कुरआन शरीफ भाग 2 (मुसलमान यहूदी संघर्ष और निकाह-तलाक-हलाला)


सूरे बकर 


ए इंसानों अपने उस पालनहार की शरण में जाओ, जिसने तुम्हें और तुम्हारे पूर्वजों को भी पैदा किया, जिसने तुम्हारे लिए जमीन का फर्श और आसमान की छत बनाई | वर्षा द्वारा तुम्हारे लिए भोज्य सामग्री उत्पन्न की | जो ईश्वर पर विश्वास करते हैं, उनके लिए बहिश्त के बाग़ हैं, खुशनुमा नहरें हैं, और खाने के लिए स्वादिष्ट मेवा हैं | किन्तु जो नास्तिक हैं, वे दोजख की आग में जलने वाले हैं | 

(अगर काफिर का अर्थ इस्लाम न मानने वाले के स्थान पर ईश्वर को न मानने वाले किया जाए, तो न जाने कितने संघर्षों का अंत हो जाए | ऊपर स्वर्ग और नरक की जो कल्पना की गई है, उसमें और भारतीय संकल्पना में कोई भी अंतर है क्या ?) 

उसने ही तुम्हे जीवन दिया और वही तुम्हें मारेगा | उस परवरदिगार से कुछ भी छुपा हुआ नहीं है | उसने ही हजरत आदम को इस जमीन का मालिक बनाया, जिसके ज्ञान और प्रतिभा के सम्मुख फरिश्तों ने भी सिजदा किया | केवल शैतान इब्लीस को यह पसंद नहीं आया, क्योंकि वह स्वयं इस जमीन का मालिक बनाना चाहता था | तबसे आज तक वह इंसान का दुश्मन बना हुआ है | 

हजरत याकूब के बारह बेटे और उनकी औलादें एक समय मिश्र के बादशाह फिऔनों के आधीन हो गए थे, किन्तु हजरत मूसा ने उन्हें आजाद करवाया और इजराईल नाम देकर सत्ता सोंपी | इन्हीं के वंशज आज यहूदी कहलाते हैं | जिस प्रकार मोहम्मद साहब पर कुरआन अवतरित हुई, उसी प्रकार हजरत मूसा पर आकाशी ग्रन्थ “तौरात” अवतरित हुआ | 

कुरआन की आयतें स्थान स्थान पर यहूदी और इस्लामी संघर्ष को रेखांकित करती हैं, जैसे कि सूरे बकर की 43-44-45 वीं आयातों में कहा गया कि तुम “तौरात” पढ़ते रहते हो, सच के साथ झूठ को मत मिलाओ और नमाज पढने वालों के साथ तुम भी झुको और अपनी आय का चालीसवां हिस्सा “जकात” खुदा की राह में देना शुरू करो | हे याकूब के बेटो, मेरे उन अहसानों को याद करो, मैंने ही तुम्हें फिरऔन के लोगों से आजादी दिलवाई | वे तुम्हारे बेटों को हलाक करने और तुम्हारी स्त्रियों को अपनी सेवा में रखने वाले थे | मैंने ही मूसा को पुस्तक “तौरात” प्रदान की | 

सूरे बकर के पहले पारे की 62 वीं आयत में उल्लेखनीय बात कही गई है | चाहे मुसलमान हों, या यहूदी या ईसाई या साईबी, इनमें से जो भी अच्छे और नेक काम करेंगे, उसका फल उन्हें उस पालनकर्ता के यहाँ अवश्य मिलेगा | (स्मरणीय है कि साईबी उन लोगों को कहा जाता था जो हजरत इब्राहीम को भी मानते थे और सितारों को भी पूजते थे | वे नमाज भी पढ़ते थे और अपना धर्मग्रन्थ “जबूर” भी पढ़ते थे | दूसरे शब्दों में कहें तो सर्व समावेशी थे |) 

कुरआन में यहूदियों की उस धारणा को भी आड़े हाथों लिया गया है, जिसमें वे मानते हैं कि वे तो अल्लाह के प्यारे हैं, इसलिए चाहे जितने पाप करें, किन्तु दोजख में भी सात दिन से ज्यादा नहीं रहेंगे | लेकिन कुरआन कहती है कि जिसने बुराई पल्ले बांधी, वह तो सदैव दोजख की आग में जलेगा | जिन्होंने नेक काम किये हैं, वे ही जन्नत में जायेंगे | 

कश्मीर में अत्याचार करने वाले मुसलमानों के लिए इसी पारे की ८३ से ८५ आयत में जो लिखा है, काश उन लोगों ने कुरआन ठीक से पढी और समझी होती | याकूब के बेटों को संबोधित करते हुए कुरआन शरीफ में लिखा है – 

तुमने पक्की प्रतिज्ञा की थी कि अपने माता पिता, रिश्तेदारों, अनाथों और दीन दुखियों के साथ अच्छा व्यवहार करोगे, खूंरेजी नहीं करोगे, अपने शहरों से अपने लोगों को बेदखल नहीं करोगे, किन्तु तुम तो अपनों को मारते हो, दूसरे (पाकिस्तान) के सहायक बनकर उन्हें देश निकाला देते हो | याद रखो कि जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उससे बेखबर नहीं है | तुम क़यामत के दिन कड़ी सजा पाओगे | 

(भले ही यह प्रसंग यहूदियों के “बनी कुर्रजा” और “बनी नुर्जर” समूहों के बीच की शत्रुता के आधार पर लिखा गया हो, हम इसे भारत पाकिस्तान के सम्बन्ध पर भी समझें तो क्या हर्ज है? ये दोनों समूह शत्रुओं की मदद लेकर अपने ही लोगों से लड़ते, उन्हें मुल्क से खदेड़ते थे | कुरआन में रिश्तेदारों के साथ अच्छे व्यवहार को कहा गया है और यह तो जाना माना तथ्य है कि भारत के मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू ही थे, तो रिश्तेदार हुए अथवा नहीं ?) 

मैंने ही मूसा को किताब “तौरात” दी, मैंने ही मरियम के बेटे “ईसा” की फ़रिश्ते “जिब्रील” के माध्यम से मदद की | मैंने ही एक के बाद एक रसूल (पैगम्बर) भेजे | इस पारा में बार बार यहूदियों की पुस्तक “तौरात”, ईसाईयों की “इंजील” और “कुरआन” को ईश्वरीय पुस्तक कहा गया है | किन्तु साथ ही यहूदी और ईसाईयों को समझाईस दी गई है कि वे लोग मुसलमानों को अपने मत में खींचने के बजाय, स्वयं मुसलमान बन जाएँ | 

किन्तु कुरान शरीफ में व्यक्त की गई, यह इच्छा तो पूरी नहीं हुई | याकूब के बेटे यहूदी तो आज भी मुसलमानों के दुश्मन बने हुए हैं | 

पारा दो में भारतीय चिंतन – “संतोषी सदा सुखी” की अवधारणा की ही पुष्टि करते हुए कहा गया है कि अल्लाह संतोषी लोगों का ही साथी है | इन्हीं लोगों पर परवरदिगार की मेहरबानी और इनायत रहती है | इसीकी निशानी है पहाड़ सफा और पहाड़ मर्वह | इन दोनों पहाड़ों की कहानी इस प्रकार है – 

ईश्वर की आज्ञा से एक बार हजरत इब्राहीम अपनी पत्नी हजरत हाजरा और दुधमुंहे बच्चे को छोड़कर चले गए | उस समय बच्चे को प्यासा देखकर हजरत हाजरा जब इन पहाड़ों पर पानी की तलाश में भटक रही थीं, तब ईश्वर की कृपा से वहां एक चश्मा निकल आया, जो “जमजम” के नाम से मशहूर हुआ | मुसलमान आज भी इन पहाड़ों की परिक्रमा करते हैं | 

मूर्ति पूजा पर प्रहार करते हुए कुरआन का कथन है कि आसमान और जमीन के होने, रात और दिन के आने जाने, आकाश से बरसते मेह, लहलहाती फसलें, बहती हुई हवा, उमड़ते हुए बादल, ये सब खुदा की कुदरत की निशानियाँ हैं | लेकिन काफिर तो उन मूर्तियों के सामने चीखते हैं, जो कुछ नहीं सुनतीं | 

उस समय की अरब रीति रिवाज के अनुसार, जान के बदले जान, आजादी के बदले आजादी, गुलाम के बदले गुलाम, औरत के बदले औरत, की बात भी कही गई है | 

रोजा कैसे रखा जाये, क्या क्या बंदिशें और छूट हैं इनको भी इस पारा में स्पष्ट किया गया है | ब्रह्मचर्य केवल उपवास काल में अनिवार्य है, रात को नहीं, इतना स्पष्ट उल्लेख तक है | हज के महीनों का उल्लेख है, उस दौरान क्या करने योग्य है और क्या नहीं करना चाहिए, इसका भी व्यापक वर्णन है | 

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है निकाह और हलाला का उल्लेख | इनकी अपनी समझ के अनुसार व्याख्या करता हूँ – 

जब तक दूसरे धर्म को मानने वाली महिलायें, जिन्हें शिर्कवाली लिखा गया है, इस्लाम पर यकीन न करने लगें, उनसे निकाह न करो | शिर्कवाली बीबी से तो मुसलमान लोंड़ी भली है | इससे स्पष्ट होता है कि उस समय अरब मुल्क में गुलाम प्रथा थी | यहाँ तक कि मुसलमानों द्वारा मुसलमान स्त्री पुरुष भी गुलाम बनाए जाते थे | महिलाओं के लिए भी कहा गया कि वे भी शिर्कवाले आदमी से शादी न करें, उससे तो मुसलमान गुलाम भला | 

महिलाओं के प्रति मुस्लिम सोच भी दरअसल अरब मुल्क का ही सोच है, जो आज भारतीय परिप्रेक्ष में पूर्णतः असंगत है | किन्तु दुर्भाग्य कि कुरआन को सही परिप्रेक्ष में समझने की कोशिश नहीं हो रही | ईश्वरीय पुस्तक या आसमान से उतरी हुई पुस्तक कहकर लकीर के फकीर लोग बने हुए हैं | जैसे कि यह उल्लेख – 

तुम्हारी बीबियाँ, तुम्हारी खेतियाँ हैं | अपनी खेती में जिस तरह चाहे जाओ और अपने लिए आइन्दा का भी बंदोबस्त रखो | 

तलाक - खुला और हलाला को लेकर कहा गया है – 

जिस प्रकार मर्द को तलाक का अख्तियार है, उसी प्रकार महिला को भी खुला का हक़ है | यानी दोनों में से कोई भी एक दूसरे से अलग होने का निर्णय ले सकता है | तलाक का दस्तूर है कि जब कोई मुसलमान मर्द अपनी औरत को तलाक देता है तो कमसेकम दो आदमियों के सामने तलाक देता है और एक महीने के बाद दूसरी तलाक भी इसी प्रकार देता है | यहाँ तक तो मियाँ बीबी में समझौता हो सकता है, किन्तु तीसरे महीने तीसरी तलाक देने के बाद फिर मर्द उस औरत के पास नहीं जा सकता | तलाक दो दफे देने के बाद दस्तूर के मुताबिक़ रखना या अच्छे बर्ताव के साथ विदा कर देना | जो कुछ भी महिला को दिया जा चुका है, उसे वापस लेना जायज नहीं | 

अगर न निभे और तलाक की ठान ही लें तो जिन औरतों को तलाक दिया गया है, वे तीन दफे मासिक धर्म आने के पूर्व दोबारा विवाह न करें ताकि अगर पेट में बच्चा है तो वह न छुपे और छुपाना चाहिए भी नहीं | तलाकशुदा महिला 3 माह 10 दिन बाद दूसरी शादी कर सकती है | बीबी को तलाक देने के बाद अगर कोई शख्स अपनी औलाद को उसका दूध पिलवाना चाहे तो उसको बाजिब खाना कपड़ा देना लाजिमी है | ऐसा दो वर्ष तक किया जा सकता है | 

इस्लाम में विधवा महिला भी चार महीने दस दिन बाद दूसरा विवाह कर सकती हैं | इसे इद्दत की मुद्दत कहा जाता है | 

अब बहुचर्चित हलाला का वर्णन – 

यह भी अरब देशों की ही रीति रिवाज है, जिसे दुर्भाग्य से भारत में भी बदस्तूर मान लिया गया है और इसके पीछे भी सीधा सा कारण रहा होगा और वह यह कि तीन तलाक के पहले व्यक्ति दस बार सोचे | जल्दबाजी में निर्णय न ले | और एक बार निर्णय ले लिया तो फिर उसे न बदला जाए | सऊदी अरब के 2017 की जनगणना के आंकड़े गौर करने योग्य हैं | वहां 57.48 प्रतिशत पुरुषों पर केवल 42.52 प्रतिशत महिलायें हैं | यह तो आज के हालात हैं | मोहम्मद साहब के जमाने में तो शायद महिलाओं का यह अनुपात और भी कम रहा होगा | अतः बात समझ में आने योग्य है कि एक बार तलाक हो जाने के बाद महिला किसी और से ही विवाह करे | अपने पूर्व पति के पास न जाए | यह विशुद्ध सामाजिक कारण है, जिसे धार्मिक क़ानून का रूप दे दिया गया | तलाकशुदा महिला पहले किसी अन्य से विवाह करे और फिर अगर वह तलाक दे दे तो ही अपने पूर्व पति के पास जाए | किन्तु अगर नए पति का व्यवहार अच्छा है तो क्यों जायेगी भला ? और अगर जाना ही चाहे तो क्या उसके लिए, प्रथम विवाह के समय का “खुला” का विकल्प है अथवा नहीं, संभवतः इसे लेकर कोई नियम नहीं बना |

मुझे स्मरण है कि लोकमान्य तिलक जी ने अपने गीता भाष्य की प्रस्तावना में लिखा है कि मैंने श्रीमदभगवद्गीता को समझने के लिए, अनेक विद्वानों द्वारा लिखित गीता भाष्य पढ़े, किन्तु संतोष नहीं हुआ | अंत में स्वयं गीता को बार बार पढ़ा, तब कुछ कुछ समझ में आया |किसी धर्म ग्रन्थ को समझने का यही श्रेष्ठ तरीका है | आखिर जो करोड़ों लोगों को प्रभावित करे, उसमें कुछ तो ख़ास होगा ही |खैर पवित्र कुरान को एक आलोचक की नजर से नहीं, वरन एक अध्येता के समान पढ़कर जो पल्ले पडेगा, समझ में आएगा, वह मित्रों से साझा करने का विचार है | उस कड़ी का प्रथम भाग प्रस्तावना, अर्थात मोहम्मद साहब के जीवन का सारांश -

कुरआन शरीफ भाग 1 

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1 टिप्पणियाँ

  1. आपके लेख मैं उदारता दिखरही है आप रंगीला रसूल पढिये

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