मुग़ल बादशाह शाह आलम को आँखें फोड़ दिए जाने के बाद पुनः गद्दी पर बैठाने वाले - महान योद्धा महाद जी सिंधिया |



राणोजी के तीन पुत्र थे जयप्पा, दत्ता जी और महाद जी | राणोजी के देहांत के बाद सत्तासूत्र संभालने वाले जयप्पा सिंधिया ने अपनी राजधानी उज्जैन के स्थान पर ग्वालियर को बनाया | जयप्पा सिंधिया की मृत्यु बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से हुई | 

राजस्थान की जोधपुर रियासत के महाराजा बखत सिंह ने अपने बड़े बेटे राम सिंह को अपनी विरासत से बेदखल कर दिया था, अतः उनकी मृत्यु के बाद रियासत के सरदारों ने छोटे राजकुमार विजय सिंह को नया राजा चुना । किन्तु रियासत का बडे राजकुमार रामसिंह ने मराठों का समर्थन हासिल कर लिया । परिणाम स्वरुप तत्कालीन पेशवा रघुनाथ राव ने जयप्पा सिंधिया को राम सिंह का साथ देने मारवाड़ भेजा । मराठा सेना 9 महीने तक जोधपुर किले का घेराव किये रही, यहाँ तक कि किले में विजय सिंह की रसद खत्म होने लगी। ऐसे में विजय सिंह ने षडयंत्र रचा व स्नान करते समय 25 जुलाई 1755 को जयप्पा की धोखे से हत्या करवा दी | 

जयप्पा के पुत्र जनकोजी उस समय केवल १० वर्ष के थे, अतः जयप्पा जी के देहांत के बाद उनके छोटे भाई दत्ता जी ने कुछ समय के लिए शासन संभाला | किन्तु वे भी नजीब-उद-दौल्ला के खिलाफ लड़ाई में मारे गए ।

पानीपत का तीसरा युद्ध और महाद जी सिंधिया 

1761 का साल मराठों के लिए दुर्भाग्य पूर्ण साबित हुआ । पेशवा द्वारा नियुक्त सेनापतियों ने उत्तरी भारत में भारी सफलता अर्जित की थी और प्रभावशाली मुग़ल साम्राज्य उनके समक्ष पूरी तरह अस्त व्यस्त हो चुका था । उनकी इस प्रगति से पंजाब में अपने पैर जमा चुका आक्रान्ता अहमद शाह दुर्रानी चिढ़ा हुआ था । नतीजतन रोहिल्ला और औध के नवाब की सेनाओं को साथ लेकर अहमद शाह की सेना ने मराठों पर हमला कर दिया और पानीपत के निर्णायक युद्ध में मराठा बुरी तरह पराजित हुए । इस युद्ध में जयप्पा के पुत्र जनकोजी कैद कर लिये गए और बाद में मार दिए गए | मराठा शक्ति छिन्नभिन्न होने लगी ।

नई पीढ़ियों के स्वर्गवासी हो जाने के बाद राणोजी के सबसे छोटे पुत्र महादजी सिंधिया अब ग्वालियर के क्षत्रप बने तथा बहुत लंबे समय तक - 34 वर्ष शासन किया और अपने प्रभुत्व को मजबूत करने में वे सफल रहे । वे पानीपत की लड़ाई से घायल होने के बाद भी एक मुस्लिम मुहम्मद राणे खान की मदद से बच गए थे, जो पानी ढोने वाले अपने बैल पर, चमड़े की मशकों के बीच उन्हें बांध कर बचा लाया था । महादजी ने राणे खान के उपकार को आजीवन नहीं भुलाया | राणे खान के वंशज अभी भी सिंधिया घराने में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं ।

जिस समय मराठे पानीपत के युद्ध में व्यस्त थे, उचित अवसर मानकर ग्वालियर किले पर गोहद के जाट जागीरदार लोकेंद्र सिंह ने कब्जा जमा लिया था । 1769 आते आते महादजी ने ग्वालियर दुर्ग और उज्जैन सहित अपने आधिपत्य के मालवा पर पुनः प्रभुत्व हासिल कर लिया । 

इस आपदा से पहले तक तुकोजी होल्कर और महादजी ने दिल्ली से लेकर समूचे उत्तरी भारत में मिलकर अभियान चलाये थे । यहाँ तक कि उन्होंने इलाहाबाद में अंग्रेजों की सुरक्षा में रह रहे शाह आलम को भी वापस अपनी सल्तनत हासिल करने में मदद की थी | लेकिन जल्द ही बादशाह को समझ में आ गया कि वह तो नाम मात्र का बादशाह है, असली सत्ता तो मराठों के हाथ में है ।

लेकिन समय बदला और पानीपत की पराजय के बाद मराठों में भी फूट पड़ गई | महादजी सिंधिया और होलकर के बीच भी तनातनी बढ़ गई । हालांकि इसके बाद भी महाद जी दक्षिण और कोंकण में अंग्रेजों के खिलाफ जूझे । इसी प्रकार 1780 में जर्मनी के साथ मिलकर महादजी सिंधिया ने गमरत में भी अंग्रेजों से युद्ध किया । इस युद्ध में गोहद का शासक भी अंग्रेज जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के साथ मिल गया था । नतीजा यह निकला कि लहार और ग्वालियर दोनों सिंधियाओं के हाथ से निकल गए । सचमुच भाग्य उनके विपरीत चल रहा था |

सालबल की संधि

लेकिन वह राजनीतिज्ञ ही क्या, जो हिम्मत हार जाए, जो अपनी पराजय को विजय में परिवर्तित न कर सके | यह जितना आज सत्य है, उतना ही उस अठारहवीं सदी में भी सत्य था | आखिरकार 1781 में महादजी ने अंग्रेजों से संधि कर ली और इसके साथ ही मध्य भारत में सबसे शक्तिशाली शासक बनने का उनका रास्ता साफ़ हो गया | अब तक पूना के पेशवाओं के अधीन सिंधिया अब स्वतंत्र शासक हो गए ।

दक्षिण और पश्चिम की मुसीबतों से मुक्त होकर महादजी ने फिर से मध्य भारत और उत्तर पर अपना ध्यान केंद्रित किया । तभी उन्हें एक अवसर हाथ लगा | शाह आलम पर रूहेलखंड के शासक गुलाम कादिर के कारण संकट आ गया | उनका सेनानायक इस्माईल बेग कादिर खान से मिल गया और २४ जुलाई १७८८ को लाल किले व राजभवन पर उनका कब्जा हो गया | शाह आलम को एक छोटी सी मस्जिद में बंद कर दिया तथा राजकोष एवं हाथ लगने वाली मूल्यवान वस्तुओं को लूटना आरंभ कर दिया। 10 अगस्त को उसने शाह आलम की आँखें भी फोड़ दीं। राजकुमारों को बेंत से पीटा गया। राजकुमारियों के साथ बलात्कार किया गया । रुहेलों ने अकूत धन लूटा।

गुलाम कादिर को दिल्ली पर अधिकार करने में तथा धन हस्तगत करने में इस्माइल बेग ने साथ दिया था, परंतु गुलाम कादिर ने सारा धन अकेले हथिया लिया। इसलिए सितंबर के अंत में जब महादजी ने दिल्ली में हस्तक्षेप किया, तब इस्माइल बेग भी परिस्थितिवश महादजी के साथ हो गया ।

मराठों ने 28 सितंबर को पुरानी दिल्ली तथा 2 अक्टूबर को मुख्य नगर पर अधिकार कर लिया। पराजय सामने देखकर गुलाम कादिर लूट का माल यमुनापार भेजने लगा । 10 अक्टूबर को रुहेले सिपाहियों की लापरवाही से किले के बारूद खाने में विस्फोट हो गया। इसके बाद शेष सिपाहियों तथा लूट के माल को लेकर गुलाम कादिर ने लालकिले को खाली कर दिया। अगले दिन 11 अक्टूबर को मराठा सैनिकों ने गढ़ में प्रवेश किया और भूख से अधमरे हो रहे निवासियों को भोजन दिया तथा महल में रहने वालों को यथाशक्ति शांति तथा सुविधा पहुँचाने का प्रयत्न किया। 16 अक्टूबर को मराठा सरदार राणे खाँ ने अंधे सम्राट को पुनः राजगद्दी पर बिठा दिया । 

19 दिसंबर को मेरठ में गुलाम कादिर पकड़ लिया गया तथा 31 दिसंबर 1788 को मथुरा में महादजी के हवाले कर दिया गया । बाद में सम्राट शाह आलम ने गुलाम कादिर की भी आँखें निकलवा दीं और 4 मार्च 1789 को उसे प्राणदंड दे दिया गया । कहा जाता है कि वहाँ उसकी सिरकटी लाश को एक पेड़ से लटका दिया गया था ।

इस घटनाचक्र का नतीजा यह निकला कि महाद जी दिल्ली में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माने जाने लगे | सम्राट ने उन्हें अमीर-उल-उमरा का खिताब देना चाहा, किन्तु महादजी ने विनम्रता से स्वयं के लिए अस्वीकार कर, पेशवा की ओर से बजीर-उल-मुल्क का खिताब स्वीकार किया और इस प्रकार अपने पेशवा के प्रति सम्मान और समर्पण व्यक्त किया | इतना ही नहीं तो महादजी ने पूना जाकर स्वयं पेशवा को यह वंशानुगत उपाधि समर्पित की | साथ में नौ वस्त्र, गहने, तलवार और ढाल, स्वर्ण मोहरें , पेन-केस, दवात, मयूर पंख, सोने का पानी चढ़ा हुआ सिंहासन, पालकी, घोड़े, हाथी, साम्राज्य के प्रतीक चिन्ह मछलियां और सूरज, सम्मान सहित अर्पित किये । समूचा पूना हैरत से यह अद्भुत प्रदर्शन देख रहा था |

दिल्ली और आगरा सहित सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर नियंत्रण प्राप्त करने वाले, एक प्रकार से समूचे हिंदुस्तान के अघोषित शासक बन चुके महादजी की शक्ति जब अपने चरम पर थी, तभी विधाता का निमंत्रण आ गया । 12 फरवरी, 1794 को पुणे के निकट वानोवरी में अचानक वे संसार से विदा ले गए । निस्संदेह वे मराठों के सबसे महान सैनिक-राजनेताओं में से एक थे । 

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