गंगापुत्र हुए बलिदान, कब आओगे श्री भगवान ?



कईयों ने समाचार पत्रों में जब यह समाचार पढ़ा होगा कि कोई जी.डी. अग्रवाल निर्मल गंगा की खातिर अनशन करते करते मर गया, तो निश्चय ही अलग अलग प्रतिक्रिया हुई होगी | मोदी भक्तों ने सोचा होगा कि अजीब झक्की इंसान था, बुड्ढा खुद तो मर गया और मोदी जी खिलाफ विरोधियों को एक मुद्दा दे गया | स्वाभाविक ही विरोधियों की बाछें खिल भी गई होंगी | आम व्यक्ति ने निस्पृह भाव से समाचार पत्र को पढ़कर उसे रद्दी वाले को देने के लिए सुरक्षित रख दिया होगा | मीडिया ने भी एक दो दिन छापा और फिर "मीटू" के नए मुद्दे में व्यस्त हो गए | 

आईये हम थोडा गहराई में जाएँ और यह जानने की कोशिश करें कि वस्तुतः हमने क्या खो दिया है – 

जी डी अग्रवाल ने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया बर्कले से पर्यावरण इंजीनिय¨रग में पीएचडी की थी | उसके बाद उन्होंने कानपुर आइआइटी में 17 साल तक पढ़ाया | अपनी गांधीवादी विचारधारा, प्रकृति के प्रति प्रेम और विज्ञान के साथ प्रकृति के सामंजस्य को बेहतर तरीके से पढ़ाकर छात्रों के प्रिय शिक्षक बन गए थे प्रोफेसर जी डी अग्रवाल | वह सिविल इंजीनियरिंग विभाग के विभागाध्यक्ष भी रहे। जिस समय सेवा निवृत्त हुए उस समय तक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणविद के रूप में उनकी ख्याति हो चुकी थी | उनके नामचीन शिष्यों में सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायर्नमेंट दिल्ली के संस्थापक अनिल अग्रवाल, मैगसेसे अवार्ड प्राप्त जल पुरुष राजेंद्र सिंह व रवि चोपड़ा शामिल हैं। 

प्रख्यात समाजसेवी नानाजी देशमुख ने धर्मनगरी चित्रकूट में जब 12 फरवरी 1991 को चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की, तो देश के कई सेवानिवृत्त नामचीन शिक्षाविदों को सेवा देने के लिए आमंत्रित किया था। प्रो. जीडी अग्रवाल भी वर्ष 1992 में नानाजी के बुलावे पर चित्रकूट पहुंचे और वर्ष 1997 तक अवैतनिक प्रोफेसर के रूप में सेवा की। महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहते उन्होंने विवि से कभी एक रुपये भी वेतन के रूप में नहीं लिए बल्कि समय-समय पर संसाधनों की पूर्ति के लिए आर्थिक मदद भी की। 

प्रो. जीडी अग्रवाल का पर्यावरण के प्रति प्रेम की गवाही चित्रकूट के हर ख़ास व आम देते हैं | अपने आवास से विवि जाना हो या फिर शहर में कहीं, वे या तो पैदल चलते थे, या साइकिल का उपयोग करते थे। विवि के वाहन का भी कभी प्रयोग नहीं किया। 

प्रो. जीडी अग्रवाल जब तपोभूमि आए थे, ग्रामोदय विवि के कुलपति प्रो. करुणाकरन ने 'सुंदर चित्रकूट' की कल्पना की थी। इसे मूर्त रूप देने के लिए प्रो. अग्रवाल ने काफी काम किया। चित्रकूट के समाजसेवी, संत-महंत को एक मंच पर लाए। प्रशासनिक अधिकारियों संग बैठकें की। तत्कालीन जिलाधिकारी जगन्नाथ ¨सह ने प्रो. अग्रवाल के सुझावों पर चित्रकूट विकास का प्रोजेक्ट तैयार किया था। जिस पर आज भी काम हो रहा है। डा. अग्रवाल ने मंदाकिनी नदी के लिए काफी काम किया था। वह मंदाकिनी पर बांध के खिलाफ थे। कहते थे, प्रकृति ने जो दिया है उसको उपभोग करो लेकिन रोको नही। चित्रकूट के पवित्र वातावरण ने बाद में प्रो. जीडी अग्रवाल को संत सानंद में रूपांतरित कर दिया | 

स्वाभाविक ही गंगा की अविरलता व निर्मलता की लड़ाई लड़ते लड़ते उनके मौत के आगोश में सोने की खबर जब आइआइटी और चित्रकूट बीच पहुंची तो सब दूर शोक की लहर दौड़ गई। 

अब आते हैं मूल मुद्दे पर – 

स्वामी सानंद का यह पहला उपवास नहीं था | इसके पूर्व सन 2012 में भी वे उपवास पर बैठे थे | उस समय नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनका हालचाल भी पूछा था | सवाल उठता है कि आज उनका अनशन तुड़वाने के लिए मोदी जी ने क्या प्रयास किया ? क्या प्रधानमंत्री पद व्यक्ति की संवेदना समाप्त कर देता है ? 

हम अभिभूत होते हैं यह जानकर कि हमारे प्रधानमंत्री बहुत मेहनत करते हैं, शायद 18 घंटे। लेकिन क्षमा कीजियेगा, मशीनें तो रात दिन काम करती हैं, 365 दिन, 24 घंटे, बिना रुके, बिना थके। लेकिन उनमें संवेदना नहीं होती है। प्रधानमंत्री संवेदनशील होते, तो क्या एक संत को, जिसे वह व्यक्तिगत रुप से जानते थे, इस प्रकार अकाल मौत मरने देते ? नानाजी देशमुख द्वारा चित्रकूट में स्थापित ग्रामोदय विश्वविद्यालय में अवैतनिक अध्यापन कार्य करने वाले प्रो. जी.डी. अग्रवाल उपाख्य संत सानंद के इस आत्मबलिदान पर निश्चय ही नानाजी की आत्मा भी जार जार रो रही होगी ! एक संघ स्वयंसेवक के नाते मैं तो दुखी भी हूँ, आहत भी !

जब देश स्वतंत्र हुआ, औद्योगीकरण प्रारम्भ हुआ, तभी से हमने जीवन दायिनी नदियों को प्रकृति प्रदत्त नाला मान लिया। उनमें कचरा बहाने लगे। आमजन का बहाया कचरा नदियों को उतना प्रदूषित नहीं करता, जितना औद्योगिक कारखाने करते हैं, कोई भी नदी सर्वाधिक प्रदूषित वहीं होती है। क्या इसके लिए सरकारी मशीनरी जिम्मेदार नहीं है ? 

स्वामी सानन्द चले गये, यही सवाल उठाते उठाते | 

उनके पूर्व 2011 में भी एक और संत, निगमानंद ने भी इसी प्राकर गंगा की खातिर देह त्यागी थी | 115 दिनों की भूख हड़ताल के बाद 13 जून को 2011 को देहरादून के हिमालयन अस्पताल में उनकी मौत हुई थी | स्वामी निगमानंद हरिद्वार के उस मातृ सदन के संत थे जिसकी स्थापना पर्यावरण की रक्षा के उद्देश्य से 1997 में कुछ संतों ने मिलकर की थी | तब से ही मातृ सदन ने गंगा और हिमालय की रक्षा के लिए कई आंदोलन किये | 1998 में भी स्वामी निगमानंद ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर लगभग 70 दिन की भूख हड़ताल की थी | उनकी मांग थी कि गंगा को बचाने लिए इसमें हो रहे खनन पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए | 

19 फरवरी 2011 को जब स्वामी निगमानंद ने हरिद्वार के कुंभ क्षेत्र में हो रहे खनन को पूरी तरह से रोकने की मांग को लेकर एक बार फिर से भूख हड़ताल शुरू की, तो 27 अप्रैल को प्रशासन ने उन्हें हरिद्वार के जिला अस्पताल में भर्ती करवा दिया | लेकिन सरकार उनकी मांगें कैसे मान सकती थी ? स्वामी निगमानंद की मांगें पूरी होने से सीधा नुकसान हरिद्वार के खनन माफियाओं और स्टोन क्रशर मालिकों को होना था | राजनीतिज्ञों को चुनाव लड़ने के लिए धन तो आखिर वे ही लोग देते हैं | नतीजा यह निकला कि लगभग एक महीना हिमालयन अस्पताल में रहने के बाद अंततः 13 जून को स्वामी निगमानंद की मौत हो गई | पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में उनकी मौत का कारण कई दिनों तक भूखे रहने के कारण हुए कुपोषण को बताया गया था | 

निगमानंद हों या जीडी अग्रवाल उपाख्य स्वामी सानंद – क्या केवल इन्हें श्रद्धांजलि देना भर पर्याप्त है ? राजनेताओं से तो कोई आशा बची नहीं, अतः जैसे किसी युग में प्रथ्वी ने व्याकुल होकर पुकारा था, हम भी कहें – 

गंगापुत्र करें बलिदान, 

कब आओगे श्री भगवान ? 

कई भ्रांतियां चल रही हैं सोशल मीडिया पर स्वामी सानंद के आत्मबलिदान को लेकर | सचाई यह है कि उन्होंने धर्म संसद में पारित संकल्प को पूर्ण कराने के लिए उपवास का मार्ग चुना था | क्या था वह संकल्प ? जानने के लिए निम्नांकित लिंक पर क्लिक कीजिए -

धर्म संसद में पारित प्रस्ताव - जिसे लेकर गंगा भक्त संत सानंद ने आत्म बलिदान दिया |

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें