्क इनर्जी, ब्लैक होल फिजिक्स, क्वांटम ग्रेविटी और ब्रह्मांड के प्रारंभ की भौतिकी ।

1 9वीं शताब्दी के औपनिवेशिक काल में व्यापक पैमाने पर प्रचारित किया गया कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं, बल्कि आक्रमणकारी थे | लेकिन आज 21 वीं सदी में विज्ञान ने इस मिथ्याचार का पर्दाफास कर दिया है |

अंग्रेजों के काल में भारत के सम्पूर्ण इतिहास लेखन का आधार ही था यह आर्य आक्रमण सिद्धांत | इस सिद्धांत में तीन बातें प्रमुखता से कही गईं -

1 भारत के मूल निवासी सांवले द्रविड़ थे, जिन्होंने पश्चिमी भारत में एक शांतिपूर्ण, उच्च विकसित, और लगभग आधुनिक शहरी सभ्यता विकसित की थी | प्रमाण स्वरुप हड़प्पा या सिंधु घाटी सभ्यता को बताया गया, जिसके कथित भग्नावशेष वर्तमान में पाकिस्तान में हैं । 

2 ईसा से 1500 वर्ष पूर्व पश्चिम से आये गोरी चमड़ी वाले खानाबदोश लोगों ने भारत के मूल द्रविड़ निवासियों पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया | यूरोपियन मूल के ये इंडो आर्यन लोग वैदिक संस्कृत बोलते थे | इन लोगों ने मूल द्रविड़ सभ्यता को नष्ट कर उन्हें भारत के दक्षिण में धकेल दिया ।

3 इसके बाद इन भारतीय-आर्यों ने वेदों का निर्माण किया, और पहले हिंदुत्व और फिर जाति व्यवस्था को निरीह द्रविड़ और भारत के अन्य मूल निवासियों पर थोपा ।

सबसे पहले 1 9वीं शताब्दी में मैक्स म्युलर ने इस आर्य आक्रमण सिद्धांत को दुनिया के सामने रखा, तब स अब तक इसे स्वपुष्ट माना जाता रहा है, हालांकि 20 वीं शताब्दी के अंत आते आते इसे इंडो-आर्यन प्रवासन सिद्धांत (आईएएमटी) कहा जाने लगा । इस नई धारणा के अनुसार इंडो-आर्यन ने भारत पर आक्रमण नहीं किया, बल्कि वे प्रवासी के रूप में यहाँ आकर बसे | यह अलग बात है कि स्वदेशी लोगों पर इसका वही असर बताया गया, जो पूर्व के आक्रमण सिद्धांत में घोषित किया गया था | अर्थात मूल भारतवासी इन बाहरी आर्यों के अधीन हो गए और इस प्रकार कथित रूप से भारत में आर्य धर्म / हिंदू संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ |

विरोधी मत: आर्य विदेशी नहीं स्वदेशी 

स्वदेशी आर्य सिद्धांत Indigenous Aryans theory (आईएटी) और आउट ऑफ इंडिया थ्योरी (ओआईटी) ने पूर्व घोषित दोनों सिद्धांतों को नकारते हुए यह मान्यता सामने रखी कि इंडो-आर्यन लोग और उनकी भाषा भारतीय उपमहाद्वीप में ही उत्पन्न हुई थी और सिंधु घाटी सभ्यता (सिंधु-सरस्वती सभ्यता) वैदिक सभ्यता थी, न कि द्रविड़ सभ्यता, जैसा कि एआईटी में दावा किया गया था।

इस सिद्धांत के समर्थकों ने सभ्यतागत और सांस्कृतिक निरंतरता के पुरातात्विक सबूत, और पुराणों, महाभारत और रामायण जैसे भारतीय साहित्यिक स्रोतों का हवाला दिया - जिसमें राजाओं की विस्तृत वंशावली दर्शाई गई है जो हजारों साल पहले की है - और जिसे आधुनिक विद्वान पौराणिक गल्प मानकर अस्वीकार करते हैं |

भारतीय-आर्यों की उत्पत्ति का प्रश्न आज भारत में सर्वाधिक विवादास्पद और भावनात्मक मुद्दा बन गया है। जब इस प्रकार के दो विपरीत मत सामने हैं, तो फिर वैज्ञानिक जांच ही समाधान का एकमात्र तरीका है -

वैज्ञानिक पद्धति से शोध के लिए यह आवश्यक है कि शोधकर्ता पहले एक सिद्धांत को गंभीरता से लेकर उसकी प्रतिकृति परीक्षणों, प्रयोगों, वैज्ञानिक तकनीकों और उपलब्ध साक्ष्यों की व्यवस्थित और सतर्कता से जाँच करें, जब तक कि वह गलत साबित न हो जाए । विज्ञान को किसी कथा, विचारधारा, धारणा या आस्था से कोई मतलब नहीं है । विज्ञान तो केवल व्यावहारिक या मापने योग्य सबूत और सुस्पष्ट तथ्यों की रोशनी में ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा, फिर चाहे वह पूर्व की धारणा को पुष्ट करे या उसे खारिज कर किसी नए सिद्धांत को प्रतिपादित करे ।

हैरत की बात यह है कि भारत की इतिहास संबंधी पाठ्यपुस्तकें लगातार 1 9वीं शताब्दी की पुरानी और अवैज्ञानिक अवधारणाओं और विचारों को आज 21 वीं सदी में भी पढ़ना पढ़ाना जारी रखे हुए हैं, आधुनिक विश्व जिससे आगे जा चुका है ।

आबादी की आनुवांशिकी, तुलनात्मक आनुवांशिकी, आर्कीटेओ-आनुवंशिकी, जीनोमिक्स और जीनोटाइपिंग के अंतर्संबंध से विविध मानव आनुवांशिक प्रकृति की अज्ञात संरचना जानना संभव है। आज तेजी से यह प्रक्रिया विकसित हो रही हैं, जिससे आने वाले वर्षों और दशकों में हमारी समझ में क्रांति आयेगी और हम जान पायेंगे कि हमारी प्रजातियां कैसे विकसित हुई । आनुवंशिकी, साथ ही नई पुरातात्विक जांच में कुछ नए तथ्य भी सामने आये हैं ।

आखिर क्या हैं ये नये सबूत और नए तथ्य ? 

भारतीय सभ्यता कितनी पुरानी है ? इसका पुरातात्विक सबूत -



रेडियोकर्बन डेटिंग ने यह दर्शाया है कि फिलहाल गुप्त सरस्वती नदी के तट पर स्थित भिर्राना, ईसा से छः हजार वर्ष पूर्व (वर्तमान से 8,000 साल पूर्व) मौजूद था। एक और हालिया अध्ययन यह साबित करता है कि सरस्वती घाटी में स्थित भिर्राना और अन्य बस्तियाँ कम से कम 9,500 साल या शायद इससे भी अधिक पुरानी है [1]।

सरकार एट अल के अध्ययन में पाया गया कि सरस्वती वह शक्तिशाली नदी थी जिस पर भारतीय सभ्यता की प्रारम्भिक बस्तियों की स्थापना हुई थी। इसमें कहा गया है कि 5000 ईसा पूर्व के बाद मानसून में मोनोटोनिक रूप से गिरावट आई, जिससे धीरे-धीरे सरस्वती क्षीण होती गई, और अंततः 1,500 ईसा पूर्व के आसपास सूख गई। यह कहना सही नहीं है कि हड़प्पा सभ्यता अकस्मात समाप्त हुई, बल्कि वह भी मानसून की लगातार न्यूनता के कारण ही धीरे-धीरे कमजोर हुई | बड़े शहरों के स्थान पर उन्होंने छोटी बस्तियाँ बसाना प्रारम्भ किया और अंततः वे हिमालय की तलहटी, गंगा-यमुना के तटीय मैदान, गुजरात और राजस्थान की ओर फैल गए ।

उक्त निष्कर्ष तो महज सरस्वती नदी के एक शुष्क पाले-चैनल का अध्ययन करने से प्राप्त हुए, जबकि इस प्राचीन नदी के क्षेत्र में 500 से अधिक (या शायद इससे भी अधिक) ऐसी साइटें मौजूद हो सकती हैं। अधिक साइटों की जांच करने से सभ्यता की उम्र की बेहतर जानकारी मिलेगी और उससे संभवत: यह प्रदर्शित होगा कि यह बहुत प्राचीन है

सरकार एट अल के अध्ययन का उपयोग करके ऋग्वेद का कालखंड सुनिश्चित करना 

भारत के मूलभूत साहित्यिक ग्रन्थ ऋगवेद में सरस्वती का व्यापक पैमाने पर उल्लेख किया गया है। इसे "नदियों में सबसे बड़ी", "शानदार", "जोर से गर्जन करने वाली" और "बाढ़ की मां" के रूप में उल्लेखित किया गया है | इस सन्दर्भ से यह तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में यह एक मुख्य और शक्तिशाली नदी थी, न कि कमजोर।

आर्य आक्रमण सिद्धांत का दावा है कि ऋग्वेद की रचना कथित आर्यन आक्रमण / प्रवास के बाद लगभग 1500 ईसा पूर्व हुई, जबकि सरकार एट अल के शोध परिणामों के मुताबिक सरस्वती नदी के विलुप्त होने के पूर्व, अर्थात 5000 ईसा पूर्व, ऋग्वेद रचित हो चुके थे । इससे एआईटी के निष्कर्षों की वैधता पर गंभीर सवाल उठते हैं |

भारत की "मुख्यधारा" के इतिहासकारों ने ऋगवेद को पौराणिक कथा बताकर खारिज कर दिया, जो स्पष्टतः उनके पूर्वाग्रह और नादानी को प्रदर्शित करता है । यदि ऋगवेद पौराणिक कथा है, तो फिर हेरोडोट्स भी 'काल्पनिक और गलत इतिहास है, जिन्हें एक विश्वसनीय इतिहास के रूप में उद्धृत किया जाता है। यह दोहरे मानकों का उदहारण है। ऋग्वेद निश्चित रूप से हेरोडोटस के इतिहास से कम काल्पनिक है | इसके अलावा, यह एक अनमोल खजाना है जो हमें मानव सभ्यता की सबसे पुरातन साहित्यिक अंतर्दृष्टि की जानकारी देता है । अतः इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए |

पुरातत्व से प्रमाणित भारतीय सभ्यता की निरंतरता -

प्रसिद्ध पुरातत्वविद् प्रोफेसर बी. बी. लाल, ने लगभग पचास वर्ष तक शोध कार्य किया, तदुपरांत अपनी व्यापक पुरातात्विक खोजों और अनुसंधान के आधार पर एआईटी का खंडन किया। उन्होंने दावा किया कि आर्यों द्वारा आक्रमण किये जाने या युद्ध करने के कोई प्रमाण नहीं है, और आर्यन प्रवास का सिद्धांत भी एक मिथक है। उन्होंने आगे कहा कि "वैदिक" और "हड़प्पा" क्रमशः एक ही सभ्यता के साहित्यिक और भौतिक पहलू हैं।

अपनी पुस्तक “The Rigvedic People: Invaders? Immigrants? or Indigenous?” (ऋगवेद काल के लोग: आक्रमणकारी, आप्रवासी या स्वदेशी?), में प्रोफेसर लाल व्यापक पुरातात्विक सबूत प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि सिंधु-सरस्वती सभ्यता में प्रचलित कई परंपराएं आधुनिक भारत में भी विद्यमान हैं [2]। उनके अनुसार योग, शिव-लिंग-सह-योनि, विवाहित महिलाओं की मांग में सिंदूर का उपयोग, हरियाणा और राजस्थान में महिलाओं के बीच प्रचलित घुमावदार चूड़ियाँ, प्यासे कौए की लोक कथा, अभिवादन में नमस्ते का उपयोग, भगवान शिव के त्रिशूल और समकालीन हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति के कई अन्य पहलुओं की उत्पत्ति सिंधु-सरस्वती सभ्यता में हुई थी। इसी तरह के साक्ष्य मिशेल डेनिनो ने अपने महत्वपूर्ण शोध "द लॉस्ट रिवर: ऑन द ट्रेल ऑफ सरस्वती" में वर्णित किये हैं [3]।

स्पष्तः उक्त तथ्यों से इस सिद्धांत का खंडन होता है कि विदेशी आर्यों ने सिंधु-सरस्वती सभ्यता को नष्ट किया था और साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि आधुनिक भारत की हिंदू संस्कृति और सभ्यता उस प्राचीन सभ्यता की ही निरंतरता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध पुरातत्वविद् डॉ. वसंत शिंदे भी उक्त तथ्यों पर अपनी सहमति प्रदान करते हैं ।

आनुवंशिक सबूतों से आर्यन आक्रमण सिद्धांत ध्वस्त होता है -

आनुवांशिकी विज्ञान ने प्राचीन इतिहास के अध्ययन में क्रांति ला दी है और शोधकर्ताओं को मानवता के अतीत के विवरण को उजागर करने की अभूतपूर्व क्षमता प्रदान की है। भारत में आनुवंशिक अनुसंधान कार्य पिछड़ गया है, क्योंकि पुरानी सरकारों ने विदेशी शोधकर्ताओं को भारतीयों के आनुवंशिक नमूनों को एकत्रित करने पर प्रतिबन्ध लगाया हुआ था । देर से ही सही, अब यह प्रतिबंध हटा दिया गया है, और परिणामस्वरूप, भारतीय इतिहास की एक नई तस्वीर सामने आ रही है।

ध्यान देने योग्य शोधकार्य - 

Sengupta S. et al. Polarity and temporality of high-resolution Y-chromosome distributions in India identify both indigenous and exogenous expansions and reveal minor genetic influence of Central Asian pastoralists. Am J Hum Genet. 2006;78:202–21.

यह शोध पत्र पिछले 10,000 - 15,000 वर्षों के दौरान भारत में किसी भी महत्वपूर्ण बाहरी आनुवंशिक प्रभाव की अनुपस्थिति को दर्शाता है।

Underhill P. A. et al. Separating the post-Glacial coancestry of European and Asian Y chromosomes within haplogroup R1a. Eur J Hum Genet. 2010;18:479–84. doi: 10.1038/ejhg.2009.194.

इस शोध पत्र से यह स्पष्ट होता है कि कमसेकम मध्य-होलोसीन काल (7,000 से 5000 साल पहले) से भारत सहित, एशिया के किसी भी भाग में पूर्वी यूरोप से कोई महत्वपूर्ण पितृतीय जीन प्रवाह नहीं हुआ है।

Tamang R., Thangaraj K. Genomic view on the peopling of India. Investig. Genet., 3, 20. (2012).

इस शोध पत्र ने आर्यन आक्रमण / प्रवास की संभावना को खारिज कर दिया है और निष्कर्ष निकाला है कि भारतीय जनसंख्या आनुवंशिक रूप से अनूठी हैं, जिसमें अफ्रीका के बाद दूसरी उच्चतम आनुवंशिक विविधता हैं 

उक्त तीन शोध पत्रों ने आर्य आक्रमण सिद्धांत को पूर्णतः ध्वस्त कर दिया है । वे निर्णायक रूप से और अचूक तरीके से साबित करते हैं कि 1500 ईसा पूर्व के आसपास कोई आर्यन आक्रमण नहीं हुआ।

यह तो रहस्योद्घाटन की महज शुरुआत है !

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क्रांतिदूत : विज्ञान ने किया आर्यों को आक्रमणकारी बताने वाले झूठ का पर्दाफाश - ए.एल. चावडा
विज्ञान ने किया आर्यों को आक्रमणकारी बताने वाले झूठ का पर्दाफाश - ए.एल. चावडा
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