सिंधिया राजवंश के सर्वाधिक लोकप्रिय शासक - माधवराव सिंधिया !

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१८५७ के बाद कुछ बैसी ही स्थिति थी, जैसी आमतौर पर तूफ़ान के बाद होती है, अर्थात पूर्ण शांति | जैसा कि पूर्व के लेख में वर्णित किया गया...



१८५७ के बाद कुछ बैसी ही स्थिति थी, जैसी आमतौर पर तूफ़ान के बाद होती है, अर्थात पूर्ण शांति | जैसा कि पूर्व के लेख में वर्णित किया गया है कि 1886 में जाकर बमुश्किल तमाम जयाजीराव को अपने अंतिम दिनों में ग्वालियर किला और मोरार कैंट का स्वामित्व मिल पाया, जो 1858 के बाद से ब्रिटिश सैनिकों के कब्जे में था । 

1886 में महाराजा जयाजी राव की मृत्यु के समय उनके पुत्र माधवराव जिनका जन्म 20 अक्टूबर १८७६ को हुआ था, की उम्र महज दस वर्ष थी | स्वर्गीय महाराज की इच्छानुसार नए महाराजा के परिपक्व होने तक, लगभग आठ वर्ष उस समृद्ध राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था का सञ्चालन एक दस सदस्यीय परिषद ने संभाला |

और जब 1894 में नए शासक ने सरकार की बागडोर संभाली, उसके बाद तो राज्य की प्रगति और विकास का मानो एक नया युग प्रारम्भ हुआ | जल्द ही उन्होंने यह साबित कर दिया कि उनके पास असामान्य दूरदर्शिता, रचनात्मक क्षमता और ऊर्जा है । प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त करने के साथ उन्होंने अनिवार्य रूप से राज्य की आय का 20 से 23 प्रतिशत, सिंचाई, शिक्षा और प्राकृतिक आपदाओं में राहत के लिए नियत किया ।

आम जन के लिए यह एकदम नया अनुभव था | अब तक केवल अपनी उपज का एक अंश चौथ के रूप में चुकाने वाले कृषकों को अन्नदाता का संबोधन देकर उन्होंने मानो उनका दिल ही जीत लिया | इसके पूर्व तक जन हितैषी कार्यों के लिए धनराशि तय करने जैसी कार्यविधि से समूचा भारत लगभग अनजान था। ग्वालियर ने सबसे पहले यह प्रतिष्ठा अर्जित की । 

महाराजा माधव राव जहाँ प्रशासन व्यवस्था में कसावट लाने के लिए दृढ संकल्पित थे, वहीँ राज्य के आर्थिक संसाधनों को विकसित करने और लाभकारी बनाने की ओर भी उनका ध्यान था । अंग्रेजों द्वारा रेलवे का उपयोग महज मनोरंजन या सैन्य गतिविधियों के लिए किया जाता था, किन्तु महाराजा माधवराव ने राजपरिवार के शौक से परे इसे राज्य के लिए शानदार लाभ देने वाली परियोजना बना दिया । साथ ही उन्होंने राज्य में कारखानों को भी प्रोत्साहन दिया और १९१२ में ग्वालियर लेदर फेक्ट्री शुरू हुई, जिससे न केवल रोजगार के अवसर बढे बल्कि जनजातियों का आर्थिक जीवन स्तर भी बढ़ा | इतना ही नहीं तो, फेक्ट्री मजदूरों की खरीद क्षमता बढ़ने से ग्वालियर के व्यापारियों को भी लाभ हुआ |

१९०५ में ग्वालियर में भीषण अकाल पड़ा | किसानों को अन्नदाता पुकारने वाले संवेदनशील महाराज माधवराव ने खेती के साथ पशुपालन को भी प्रोत्साहन देने के लिए ग्वालियर व्यापार मेले की शुरूआत की | इसके साथ ही युद्ध स्तर पर सिंचाई सुविधा बढ़ाने का भी प्रयत्न किया, ताकि अवर्षा आदि प्राकृतिक आपदाओं से किसान अधिक प्रभावित न हों । इसके बाद अनेक सिंचाई परियोजनाएं प्रारम्भ हुईं और 1920 आते आते तो आवश्यकता के अनुरूप पर्याप्त और व्यापक रूप से विकसित हो गईं । सिंचाई के लिए जल उपलब्ध हुआ, तो कृषि भी लहलहाने लगी | कृषकों के लिए कृषि अभियांत्रिकी और पशु चिकित्सा सेवाओं की शुरूआत हुई तो साथ ही तकनीकी शिक्षा, वाणिज्य, औद्योगिक कारखानों, संचार, वन, बैंक और बिजली योजनाओं का भी श्रीगणेश हुआ । 

महाराजा माधव राव के शासन के सबसे महत्वपूर्ण सुधारों में से कुछ थे न्यायपालिका और कार्यपालिका के लिए लॉ कोडिफिकेशन, और जन प्रतिनिधि संस्थानों की स्थापना, जैसे मजिलिस-ए-आम, मजलिस-ए-ख़ास, नगरीय निकाय और स्थानीय निकायों, जिला और परगना बोर्ड, औकाफ बोर्ड और पंचायत बोर्ड आदि की स्थापना | अतः कहा जा सकता है कि ग्वालियर अंचल में प्रजातांत्रिक व्यवस्था के भी वे जन्मदाता थे |

ग्वालियर में धूमधाम से 1887 में नगरपालिका का श्रीगणेश हुआ और महाराजा माधव राव कई वर्षों तक लश्कर नगर पालिका के सक्रिय अध्यक्ष रहे | इसी प्रकार मजलिस ए क़ानून की नींव 1 9 12 में रखी गई । गांव के प्रशासन की आर्थिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था के रूप में पंचायतें भारत में अत्यंत प्राचीन काल से विद्यमान रही हैं, किन्तु गुलामी के कालखंड में देश के कई हिस्सों में इनका पूरी तरह से लोप हो गया । किन्तु महाराजा माधवराव ने इन्हें पुनः प्रारम्भ करवाया |

1920 में मजलिस-ए-आम को स्थापित किया गया | दरअसल महाराजा सत्ता के विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे और उन्होंने आमजन और शासक की संयुक्त जिम्मेदारी के महत्व पर जोर दिया, ताकि बोझ सरकार को अकेले सहन नहीं करना पड़े।

प्रशासन की अन्य विशेषताएं, जिनपर उन्होंने काफी ध्यान दिया –

आपराधिक जनजातियों को समाज की मुख्य धारा में लाना 

आपराधिक जनजाति आम तौर पर गैरकानूनी कामों में लिप्त रहती थीं | यह जानना दिलचस्प है कि महाराजा माधव राव देश के पहले प्रशासक थे, जिन्होंने इन लोगों के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार कर इतना बदल दिया कि वे अन्य ग्रामीणों के साथ साथ ग्राम में रहने लगे । निश्चय ही यह एक बड़ी चुनौती थी |

इसी प्रकार जागीरदारों के कर्तव्य और सीमा का निर्धारण कर उनकी निरंकुशता को कम करने में उन्होंने सफलता पाई | 

महिला एवं तकनीकी शिक्षा के प्रति भी उन्होंने अतिरिक्त ध्यान दिया |

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उनकी भूमिका ध्यान देने योग्य है | उन्होंने अपना पानी का जहाज “लॉयल्टी” पूरी तरह व्रिटिश सम्राट के अधीन कर दिया तथा युद्ध में घायलों के लिए नैरोबी में एक अस्पताल बनवाया | इसके अतिरिक्त २३४ लाख रुपये भी प्रदान किये | 

नागरिक जीवन में महाराजा माधव राव का व्यापक सम्मान था । वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पहले प्रो कुलपति थे, साथ ही ऑक्सफ़ोर्ड, कैंब्रिज और एडिनबर्ग विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टरेट प्रदान कर सम्मानित किया था ।
यह माधवराव सिंधिया ही थे, जिन्होंने एक अनजान से पहाडी गाँव सीपरी को शिवपुरी में रूपांतरित कर अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया | उनके कार्य काल में शहर तो शहर जंगलों में भी आवागमन के लिए इतनी अच्छी सडकों का जाल बिछाया गया कि लगभग सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी वे सड़कें आज विद्यमान हैं | उस जमाने में शिवपुरी के दो बत्ती कहे जाने वाले चौराहे पर गौमुख से चौबीसों घंटे पेय जल का प्रवाह होता रहता था | हैरत की बात है कि यह पानी व्यर्थ नहीं जाता था, बल्कि साईफन सिस्टम से नजदीकी गूजर तालाब में जाता था | 

स्व. माधवराव प्रथम के कार्यकाल में ही राजस्थान के अनेक नामचीन धनपतियों को शिवपुरी लाकर बसाया गया और यहाँ व्यापार व्यवसाय प्राम्भ हुआ | स्थानीय चिंताहरण मंदिर पर सदाव्रत चालू हुआ, जहां कोई भी व्यक्ति भोजन सामग्री प्राप्त कर सकता था | ताल तलैयों की तो गिनती ही नहीं थी | देखते ही देखते शिवपुरी के प्राकृतिक सौन्दर्य में शिवपुरी नगर की सुन्दरता ने चार चाँद लगा दिए | दुनिया के दूसरे शहर वर्षाकाल में गंदे होते हैं, किन्तु शिवपुरी अपवाद थी | इस शहर की पक्की सड़कें बारिश के मौसम में धुलकर कंचन की तरह चमकने लगती थीं | 

अप्रैल 1 9 25 में महाराजा माधव राव सिंधिया ब्रिटिश सम्राट के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए इंग्लैंड को रवाना हुए, लेकिन यात्रा के दौरान ही उनकी हालत इतनी बिगड़ गई, कि उन्हें पेरिस में रुकना पड़ा | जहां ५ जून को केवल ४८ वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया | उनका अंतिम संस्कार पेरे-ला-चैलेस में किया गया तथा बाद में उनका अस्थि कलश शिवपुरी लाया गया, जिसे उन्होंने ही बसाया और संवारा था और वही उनका अंतिम आश्रय स्थल बना । ताजमहल से कहीं अधिक सुंदर नक्काशी युक्त है संगमरमर से बनी उनकी छतरी |

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