गैर-सरकारी
संगठन लोकनीति फाउंडेशन ने 6 साल पहले सर्वोच्च
न्यायालय में एक जनहित याचिका प्रस्तुत कर मांग की थी कि लावारिस शवों की डीएनए जांच
का संग्रह किया जाना चाहिए, ताकि गुमशुदा लोगों के डीएनए से उसका मिलान करके मृतक व्यक्ति
की पहचान सुनिश्चित की जा सके। स्मरणीय है कि हरिद्वार, प्रयाग और वाराणसी जैसी धर्मनगरियों में हर साल मोक्ष के लिए
आए लाखों में से सैंकड़ों लोग गुमनामी के कफन में दफन हो जाते है। इन लावारिस शवों की
पहचान के लिए यह याचिका लगाई गई थी। इसके जबाब में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय
को बताया है कि वह संसद के मानसून सत्र में डीएनए प्रोफाइलिंग बिल यानी, ‘मानव डीएनए सरंचना विधेयक‘ पेश
करेगी। इस भरोसे के बाद न्यायालय ने इस याचिका का निबटारा कर दिया ।
मानव-जीनोम
तीन अरब रासायनिक रेखाओं का तंतु है,जो यह परिभाषित करता
है कि वास्तव में मनुष्य है क्या ?
इसके अध्ययन हेतु 1980 में ‘मानव-जीनोम परियोजना‘ लाई गई थी। जिस पर 13,800 करोड़ रुपये खर्च हुए
थे। अनेक अंतरराष्ट्रीय जीव व रसायन विज्ञानियों ने इस योजना को 2001 में अंजाम तक पहुंचाया। जिसके बाद आधुनिक जीव वैज्ञानिक कोषिकीय
रसायनशास्त्र की जटिलता का विष्लेशण करने में पूर्ण दक्षता का दावा करने लगे हैं।
आपको
स्मरण होगा कि देशव्यापी चर्चा में रहे नारायण दत्त तिवारी और उनके जैविक पुत्र रोहित
शेखर तथा उत्तर प्रदेश सरकार के सजायाफ्ता पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी व कवयित्रि
मधुमिता शुक्ला के मामलों में डीएनए जांच के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा गया
था । पूर्व से ही विवाहित नारायण दत्त तिवारी रोहित को पुत्र के रूप में स्वीकार नहीं
कर रहे थे क्योंकि इसके कारण उन्हें उज्वला शर्मा के साथ अपने नाजायज संबंधों को
भी स्वीकार करना पड़ रहा था । किंतु जब रोहित ने खुद को तिवारी एवं उज्वला की जैविक
संतान होने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में डीएनए जांच का दबाव बनाया, तो तिवारी ने हथियार डाल दिए। रोहित ने यह लड़ाई अपना सम्मान
हासिल करने की द्रष्टि से लड़ी थी,
साथ ही अपने वैद्य हक के लिए
थी।
इसी
तरह अमरमणि मधुमिता से उनके नजायाज संबंध नहीं स्वीकार रहे थे । किंतु सीबीआई ने मृतक
मधुमिता के गर्भ में पल रहे शिशु भ्रूण और अमरमणि का डीएनए टेस्ट कराया तो मजबूत जैविक
साक्ष्य मिल गए। जिससे बाद अमरमणि व उनकी पत्नी हत्या के प्रमुख दोषी साबित हुए व आजीवन
कारावास की सजा पाई। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कानून बनाने से पहले ही अदालतें
डीएनए जांच रिर्पोट के आधार पर फैसले दे रही हैं। लावारिस व पहचान छिपाने के नजरिए
से कुरूप व विकृत कर दी गई लाशों की पहचान भी इस टेस्ट से संभव है।
केंद्र
सरकार सर्वोच्च न्यायालय को दिए हलफनामे के अनुसार जो ‘मानव संरचना डीएनए विधेयक‘ ला रही है,
उसके अनुसार तो देश के
हरेक नागरिक का जीन आधारित कंप्यूटरीकृत डाटाबेस तैयार होगा और उसके बाद एक क्लिक पर
मनुष्य की आंतरिक जैविक जानकारियां कंप्युटर स्क्रीन पर होंगी।
ह्यूमन
डीएनए प्रोफाइलिंग बिल 2015 लाने के पक्ष में तर्क
दिए जा रहे हैं कि डीएनए विष्लेशण से अपराध नियंत्रित होंगे, खोए, चुराए और अवैध संबंधों से पैदा संतान के माता-पिता का पता चल
जाएगा, लावारिस लाशों की पहचान होगी, साथ ही अनेक दुस्साध्य बीमारियों का उपचार
संभव होगा । जीन संबंधी परिणामों को सबसे अहम् चिकित्सा के क्षेत्र में माना जा रहा
है। क्योंकि अभी तक यह शत-प्रतिशत तय नहीं हो सका है कि दवाएं किस तहर बीमारी का प्रतिरोध
कर उपचार करती हैं। जाहिर है,अभी ज्यादातर दवाएं अनुमान
के आधार पर रोगी को दी जाती हैं। जीन के सूक्ष्म परीक्षण से बीमारी की सार्थक दवा देने
की उम्मीद बढ़ गई है। जीन की किस्मों का पता लगाकर मलेरिया, कैंसर, रक्तचाप, मधुमेह और दिल की बीमारियों से कहीं ज्यादा कारगर ढंग से इलाज
किया जा सकेगा, इसमें कोई संदेह नहीं
है। लिहाजा इससे चिकित्सा और जीव-विज्ञान के अनेक राज तो खुलेंगे ही,दवा उद्योग भी फले-फूलेगा।
हर
नए कदम के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों परिणाम होते हैं | उपरोक्त सकारात्मक
परिणामों के साथ कुछ सवाल भी उठ रहे हैं | सवा अरब की आबादी वाले हमारे देश में,
जहाँ भिन्न-भिन्न नस्ल व जाति वाले लोग निवास करते हैं, इस प्रकार का कोई निर्विवाद
व शंकाओं से परे डाटाबेस तैयार हो जाए यह अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि अब
तक हम न तो विवादों से परे मतदाता पहचान पत्र बना पाए और न ही नागरिक को विशिष्ट पहचान
देने का दावा करने वाला आधार कार्ड ?
लिहाजा देष के सभी लोगों
की जीन आधारित कुण्डली बना लेना भी एक दुष्कर व असंभव कार्य लगता है ?
इसके
अतिरिक्त यदि मानव
डीएनए सरंचना विधेयक अस्तित्व में आ जाता है तो इसके क्रियान्वयन के लिए भी बड़ा ढांचागत
निवेष करना होगा। डीएनए नमूने लेने,
फिर परीक्षण करने और
फिर डेटा संधारण के लिए देश भर में प्रयोगशालाएं बनानी होंगी। प्रयोगशालाओं से तैयार
डेटा आंकड़ों को राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर सुरक्षित रखने के लिए डीएनए डाटा-बैंक बनाने
होंगे। जीनोम-कुण्डली बनाने के लिए ऐसे सुपर कंप्युटरों की जरूरत होगी, जो आज के सबसे तेज गति से चलने वाले कंप्युटर से भी हजार गुना
अधिक गति से चल सकें। इस ढांचागत व्यवस्था पर नियंत्रण के लिए विधेयक के मसौदे में
डीएनए प्राधिकरण के गठन का भी प्रावधान है। हमारे यहां कंप्यूटराइजेशन होने के बाद
भी राजस्व-अभिलेख, बिसरा और रक्त संबंधी
जांच-रिपोर्ट तथा आंकड़ों का रख-रखाव कतई विष्वसनीय व सुरक्षित नहीं है। हमारे देश
में भ्रष्टाचार के चलते जांच प्रतिवेदन व डेटा बदल दिए जाते हैं। ऐसी अवस्था में आनुवंषिक
रहस्यों की गलत जानकारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामाजिक समरसता से खिलवाड़ भी कर सकती
है।
अतः
इस विधेयक को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में आम नागरिक के मूल
अधिकारों में शामिल गोपनीयता के अधिकार का खुला उल्लंघन भी माना जा रहा है।
कहा
जा रहा है कि मानव-जीनोम से मिल रही सूचनाओं का दोहन करने के लिए दुनिया भर की दवा, बीमा और जीन-बैंक उपकरण निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियां अरबों
का न केवल निवेश कर रही हैं, बल्कि राज्य सत्ताओं
पर जीन-बैंक बनाने का पर्याप्त दबाव भी बना
रही हैं। आशंकाएं तो यहां तक है कि यही कंपनियां सामाजिक समस्याओं से जुड़े बहाने ढूंढकर
अदालत में एनजीओ से याचिकाएं दाखिल कराती हैं। निजी जेनेटिक परीक्षण को कानून के जरिए
अनिवार्य बना देने में कंपनियां इसलिए लगी हैं, जिससे
उपकरण और आनुवंषिक सूचनाएं बेचकर मोटा मुनाफा कमाया जा सके ?
व्यक्ति
की पहचान से जुड़े बहुउद्देषीय आधार कार्ड के साथ भी जो आशंकाएं व्यक्त की गई थीं,
वे अब सही साबित हो रही हैं। फेसबुक और ट्विटर ने भी ‘कैंब्रिज एनालिटिका‘
को गोपनीयता से जुड़ा
उपभोक्ताओं का निजी डाटा बेचने का काम किया है। इन सच्चाईयों के परिप्रेक्ष्य में यदि
डीएनए के नमूने भी लीक कर दिए जाते हैं तो यह व्यक्ति के निजता के अधिकार के साथ
विश्वासघात होगा।
यह तो
भविष्य ही बताएगा कि प्रस्तावित योजना देशवासियों के लिए हितकर साबित होगा या
हानिप्रद |
प्रमोद
भार्गवशब्दार्थ
49,श्रीराम कॉलोनीशिवपुरी
म.प्र.मो.
09425488224, 09981061100
लेखक
वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।
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