मध्य भारत में मराठा बर्चस्व के प्रतिनिधि बने राणोजी सिंधिया |



हमने पिछले लेख "ग्वालियर किले का खूनी इतिहास" में पढ़ा कि किस प्रकार ग्वालियर किले वा आसपास के इलाके पर पहले राजपूत व बाद में मुस्लिम नियंत्रण रहा । यह स्थिति अठारहवी शताब्दी के शुरुआती दशकों तक रही, इसके बाद मुगल सल्तनत की ताकत घटती गई और अलग अलग इलाकों में उनके द्वारा नियुक्त जागीरदार और प्रशासक ही अपने अधीन इलाकों के स्वयं शासक बन बैठे । कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं बची |

ऐसी परिस्थिति में महाराष्ट्र में शिवाजी के वंशज शाहू जी महाराज द्वारा नियुक्त प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथ का उद्भव हुआ | कभी दिल्ली के नियंत्रण में रहे लगभग समूचे दक्षिण में उनकी चौथ बसूली चलने लगी | जो सरदार अपने कुल राजस्व का चौथाई भाग, चौथ के रूप में देने से आनाकानी करता, उसे मराठों के कहर का सामना करना पड़ता था | शायद इसीलिए अंग्रेजों ने उन्हें दस्यु करार दिया | बाद की घटनाओं की द्रष्टि से यह एक महत्वपूर्ण शुरूआत थी |

1720 में बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो गई और उनके १९ वर्षीय बेटे बाजी राव को शाहू जी ने नया पेशवा घोषित किया । उत्साही बाजीराव का लक्ष्य एकदम स्पष्ट था और वह था छत्रपति शिवाजी महाराज प्रणीत हिन्दू पदपादशाही को समूचे भारत में स्थापित करना | उनका स्वप्न था हिमालय पर भगवा ध्वज फहराना | और पदभार संभालते ही उन्होंने सतारा में हुई राज्यसभा की बैठक में अपनी यह कार्य योजना प्रस्तुत कर सबको हैरत में डाल दिया | शाहू जी महाराज की सहमति से पहले चरण के रूप में मध्यभारत विजय का संकल्प पारित हुआ | मुगल साम्राज्य के अधिग्रहण की दिशा में यह पहला कदम था।

और फिर 1724 आते आते बाजीराव नामक इस बबंडर ने समूचे मालवा को मराठा हाथों में ला दिया । इसी दौरान एक महत्वपूर्ण घटना घटी | बुंदेलखंड के प्रतापी राजा छत्रसाल वृद्ध हो चुके थे | तभी मोहम्मद खान बुंगश ने उन पर आक्रमण कर दिया और वे उसके खिलाफ बचाव की मुद्रा में आ गए | तब उन्होंने एक दोहे के रूप में बाजीराव के पास संदेश भेजा :

जो गति भई गजेंद्र की, वही गति हमरी आज।

बाजी जात बुंदेल की, बाजी रखियो लाज ॥

जब बाजीराव को यह संदेश प्राप्त हुआ तब वह अपना भोजन ग्रहण कर रहे थे। वह भोजन छोड़कर तुरंत उठ खड़े हुए और घोड़े पर सवार हो गए। यह देखकर उनकी पत्नी ने कहा कि कम-से-कम आप भोजन तो ग्रहण कर लें और तब जाएँ। तब उन्होंने अपनी पत्नी को उत्तर दिया – 

"अगर देरी करने से छत्रसाल हार गये तो इतिहास यही कहेगा कि बाजीराव खाना खाता रहा, इसलिए देर हो गयी।" उन्होंने सेना के भी साथ में आने की प्रतीक्षा नहीं की, केवल कुछ सैनिकों को साथ में लिया और निकल गए | यह निर्देश अवश्य दे गए कि जितनी जल्दी हो पूरी सेना पीछे से आ जाये। जल्दी ही बुंगश को हरा दिया गया और तब छत्रसाल ने खुश होकर मराठा प्रमुख को अपना पुत्र घोषित करते हुए, अपने राज्य का एक तिहाई हिस्सा प्रदान कर दिया।

पेशवा जब वापस पूना लौटे तब शाहू जी महाराज के प्रतिनिधि स्वरुप रानोजी सिंधिया, मल्हारराव होलकर और उदयजी पवार को मध्य क्षेत्र में नियुक्त करके गए – और इन तीनों युवाओं ने अपनी उपयोगिता साबित भी की व पेशवा की अपेक्षाओं पर खरे उतरे । यह पहला अवसर था, जब मराठाओं ने अपने साम्राज्य को महाराष्ट्र के बाहर विस्तार दिया था | 

अपने आधिपत्य के इलाकों से ये लोग चौथ और सरदेश मुखी बसूल करते थे | चौथ अर्थात राजस्व का छठवा हिस्सा, और सरदेशमुखी उससे भी दस प्रतिशत ऊपर । राजस्व का 65 प्रतिशत हिस्सा अपने लिए रखकर शेष मराठा साम्राज्य के लिए भेजा जाता था | मालवा के शस्य श्यामला क्षेत्र ने इन तीनों को अपार धन सम्पदा दी | यहाँ तक कि सिंधिया तो मोती वाले राजा कहलाने लगे | इसके बाद भी मुस्लिम शासन के आतंक से मुक्ति पाकर हिन्दू जन मानस प्रसन्न था व नवागत मराठा साम्राज्य के प्रति श्रद्धा भक्ति से नत था |

प्रथम सिंधिया

पेशवा द्वारा राजा शाहू के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त रानोजी सिंधिया मध्य भारत में सिंधिया घराने के संस्थापक थे । मराठों में क्षत्रियों के जो 96 कुल माने जाते हैं, उनमें से एक हैं सेन्द्रक, जिसका अपभ्रंश सिंधिया माना जाता है | दक्षिण के बहमनी राजाओं के समय इस परिवार के प्रभाव में वृद्धि हुई और इन्हें सतारा के नजदीक स्थित कान्हेरखेर नामक स्थान का पाटिल नियुक्त किया गया | सिंधियाओं के औरंगजेब की सेना में होने का भी उल्लेख मिलता है | इस परिवार की एक कन्या सविताबाई का विवाह शाहू जी से होने के बाद इनका प्रभाव और भी बढ़ गया था ।

जहाँ तक राणोजी का प्रश्न है, वे तत्कालीन पेशवा के पुत्र बाजीराव के बालसखा थे । बाद में पेशवा की सेना में भर्ती होकर उन्होंने अपने सैन्य गुणों का परिचय दिया और अच्छी तरक्की की - इतनी तरक्की कि युवावस्था में ही मालवा में शाहू जी के प्रतिनिधि बन गए । राणोजी ने अपना प्रारम्भिक मुख्यालय उज्जैन को बनाया और वहीँ से अपने हिस्से के मालवा को उत्कृष्टता पूर्वक नियंत्रित किया । यह युवा आरामतलब नहीं था, मालवा संभालते हुए भी जब जब केन्द्रीय सत्ता का आदेश मिला, उन्होंने दूर दराज तक जाकर युद्ध क्षेत्र में जाकर अपने शौर्य का प्रदर्शन किया | 1736 में दिल्ली के खिलाफ, 1738 में निजाम के खिलाफ और 1739 में पुर्तगालियों के खिलाफ हुए सैन्य अभियान में उन्होंने भाग लिया और अपनी गहरी छाप छोडी । 1745 में इस बहादुर सेना नायक का शुजालपुर में निधन हो गया | आज भी वहां उनका स्मारक विद्यमान है । 

ग्वालियर और सिंधिया राजवंश से सम्बंधित अन्य आलेख -

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें