लेबल

इंदौर के प्रथम मराठा शासक मल्हारराव होलकर व लोकमाता अहिल्यादेवी



मालवा व चम्बल अंचल के शासक सिंधिया वंश के ही समकक्ष रहे तेजस्वी मल्हार राव होलकर की रोमांचक कहानी |


कल्पना कीजिए उस बालक की जिसके सर से महज तीन वर्ष की आयु में ही पिता का साया उठ गया हो और रिश्तेदार उसे व उसकी विधवा मां को सहारा देने के स्थान पर उस मासूम को मारकर उसकी जायदाद पर कब्ज़ा करने का मंसूबा बाँध रहे हों | जी हाँ यहां से ही प्रारम्भ होती है हमारे कथानायक मल्हार राव की जीवन गाथा | मालवा के प्रथम शासक सिंधिया के पूर्वज तो एक गाँव के पटेल थे, किन्तु मालवा के दूसरे क्षत्रप मल्हार राव तो एकदम निपट अनाथ |

मां जिवाई 1696 में अपने तीन वर्षीय बालक की जान बचाने के लिए अपना गाँव होल छोड़कर अपने भाई भोजराज बार्गल के पास तलौदे गाँव पहुँच गईं | भोजराज पेशवा के एक अधिकारी कंठाजी कदमबांडे के अधीन २५ घुड़सवारों के नायक थे |मल्हार जब थोड़े बड़े हुए तो मामा ने उन्हें भेड चराने का काम सोंप दिया | जब मल्हार आठ वर्ष के थे, तब एक अद्भुत घटना घटी | एक दिन भेड़ चराते समय एक पेड़ की छांह में विश्राम करने लेटे, और नींद लग गई | तभी एक सर्प आकर उनके सिरहाने बैठ गया | दूर से कई लोगों ने यह नजारा देखकर उसकी मां को सूचना दी | मां और मामा भी उस स्थल पर पहुंचे और बालक की सुरक्षा की चिंता में परेशान हो गए, किन्तु नाग ने बच्चे को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया और शोर सुनकर वापस अपनी बाम्बी में चला गया |

मां ने दौड़कर मल्हार को जगाया और सीने से लगा लिया | जानकार लोगों ने मामा को कहा कि यह तो इस बालक के राजयोग का प्रतीक है | उस दिन से मामा का नजरिया ही बदल गया और मल्हार के दिन फिरने शुरू हो गए | किन्तु मां उनका भाग्योदय नहीं देख पाईं और कुछ समय बाद ही वे भी परम धाम की यात्रा पर रवाना हो गईं | 

युवा होते होते मामा ने अपनी बेटी गौतमा बाई का विवाह उनके साथ कर दिया और उनके प्रयत्नों से जल्द ही मल्हार राव पेशवा की सेना में पच्चीस घुड़सवारों के नायक बन गए | यह वह दौर था जब शिवाजी के पुत्र संभाजी के बलिदान के बाद बदले की आग में जलते मराठों ने मुग़ल शासन को उखाड़ फेंकने के लिए कमर कस ली थी | अभी तक वे केवल छापामार युद्ध करके मालवा के मुग़ल सूबेदारों को लूटते व परेशान करते थे, किन्तु अब पेशवा ने वहां अधिकार कर अपने जागीरदार नियुक्त करना शुरू कर दिया | पेशवा बाजीराव के नेत्रत्व में मराठों ने दक्षिण में गोदावरी नदी व उत्तर में गंगा नदी तक अपना राज्य सीमा का विस्तार कर लिया | 

1728 में हुई हैदराबाद के निजाम के साथ मराठों की लड़ाई में मल्हारराव की महत्वपूर्ण भूमिका रही | उन्होंने अपनी छोटी सी टुकड़ी के दम पर निजाम को मिलने वाली मुग़लों की रसद को रोक दिया, जिसकी वजह से निजाम को हराने में पेशवा को मदद मिली | मल्हार राव का प्रभाव बढ़ता गया और यहाँ तक कि मालवा में सिंधिया, होलकर, पंवार नए क्षत्रप बने | मुस्लिम शासकों द्वारा किये गए अत्याचारों से दुखी हिन्दू जनता ने इन नए शासकों को अपना मुक्तिदाता माना और देखते ही देखते मराठा साम्राज्य की जड़ें मालवा में गहरी से और गहरी होती चली गईं | 

इसके बाद मुग़ल बादशाह ने पहले मोहम्मद बंगश तथा उसके असफल रहने के बाद जयपुर के सवाई जयसिंह को मराठों से लड़ने भेजा, किन्तु किसी की दाल नहीं गली | और जैसा कि सिंधिया राजवंश के कथानक में मैंने वर्णन किया है, ३ अक्टूबर 1730 को मालवा के 74 परगनों का सरंजाम मल्हारराव होलकर को प्राप्त हुआ, राणोजी सिंधिया को उज्जैन, आनंदराव पंवार को धार, और तुकोजी व जीवाजी पंवार को देवास की जागीरें मिल गईं | 

मल्हार राव के इकलौते पुत्र खंडेराव काफी हद तक जिद्दी और क्रोधी थे, राजकाज में भी उनकी अधिक रूचि नहीं थी अतः वे ऐसी पुत्रवधू खोज रहे थे, जो उनके बेटे को राजकाज संभालने की प्रेरणा दे और स्वयं भी राज संभाले | मालवा के शासक बनने के दो वर्ष बाद सन 1734 में जब मल्हारराव इंदौर से पुणे जा रहे थे, तब चौण्डी गाँव के मंदिर में सायं आरती के समय उनकी नजर एक नौ वर्षीय बालिका पर पडी | उनकी पारखी नज़रों ने उस सांवली सलोनी बालिका के सुसंस्कार व दैवीय आभा को पहचान लिया और गाँव के पटेल माणको जी शिंदे की उस पुत्री को अपनी पुत्रवधू बनाने का निश्चय कर लिया | यह थीं हमारी सुपरिचित देवी अहिल्या बाई जो महज नौ वर्ष की आयु में होलकर साम्राज्य के अधिष्ठाता मल्हारराव की पुत्रवधू बनीं | अपने सद्गुणों व मधुर व्यवहार के कारण ससुराल में वे सबकी प्रिय बन गईं | मायके के ही समान सुबह जल्दी उठकर स्नान व ईश आराधन का क्रम उनका लगातार जारी रहा |

अहिल्या बाई ने अपनी सेवा और मधुर व्यवहार से पति खाण्डेराव को भी मानो जीत लिया | उनकी प्रेरणा से खाण्डेराव में भी बदलाव दिखने लगा | पारखी मल्हारराव ने समझ लिया था कि अहिल्याबाई में असाधारण योग्यता व बुद्धि है, अतः उन्होंने अहिल्याबाई पर शासन की जिम्मेदारी देना भी शुरू कर दिया | और वे भी मल्हारराव को एक आदर्श अनुयाई के समान भरपूर सहयोग देने लगीं | मल्हारराव का तो अधिकाँश समय युद्धों में ही बीतता था, पुत्र खाण्डेराव भी अपने पिता के साथ युद्धभूमि में जाते थे |1737 में दिल्ली में हुई जंग हो, या 1738 में भोपाल में निजाम को हराना हो, मल्हार राव का उनमें पूरा-पूरा योगदान रहा. यहां तक कि उन्होंने पुर्तगालियों से भी लडाइयां जीती | ऐसी स्थिति में मल्हारराव की अनुपस्थिति में राज्य के सभी कार्यों का सञ्चालन अहिल्याबाई बड़ी दक्षता से करने लगीं थीं | सन 1745 में अहिल्याबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिनका नाम मालेराव रखा गया | तीन वर्ष बाद 1748 में एक कन्या मुक्ताबाई ने जन्म लिया | मल्हार राव के परिवार में मानो स्वर्ग ही उतर आया था |

किन्तु विधाता ने तो कुछ और ही लिख रखा था | खंडेराव एक वीर सैनिक व अच्छे तलवारबाज थे | उन्होंने अनेक युद्धों में मल्हारराव के साथ भाग भी लिया था | वे ही नहीं अहिल्याबाई भी कई युद्धों में इन दोनों के साथ रही थीं | किन्तु 24 मार्च 1754 को मराठों ने सूरजमल जाट को कुम्भेरी के किले में घेरा हुआ था, तभी किले पर से चला एक गोला खंडेराव को लगा और उन्होंने वीरगति पाई | मल्हारराव व अहिल्याबाई पर तो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा | न केवल मराठा सेना बल्कि जाट भी इस अनहोनी से हतप्रभ हो गए | युद्ध बंद हो गया | अपने परमप्रिय इकलौते पुत्र के शव को ह्रदय से लगाकर मल्हारराव बिलख रहे थे | तभी यह दुखद समाचार पाकर अहिल्याबाई भी वहां पहुंची और पति को एकटक देखती रहीं | वे एक आदर्श हिन्दू नारी थीं, पति ही उनका सर्वस्व था | इधर खंडेराव की अंत्येष्टि की तैयारी शुरू हुई, उधर उन्होंने भी सती होने की तैयारी शुरू कर दी | मल्हारराव इकलौते जवान बेटे की मौत से पहले ही दुखी थे, अब अपनी परमप्रिय बहू की विदाई सामने देखकर तो उनकी हालत विक्षिप्तों जैसी हो गई | जिस बहू को वे भगवान का प्रसाद मानकर मंदिर से अपने घर लाये थे. उससे वे रुंधे कंठ से बोले –

आता तूच माझा मुलगा आहेस, तू गेल्यावर मला आधार कोणाचा ?

अब तू ही मेरा बेटा है, तू चली जायेगी तो मुझे कौन संभालेगा ?

इन दुःख भरे शब्दों को सुनकर वहां उपस्थित मराठा सैनिकों की रुलाई फूट पडी | 

मल्हार राव कहते जा रहे थे | बेटी सती होने का विचार त्याग दे, यह सारा राजपाट तुझे ही संभालना है, तू हम सबके लिए, सारी प्रजा के लिए जीवित रह | अहिल्या बाई बहुत समझदार व दूरदर्शी थीं | उन्हें अपने कर्तव्य व धर्म का पूरा ज्ञान था | मल्हारराव की हालत देखकर उन्हें समझते देर न लगी कि वे अब नदी किनारे खड़े एक झाड के समान हैं, बच्चे छोटे हैं, ऐसी हालत में उन्हें व प्रजा को कौन संभालेगा | बाद में उनकी कैसी दुर्दशा होगी – ये विचार उनके मनो मस्तिष्क पर छा गए | मन कह रहा था कि उस समय की प्रथा के अनुसार उन्हें सती हो जाना चाहिए, किन्तु दिमाग कह रहा था कि सती होने पर कीर्ति मिलेगी, मोक्ष मिलेगा, किन्तु सती न होने पर परिवार व प्रजाजनों का हित होगा | उनके जीवन का सारा सुख तो समाप्त हो ही चुका था, किन्तु उस रणभूमि में, दूसरों के सुख के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित करने का निश्चय किया | खंडेराव की अंत्येष्टि उसी स्थान पर कुम्भेरी दुर्ग के पास संपन्न हुई |

इतिहास साक्षी है कि उसके बाद अहिल्याबाई ने अपना शेष जीवन भगवान के चरणों में मानव मात्र की सेवा के लिए पूर्ण रूप से अर्पित कर दिया | यहाँ हिन्दू समाज की उस विशेषता का उल्लेख करना ही होगा जो विश्व के किसी भी अन्य समाज में होना दुर्लभ है | खाण्डेराव के निधन के बाद सूरजमल जाट ने न केवल गोले दागना बंद कर दिया, बल्कि अंतिम संस्कार स्थल पर खाण्डेराव की छतरी बनवाने में भी सहयोग किया | यह अलग बात है कि मल्हारराव को अंतिम समय तक उनसे अपने इकलौते पुत्र की मौत का बदला न ले पाने का मलाल रहा |

इधर मल्हार राव अपने इकलौते पुत्र के असामयिक निधन से दुखी थे, उधर महाराष्ट्र में गतिविधियाँ बहुत तेजी से चल रही थीं | बाजीराव पेशवा के भाई चिमाजी अप्पा के पुत्र सदाशिवराव भाऊ को देशी राज्यों के विरुद्ध सैनिक सफलताओं के कारण असाधारण सेनानी समझा जाने लगा था | पश्चिमी कर्नाटक में मराठा आधिपत्य स्थापित कर और विद्रोही यामाजी शिवदेव से संगोला का किला जीतकर भाऊ का कद लगातार बढ़ता जा रहा था | दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मुगलों का स्वर्णिम काल बीत चुका था और दिल्ली का तख़्त-ए-ताउस मराठों के भरोसे अंतिम सांसे ले रहा था | यह स्थिति देखकर पंजाब में सफलता से उत्साहित अफगान लुटेरे अहमदशाह अब्दाली ने अपने कदम दिल्ली की तरफ बढ़ा दिए | उसे रोकने की ज़िम्मेदारी एक बार फिर मराठा सरदारों के सामने आई |

1761 में मराठों ने अपने असाधारण सेनानी सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में अब्दाली से दो-दो हाथ करने के लिए कूच किया | उस वक़्त उनकी आयु महज़ 31 साल थी | उनके साथ बालाजी बाजीराव पेशवा के सबसे प्रिय बेटे बीस वर्षीय विश्वासराव भी थे | मल्हार राव होल्कर और महादजी सिंधिया भी अपनी अपनी सेनाओं के साथ मैदान में डटे थे | भाऊ की अगुआई में मराठा सेना का मनोबल सातवें आसमान पर था | 

2 अगस्त को भाऊ ने दिल्ली पर अधिकार किया। 10 अक्टूबर को शाह आलम को दिल्ली का सम्राट् घोषित किया। फिर, 17 अक्टूबर को कुंजपुरा विजय कर, 31 अक्टूबर को वह पानीपत पहुँच गया। 4 नवम्बर को विपक्षी सेनाएँ आमने सामने खड़ी हो गईं। प्राय: ढाई महीने की मोर्चाबंदी के बाद, 14 जनवरी 1761 के दिन समूचे भारतीय इतिहास के घोरतम युद्धों में से एक, पानीपत का युद्ध प्रारंभ हुआ। भले ही मराठा सेना संख्याबल में कम थी, लेकिन अफ़गान सेना पर भारी पड़ रही थी, लेकिन तभी बाजी पलट गई |

हुआ कुछ यूं कि विश्वासराव को गोली लग गई और वो मैदान में गिर पड़े | भाऊ विश्वासराव से बहुत प्यार करते थे. जैसे ही उन्होंने उनको गिरते हुए देखा, तो मोह और गुस्से ने उनकी सोचने समझने की शक्ति छीन ली | उनसे गलती यह हुई कि वे अपने हाथी से उतरे और एक घोड़े पर सवार हो कर दुश्मनों के बीच घुस गए | 

मराठा सेना को जैसे ही हाथी पर हौदा ख़ाली नज़र आया तो उनमें दहशत फ़ैल गई | उन्हें लगा कि उनका सेनापति युद्ध में मारा गया | अफरा-तफरी मच गई | मराठा सेना का मनोबल टूटा देखकर अफ़गान सेना में नया जोश आ गया |

फिर तो बेरहमी से मराठा सेना का क़त्लेआम हुआ | हालांकि भाऊ अंतिम सांस तक लड़ते रहे | एक लंबे संघर्ष के बाद ही उनकी जान ली जा सकी | उनका बिना सिर वाला शरीर जंग के तीन दिन बाद लाशों के ढेर से बरामद हुआ. जिसका पूरे रीतिरिवाजों के साथ 20 जनवरी 1761 को अंतिम-संस्कार किया गया.

इस युद्ध ने सिंधिया तथा होलकर दोनों की कीर्ति भी धुंधली कर दी | अल्पवयस्क 17 वर्षीय जनकोजी सिंधिया अफगानों की गिरफ्त में आ गए, और बाद में उनका क़त्ल कर दिया गया | उनके चाचा और राणोजी के सबसे छोटे बेटे महाद जी भी लड़ाई से घायल होने के बाद एक मुस्लिम मुहम्मद राणे खान की मदद से बच गए थे, जो पानी ढोने वाले अपने बैल पर, चमड़े की मशकों के बीच उन्हें बांध कर बचा लाया था । महादजी ने राणे खान के उपकार को आजीवन नहीं भुलाया | राणे खान के वंशज अभी भी सिंधिया घराने में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । 

मल्हारराव होल्कर को लेकर भी इतिहासकारों में दो मत हैं | एक मत तो यही है कि निश्चित पराजय देखकर वे युद्ध भूमि से पलायन कर गए, किन्तु कुछ इतिहासकारों का मानना है कि स्वयं भाऊ ने उन्हें अपनी प्रिय पत्नी पार्वतीबाई व अन्य महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी देकर वहां से रवाना कर दिया था | यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि उन दिनों मराठा और राजपूत युद्ध नीति में मौलिक अंतर था | राजपूत जहाँ युद्ध में पीठ दिखाने के स्थान पर लड़ते लड़ते मर जाना उचित समझते थे, जबकि मराठा योद्धाओं में विजिगीशु वृत्ति थी | हर हाल में जीतने की इच्छा और जीत के लिए मौके का इंतज़ार | छत्रपति शिवाजी महाराज का उदाहरण सामने है | अफजल खान ने पुणे को नष्ट कर दिया | जनश्रुति के अनुसार तो वहां के भवनों को धुल में मिलाकर गधे से जुतवा दिया | इतना ही नहीं तो शिवाजी की कुलदेवी तुलजा भवानी मंदिर को भी ध्वस्त कर दिया | लोकनिंदा की परवाह न करते हुए शिवाजी उसके सामने न आये | बल्कि रणनीति पूर्वक अफजल खान के सामने माफीनामा भेजकर उसे जावली के जंगल में बुलवाया और आगे की कहानी सब जानते हैं | अफजल खान का बघनख से शिकार किया, तुलजा भवानी मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया, पुणे को सोने के हल से जुतवाकर फिर से बसाया |

पानीपत के भीषण युद्ध में लगभग एक लाख मराठा सैनिक तथा असैनिक खेत रहे। यह युद्ध मराठाओं के प्रभाव क्षेत्र में नहीं हुआ था, अतः अगर निश्चित पराजय देखकर और विश्वास राव व भाऊ को मृत मानकर अगर मल्हार राव और महाद जी सिंधिया वहां से पलायन भी कर गए तो इसमें मराठा रणनीति ही समझी जा सकती है | शक्ति संचय कर फिर शत्रु का मुकाबला करने की नीति | 

जो भी हो युवा पेशवा विश्वासराव की मौत का सदमा मराठी जनता के लिए बहुत भारी था| पूरा महाराष्ट्र हफ़्तों तक शोक मनाता रहा | उसके बाद से ही जब मराठी मानुस को कोई भरोसा दिलाने के लिए कहता है कि मुझ पर विश्वास करो तो उसका जबाब होता है - ‘विश्वास तर गेला पानीपतच्या लढाईत.’ (विश्वास तो पानीपत के युद्ध में ही मर गया था) | संभवतः इस प्रकार आम महाराष्ट्रियन अपने युवा पेशवा को सदा स्मरण रखते हैं | 

पानीपत में मराठा भले ही पराजित हुए हों, लेकिन नुक्सान अहमदशाह का भी कम नहीं हुआ था | उसने वापस अफगानिस्तान की राह पकड़ ली और सिंधिया और होलकर पुनः शक्ति संचय में जुटे | एक ओर तो युवा पुत्र की मृत्यु और दूसरी ओर पानीपत की पराजय, मल्हार राव भी मन से पूरी तरह टूट चुके थे | अंततः 20 मई 1766 को उन्होंने इस असार संसार से विदा ले ली | अपनी कर्मभूमि से दूर आज के भिंड जिले के आलमपुर नामक स्थान पर उन्होंने आखिरी सांस ली, जहाँ आज भी उनकी स्मृति में छतरी बनी हुई है |

मल्हारराव के बाद महारानी अहिल्याबाई की देखरेख में उनके इकलौते पुत्र मालेराव ने सत्ता संभाली लेकिन ईश्वर तो पूरी परीक्षा लेने पर आमादा थे | 5 अप्रैल 1767 को मात्र 22 वर्ष की आयु में मालेराव भी स्वर्ग सिधार गए ! अपने दुस्सः दुःख को अपने अंतस में छुपाये अहिल्याबाई ने कर्तव्य पथ पर कदम किस प्रकार आगे बढाए और यह दुखियारी महारानी किस प्रकार जनता को सुखी रखने हेतु समर्पित हुई, आईये उस पर नजर डालते हैं | 

देवी अहिल्याबाई की धार्मिकता व उनके द्वारा किये गए सामाजिक कार्यों को तो सब जानते हैं फिर चाहे पुण्यसलिला नदियों पर घाट बनवाने की बात हो, आतताईयों द्वारा ध्वस्त किये गए मंदिरों के जीर्णोद्धार का कार्य हो या प्रजावत्सलता हो, लेकिन उनके शौर्य और बुद्धि चातुर्य की चर्चा कम हुई है | 

उनके श्वसुर व पुत्र की मृत्यु के बाद होलकर राज्य व वैभव को हड़पने के कुचक्र चालू हो गए | पहले तो प्रयत्न हुआ कि अहिल्याबाई किसी बालक को गोद लेकर सारे अधिकार उसे सोंप दें | अपने अपने नजदीकी को दत्तक बनवाने के प्रयत्न दरबारी करने लगे | पर अहिल्याबाई की चतुरता के सामने किसी की एक न चली | होलकर राज्य के एक पुराने प्रमुख अधिकारी थे गंगाधर यशवंत चंद्रचूड, उसकी महत्वाकांक्षा सीमातीत हो गई उसने तत्कालीन पेशवा माधव राव के प्रभावशाली चाचा रघुनाथ राव उपाख्य राघोबा को समझाया कि एक अबला और दुखियारी विधवा कैसे राजकाज चलाएगी, होलकर राज्य इस समय स्वामी विहीन है, अतः आप ही आकर इसे अपने स्वामित्व में लो | 

राघोबा को भी लगा कि एक संपन्न राज्य उनके अधिपत्य में आ रहा है, तो वे लाव लश्कर के साथ सेना लेकर पुणे से इंदौर के लिए रवाना हो गए | अहिल्याबाई को जैसे ही इस षडयंत्र का पता चला उन्होंने अपने आंसू पोंछ डाले और पूर्ण आत्मविश्वास के साथ इस संकट से जूझने को तत्पर हो गईं | उन्होंने सक्रिय होकर सभी मराठा सरदारों को सन्देश भेजकर अपने साथ हो रहे अन्याय से अवगत कराया, प्रजाजनों की भावना अपने साथ जोडी, पेशवा माधवराव के पास दूत भेजे और साथ ही राघोबा को भी एक पत्र के माध्यम से स्पष्ट सन्देश भेज दिया | पत्र में लिखा था – 

आप सेना लेकर मेरा राज्य छीनने आये हैं, पर आपकी यह इच्छा कभी भी पूर्ण नहीं होगी | मेरी सेना तो आपका मुकाबला करेगी ही, साथ ही मैं स्वयं भी तलवार लेकर रणक्षेत्र में उतरूंगी | मैं हार गई तो कोई भी मेरी हंसी नहीं उडाएगा, लेकिन अगर आप हार गए तो कहीं भी मुंह दिखाने योग्य नहीं रहोगे | साथ ही दोनों स्थितियों में एक अबला पर आक्रमण करने का कलंक तो आपके नाम पर लगेगा ही, जो कभी नहीं मिट सकेगा | 

नम्बरी कूटनीतिज्ञ राघोबा के हाथों के तोते उड़ गए | गुप्तचरों द्वारा उसे सूचना मिल चुकी थी कि छिप्रा तट पर तुकोजीराव होलकर के नेतृत्व में सेना उसका मुकाबला करने को तैयार खडी है, महा प्रतापी महादजी सिंधिया भी उसके विरोध में ग्वालियर से रवाना होने जा रहे हैं, स्वयं पेशवा माधवराव भी उससे खिन्न हैं | उसने तुरंत जबाब भेजा कि मैं तो आपके पुत्र की मृत्यु पर शोक जताने आया हूँ, आप गलत समझ रही हो | अहिल्याबाई ने जबाब भेजा, शोक जताने आये हो तो सेना क्यूं लाये हो, पालकी में बैठकर अकेले आईये, हमारा घर आपका ही है | मुंह लटकाए राघोबा पालकी में बैठकर तुकोजी के पास पहुंचे और फिर इंदौर जाकर अहिल्याबाई से भेंट की | अहिल्याबाई ने आदर के साथ उनका स्वागत सम्मान किया | इस षडयंत्र का सूत्रधार गंगाधर चंद्रचूड लज्जित होकर तीर्थयात्रा के लिए चला गया | अहिल्याबाई की कीर्तिपताका पूरे राज्य में फहराने लगी | 

इंदौर से पति, श्वसुर और पुत्र की स्मृतियाँ जुड़ी हुई थीं अतः उन्होंने नर्मदा किनारे बसी पौराणिक नगरी महेश्वर से ही राजकाज का संचालन करना प्रारम्भ किया | अत्यंत सामान्य एक दोमंजिला भवन से प्रतिदिन नर्मदा स्नान के बाद उनकी दिनचर्या शुरू होती | उन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि शस्त्रबल से सिर्फ दुनिया जीती जाती होगी, लेकिन लोगों के दिलों पर तो प्रेम और धर्म से ही राज किया जाता है । 

शासन की बागडोर जब अहिल्याबाई ने अपने हाथ में ली, राज्य में बड़ी अशांति थी। चोर, डाकू आदि के उपद्रवों से लोग बहुत तंग थे। उन्होंने विचार किया कि राजा का सबसे पहला कर्त्तव्य प्रजा को निर्भयता और शांति प्रदान करना है। अतः उन्होंने दरबार किया और अपने सारे सरदारों और प्रजा के सामने घोषणा की कि जो वीर पुरुष इन उपद्रवी तत्वों को काबू में ले आवेगा, उसके साथ मैं अपनी इकलौती बेटी मुक्ताबाई की शादी कर दूँगी।' 

इस घोषणा को सुनकर यशवंतराव फणसे नामक एक युवक उठा और उसने बड़ी नम्रता से अहिल्याबाई से कहा कि वह यह काम कर सकता है। महारानी बहुत प्रसन्न हुई। यशवंतराव अपने काम में लग गये और बहुत थोड़े समय में उन्होंने सारे राज्य में शांति की स्थापना कर दी। महारानी ने बड़ी प्रसन्नता और बड़े समारोह के साथ मुक्ताबाई का विवाह यशवंतराव फणसे से कर दिया। 

इसके बाद अहिल्याबाई का ध्यान शासन के भीतरी सुधारों की तरफ गया। राज्य में शांति और सुरक्षा की स्थापना होते ही व्यापार-व्यवसाय और कला-कौशल की बढ़ोत्तरी होने लगी और लोगों को ज्ञान की उपासना का अवसर भी मिलने लगा। नर्मदा के तीर पर महेश्वरी उनकी राजधानी थी। वहाँ तरह-तरह के कारीगर आने लगे ओर शीघ्र ही वस्त्र-निर्माण का वह एक सुंदर केंद्र बन गया। 

लेकिन हा विधाता कितने कष्ट दोगे अपने भक्तों को ? बेटी मुक्ताबाई ने एक पुत्र नथ्याबा को जन्म दिया, स्वाभाविक ही महारानी अहिल्याबाई उसे बहुत प्यार करती थीं, उसे ही अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहती थीं | बड़े अरमानों के साथ उसकी शादी की, किन्तु 1787 में क्षयरोग से ग्रस्त होकर वह भी प्रभुचरणों में पहुँच गया | नथ्याबा के पिता अर्थात अहिल्याबाई के दामाद यशवंतराव भी बेटे का बिछोह नहीं सहन कर पाए और 3 दिसंबर 1791 को वे भी दुनिया से विदा ले गए | मां की आँखों के सामने बेटी मुक्ताबाई ने भी पति का सर अपनी गोद में रखकर उनके साथ चिता में प्रवेश कर लिया, सती हो गईं | कितना झेलतीं महारानी अहिल्याबाई ? अंततः 1795 में उन्होंने भी संसार से विदा ले ली | अपने दुखों को अपने अंतस में छुपाये वे मृत्यु पर्यन्त कर्तव्य पता पर अविचल चलती रहीं | कौन होगा जिसकी आँखों में इस व्यथाकथा को पढ़कर सुनकर अश्रुजल नहीं छलछलायेंगे | आदर्श शासक से बढाकर भारत की महान मातृशक्ति की प्रतीक देवी अहिल्याबाई के श्रीचरणों में सादर नमन |
एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

  1. निःशब्द ।लिखने लायक कुछ भी नही है। स्तब्ध है पढ़ कर। पिछले जन्म की भरपाई हुई।इस जन्म मे तो कुछ भी बुरा नही किया।फिर भी बहुत दुःख झेले

    जवाब देंहटाएं