तीन तलाक का तमाशा, बनाम समान नागरिक संहिता के जुमले - देवेन्द्र शर्मा
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अभी तीन तलाक पर बड़ा तमाशा हुआ, जमकर मजमेबाज़ी हुई, बवंडर ऐसे उठाया गया जैसे मुस्लिम तलाक कानून में किरान्ति कर दी गयी। शाहबानो प्रकरण में जब मुस्लिम महिलाओं को भा०द०प्र० स० की धारा 125 के अंतर्गत खर्चे के अधिकार को संवैधानिक घोषित किया गया, तब शरियाई कानूनों के ऊपर संवैधानिक कानून की सर्वोच्चता स्थापित हुई। यह निर्णय भारत मे रहकर भी अरबी इस्लाम को स्वीकार करनेवाली महिलाओं पर तलाक के बाद की बदसुलूकी से बड़ी राहत थी।
शाहबानो के निर्णय ने न केवल भारत मे शरियाई कानूनों की भारतीय कानूनों पर सर्वोच्चता को नकारा ही, अपितु कठमुल्लावाद की मजहबी जड़ो को नंगा कर दिया था। 'एक देश एक कानून' का संवैधानिक लक्ष्य अनुच्छेद 44 में दिया गया है, यह बात ओर है कि अरबी इस्लाम के सामने आज तक की सभी सरकारें घुटने टेकती आयी है।
शाह बानो प्रकरण में भी तब की राजीव गांधी की सरकार ने भी मुस्लिम मुल्लाओं के आगे घुटने टेक दिए और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलट कर एक कानून ले आयी जिसे अब Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 के नाम से जाना गया। यद्यपि होना यह चाहिये था कि इस अवसर का सदुपयोग होता, पर जन्नतनशी राजीव खान गांधी भी मोटे तौर पर अन्य सेक्युलर राजनीतिज्ञों की तरह ही थे। जिन्होंने संविधान के उसी हिस्से को अपना धर्म माना जिससे मुसलमानो के मुल्लाओं को लाभ होता रहे, यही वोटों की राजनीति थी, जिसने संविधान के आधार पर राजनीति को हाशिये पर डाल दिया।
इस कानून ने न सिर्फ मुस्लिम महिलाओं को इस्लामिक वक्फ के 'रहमोकरम' पर छोड़ दिया अपितु उससे भी भयानक काम करते हुए संविधान के एक देश एक कानून के लक्ष्य को भी कसाई की तरह काट दिया। मुसलमानो की ईद मनवाई गयी, संसद ने शूरा की भूमिका निभाई।
यह बात और है कि सर्बोच्च न्यायालय ने फिर से, इस कानून के रहने के बाद भी इसमे रास्ते निकाल लिए और मुस्लिम ख़ातूनों को उनके शौहर से कुछ मदद दिलवाने के निर्णय दिए जाते रहे। इसमे जस्टिस अरिजित पसायत और डीके जैन साहब की ख्ंडपीठ का 2007 में इकबाल बानो का निर्णय महत्वपूर्ण है जिसमे डेनियल लतीफी को आधार बनाकर पुनः धारा 125 को फिर से मुस्लिम महिलाओं पर लागू करवाने का प्रयास किया गया। पर यहां भी राजनैतिक नेतृत्व गच्चा दे गया।
अभी भी जो नया कानून बनाया गया है, जिसे किरान्ति कहा जा रहा है, उसमे मात्र झटके को हराम, जिबह को हलाल कह दिया है, काटना गलत है वो तो इसमे भी नही कहा गया है!
फिर भी इसे इतना बड़ा बनाया जा रहा है, जिस मियाँ भाई को अपनी जिस बीवी को तलाक देना है, उसे वो मौके पर देने की बजाय अब वो तीन महीने में दे देगा, संकट 90 दिन बाद तो आएगा ही, यही न! इससे अधिक क्या मिला है?
सुरक्षा कैसे मिलेगी? मुस्लिम महिला को एकपक्षीय तलाक थोड़े न बन्द हुआ है, न ही न्यायपालिका को अधिकृत किया है तलाक देने की प्रक्रिया में!
तलाक देना न्यायोचित है या नही यह तय करने का अधिकार आज भी शौहर को ही है।
बस जो काम एक मिनट में हो जाता है वो अब 90 दिन में होगा। पहले झटके में काट देते थे अब 90 दिन में धीरे धीरे काटेंगे, बकरी को तो काटेंगे ही ये सुफी।
रही बात दण्ड प्रावधान की तो देखने की बात है, सर्वोच्च न्यायालय के तलाक बिद्दत को 22 अगस्त 2017 को असंवैधानिक घोषित किया।
इसकी घोषणा के बाद भी खुले आम इस निर्णय का मुल्लाओं ने फजीता किया, निंदा की, किसी एक पर भी मुक़दमा या कंटेम्प्ट नही हुआ। आज जब मुसलमानो पर बिजली बकाए पर बिजली नही कटती, बिजली चोरी के मुकदमे नही होते। खुले आम देशद्रोह पर साधारण मुचलके भी नही भरवाए जा पाते हैं, उसमें सरकार बहादुर किसी को गिरफ्तार करेगी, यह समझना भूल होगी।
हाँ किसी भी इस्लामिक तलाक को एक पक्षीय अधिकार की बजाय उसे न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से देने को ही कानून बनाया जाता तो फिर भी समझा जा सकता था कि कुछ हुआ है, अन्यथा यह तो ढाक के तीन पात हुआ।
अब एक परिस्थिति की कल्पना करें कि शौहर ने बीवी को तलाक़े बिद्दत दे दिया, जो अब जुर्म है। ऐसी परिस्थिति में बेगम पुलिस में जाती है, शौहर गिरफ्तार हो जाता लेकिन काजी मौलवी और उस शौहर के परिवार वाले उस तलाक को शरिया के अनुसार हलाल तामील मानते हुए उसके अधिकार छीन लें तो ऐसी स्थिति में उस सामाजिक शरियाई तौर पर तलाकशुदा और कानूनी रूप से शादीशुदा औरत का क्या होगा ? जो मुल्ला मौलवी इस कानून की को नही मानेंगे उनके लिए दण्ड के कोई भी प्रावधान नही है। न ही उस औरत के लिए कोई ठौर ठिकाना। तो कुल मिलाकर दो दिन में चले अढ़ाई कोस, वो भी बित्ते के चक्कर में।
और अब वास्तविक प्रश्न, और इस सबसे हिंदुओ को क्या लाभ? यह सरकार हिन्दू वोटों से चुनकर आयी है, इस पूरे प्रपन्च से हिंदुओ को क्या लाभ? क्या इस पूरे प्रपन्च से हिंदुओ की सामाजिक कानूनी श्रेष्ठता स्थापित हुई? क्या मुस्लिम महिलाओं को यह लगा कि हिन्दू महिलाओं की स्थिति के बराबर आने के लिए उन्हें अपने समाज से लड़ना प्राथमिकता बनाना चाहिए....
लोगबाग प्रसन्न हैं झटके की बजाय सबको तिल तिल मरने के लिए अपने शौहर के रहमोकरम पर निर्भर औरत को देखने मे मजा जो आता है।
सवाल उठता है - एक देश एक कानून के लक्ष्य का क्या हुआ ? क्या वर्षों से की जा रही, समान नागरिक संहिता की बात भी महज जुमलेबाजी थी ?
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व्यंग
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