शोर थम गया, रफ्तार पाबंद, यही है जीवन - संजय तिवारी

लोक जीवन मे सनातन परंपराओं की याद भी कहाँ

हवा शुद्ध है। शोर थम गया। रफ्तार पाबंद । नीरवता समझ मे आ रही। सन्नाटा कैसे बुना जाता है, यह भी समझ मे आ रहा। आदमी, मानव , मनुष्य, मानुस, व्यक्ति, राजा, प्रजा, सेना, वैद्य, मंत्री, राज पुरुष, लोक, लोक जीवन, नगरीय जीवन, कस्बाई जीवन, श्रमिक, व्यवसायी, उद्योगपति, नौकरी, चाकरी, मजदूरी, दिहाड़ी, शासन, सत्ता, आदेश, निर्देश, आचरण, सभ्यता, संस्कृति, विकृति, आचार, आहार, व्यवहार, विहार, सुख, दुख, जीवन, मरण, सांस प्रच्छवास, गति, तेजी, ठहराव, रफ्तार, ऐश्वर्य, वैभव, आनंद, बेचैनी, व्याकुलता, रिश्ते, नाते, संबंध, समस्या, समाधान, सैनिक, असैनिक, राजकोष, निजी कोष, धन, दौलत, प्रतिष्ठा, औकात, सीमा, अभिव्यक्ति, आसक्ति, अनासक्ति, अभिमान, अनुमान, ईमानदार, बेईमान, ठग, सन्यासी, साधु, असाधु, भिखारी, भिक्षुक, जरूरत, ग़ैरजरूरत, अपने, पराए, आदर्श, अनादर्श, औषधि, अनौषधि, आवश्यकता, अतिरेक, सुविधा, असुविधा, ज्ञान, अज्ञान, शिक्षा, अशिक्षा, स्कूल, विद्यालय, विश्वविद्यालय, आलय, अनाथालय, आवश्यक, अनावश्यक।

बहुत ही कम दिनों में समझ मे तो आने ही लगा है। मृत्यु और रोग के भय ने कैसे सभी को ज्ञानी बनाना शुरू कर दिया है। जो जितना सुविधा सम्पन्न और ऐश्वर्यशाली है वह उतना ही डरा हुआ है। सभी दुबक गए हैं । विवशता ही सही , मानव निर्मित विकृतियों से प्रकृति को थोड़ी राहत तो अवश्य मिली है।

अब हवा चलती है तो पता चल रहा है। पानी गिरता है तो पता चल रहा है। कोई पड़ोस से गुजर रहा है तो पता चल रहा है। कोई चिड़िया बोल रही है तो पता चल रहा है। कुत्तों, पशुओं , चिड़ियों की आवाज में भूख , प्यास, बेचैनी का पता चल रहा है। पड़ोस में कोई भूखा है तो पता चल रहा है। कोई बीमार है तो पता चल रहा है। थोड़ी थोड़ी संवेदना जगने लगी है। मशीनी जिंदगी की जरूरत पर विराम से लगने लगा है। घरों में कोलाहल भी है, घबराहट भी है और सामूहिकता भी। हालांकि यह सब कुछ ही दिनों के लिए है लेकिन इसका असर बहुत गहरा और लंबा होगा, यह मेरा दावा है।

युद्ध, आपदा, विपत्ति, अव्यवस्था से ही जीवन के उस अतिरेक से मुक्ति का मार्ग निकलता है जिसको हम अपनी सुविधासम्पन्नता के लिए अंगीकार करते रहते है। आप खुद से पूछिए, आपकी महँगी गाड़ियां, बैंक की अकूत राशि, सोने, चांदी, जवाहरात, महँगी सुविधा, महंगी जरूरते, महँगे समान आपको इस समय काट नही रहे? कल्पना कीजिये यही अवस्था साल दो साल रही तो ?

हम सब तो भूल गए थे। घर, खेत,खलिहान, खलिहानी, मेह, दवरी, ओसावन, राशि। बगीचे तो कब के लील गए। बीजू वृक्ष गायब। पीपल ,पाकड़, बरगद, बकाइन, नीम, फरहद, गूलर, जामुन, महुआ, सेमर, खैर, सीहोर, शीशम, साखू, रूनी, रहिला। इनमें से क्या याद है। क्या पहचान सकते हैं आप। क्या क्या पहली बार देख रहे है। जाहिर है जो महानगरों में जो कैद हैं उन्हें अब भी यह सब कुछ नही दिख रहा होगा, ना ही समझ मे आ रहा होगा। जो अर्द्ध शहरी स्थानों पर फंसे हैं उन्हें सिर्फ याद भर आ रही होगी। जो कस्बो और गांवों में रह गए हैं उन्हें मजा ही आ रहा होगा।

दिक्कत वे महसूस कर रहे जिनको घर मे रहने की न आदत रही न उन्हें घर जैसा कुछ याद ही रह गया। वे तो देर रात सोने और सुबह बाथरूम जाने के अलावा वर्षो से कुछ और समझ ही नही पाए। दिन भर उड़ते , रफ्तार लेते, मीटिंग, सेटिंग और सिटिंग करते ,रात का अंधेरा होने पर मेजें सजाकर बैठने के अलावा उन्हें कहां पता कि जिंदगी में जिंदगी किस कोने में रहती है। नौकर, चाकर, सॉफर, ड्राइवर, चपरासी, सहायक, सीए के साथ रात दिन एक करने के बाद भी नींद के उपाय तलाशने पड़ते थे।

आजकल नींद भी आ रही और बेचैनी भी कम है। कोई तनाव भी नही क्योकि की तनाव के हर काम पर बंदी है। अब केवल दो समय की रोटी, पीने के पानी, जीवन की अनिवार्य जरूरतों और अपनों के सुरक्षित रहने भर की चिंता है। कहीं जाना नही, किसी को आना नही, कोई मीटिंग नही, कोई सिटींग नही, कोई उलझन नही। सुबह से शाम तक जीवन मे रहने का आचरण। जीवन के प्रति चिंता और जीवित रहने के प्रबंध। पता चल गया कि जीवन के लिए सबसे जरूरी है जीवन । जीवन के लिए जीने के साधन बहुत कम होते है। इनमें शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध विचार, शुद्ध आहार, शुद्ध व्यवहार, और संवेदना मूल तत्व हैं। यही तो सृष्टि आरंभ से कहती आ रही है। हम माने तो । मानना और न मानना हमारे हाथ। इसको विकृत करेंगे तो परिणाम यही होगा जो आज दिख रहा है। सृष्टि को प्रकृति तो बचाएगी ही।

क्रमशः

लेखक भारत संस्कृति न्यास के संस्थापक एवं वरिष्ठ पत्रकार है

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