जनसँख्या नियंत्रण और वीर हकीकतराय !

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कुछ समय पूर्व एक टीवी डिवेट में रवीश जी को सुना था | बहस चल रही थी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर, लेकिन उसमें यह बिंदु भी आया कि हिन्दुओ...



कुछ समय पूर्व एक टीवी डिवेट में रवीश जी को सुना था | बहस चल रही थी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर, लेकिन उसमें यह बिंदु भी आया कि हिन्दुओं की तुलना में आनुपातिक रूप से मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ रही है | | रवीश जी ने शाइस्तगी से फ़रमाया कि बेमतलब की बातें हैं, मान भी लिया जाए कि देश में मुस्लिम बहुसंख्यक हो गए, तो भी कहाँ का आसमान टूट पडेगा ? 

मुझे चासनी में लपेट कर बात करना नहीं आता | प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में बहुसंख्यक का मतलब है सत्ता पर काबिज होना | मेरा मानना है कि जब तक देश में हिन्दू बहुसंख्यक है, तभी तक सहिष्णुता और सेक्यूलर शब्द जैसे प्रयोग चल रहे हैं | रवीश जी जैसे तथाकथित सेक्यूलरों के तर्क सुनकर मेरी आँखों के सामने अठारवीं सदी का मंजर घूमने लगता है | मेरी हैरत तब और बढ़ जाती है, जब जनसंख्या नियंत्रण जैसे महत्वपूर्ण सवाल को मुस्लिम विरोधी बता दिया जाता है | तो ऐसे लोगों को मैं कहना चाहता हूँ, कि हाँ जनसंख्या नियंत्रण इसलिए भी जरूरी है कि सर्व धर्म समभाव बाले सहिष्णु हिन्दू बहुसंख्यक बने रहें | एक बार हिन्दू अल्पसंख्यक हुआ, उसके बाद क्या होगा यह जानने के लिए चलते हैं एक पुरानी कहानी की ओर | 

यह कहानी है १७३४ की | पंजाब के सियालकोट में भागमल नामक एक सज्जन अपने बेटे हकीकत राय को फारसी की शिक्षा दिलवाने एक मौलवी जी के पास लेकर गए | जन्‍म से ही कुशाग्र बुद्धि के बालक हकीकत ने 4-5 वर्ष की आयु से ही इतिहास तथा संस्कृत आदि पढ़ना शुरू कर दिया था | उस जमाने में बाल विवाह आम बात थे, तो हकीकत की शादी के बाद पिता को लगा कि मुस्लिम राज्य में रोजी रोटी कमाने और अपने पैरों पर खड़े होने के लिए फारसी सीखना भी जरूरी है, इसलिए वे उसे मदरसे में मौलवी के पास लेकर गए | मौलवी साहब को दस्तूर के मुताबिक़ मिठाई और कुछ धन देकर पिता ने बेटे को मदरसे में भर्ती करा दिया और उसकी शिक्षा भी शुरू हो गई | धीरे धीरे उसकी प्रतिभा ने मौलवी साहब को भी प्रभावित कर लिया | जो भी पाठ दिया जाता, वह उसे तुरंत याद कर लेता, समझ लेता | लेकिन जब वे बार बार उसकी तारीफ़ करने लगे, तो सहपाठी छात्र कुढने लगे | एक दिन मौलवी की अनुपस्थिति में हकीकत अपना पाठ याद कर रहा था, तब शेष बच्चे खेलने और ऊधम मचाने में जुट गए | लेकिन तभी खेलते बच्चों में से एक का ध्यान हकीकत की तरफ गया | उसने दूसरों से कहा – 

देखो देखो हम सब खेल रहे हैं और ये हकीकत का बच्चा पढ़ रहा है | इसे भी साथ मिलाओ, वर्ना मियाँ जी के आते ही उनके कान भरेगा और हमारी उलटी सीधी शिकायत करेगा | अगर हील हुज्जत करे तो दो चपत लगाओ | 

सभी हकीकत से कुढ़े बैठे थे, सो सबको बात जम गई और उन लोगों ने उसे साथ खेलने के लिए बुलाया | हकीकत के मना करने पर सब लोग उसके हाथ पकड़कर खींचने लगे | हकीकत ने झल्ला कर कहा, देखो मुझे तंग मत करो, वर्ना दुर्गा भवानी की कसम, मैं मुल्ला जी से जरूर तुम्हारी शिकायत करूंगा | 

यह एक शब्द दुर्गा भवानी की कसम उसे बहुत भारी पड़ गया | कुछ लड़कों ने दुर्गा जी को लेकर अनाप शनाप गाली गलौच देना शुरू कर दिया | हकीकत ने उन्हें टोका, देखो मुझसे झगडा करना है, तो करो, मुझे मारो पीटो, लेकिन हमारे देवी देवताओं को गालियाँ देने का क्या मतलव है | 

लेकिन जब लडके नहीं माने और अपशब्दों की मानो बाढ़ ही आ गई, तब हकीकत राय ने भी तुर्की बतुर्की जबाब देते हुए कहा कि जो बातें तुम लोग दुर्गा भवानी के लिए कह रहे हो, जो अल्फाज दुर्गा जी के लिए बोल रहे हो, बही सब अपनी फातिमा के लिए समझ लो | 

और उसके बाद बच्चों का यह छोटा सा बादविवाद देखते ही देखते, कितना बढ़ गया, यह पढकर सुनकर ही हैरत होती है | मौलवी साहब के आते ही लड़कों ने इकट्ठे होकर हकीकत की शिकायत की | सुनते ही मुल्ला जी पूर्व में की गईं हकीकत की सारी तारीफें भूल गए | उसकी जो पिटाई दूसरे लड़कों ने की थी, वह कोई मुद्दा ही नहीं समझा गया, उन्हें याद रहा तो केवल यह कि एक काफिर लडके ने रसूल जादी के खिलाफ अपशब्द निकाले हैं | 

ईश निंदा कानून जैसे शब्दों की उस जमाने में जरूरत ही कहाँ थी | दुर्गा जी को क्या कहा गया, कौन पूछने वाला था ? आनन् फानन में मौलवी साहब ने हकीकत राय को शहर काजी के सामने प्रस्‍तुत कर दिया । सारे झमेले की बात सुनकर हकीकत के परिजन भी वहां पहुँच गए | इन सब द्वारा लाख सही बात बताने के बाद भी काजी ने उनकी एक न सुनी और निर्णय सुनाया कि शरियत के अनुसार इसके लिये मृत्युदण्ड है | या तो बालक मुसलमान बन जाये, अन्यथा इसका सर कलम कर दिया जाए । काजी का गुस्सा इतने पर ही नहीं थमा, उसने माता पिता व सगे सम्‍बन्धियों को भी इसके लिए कसूरवार मान लिया, एक गुस्ताख लडके को जन्म देना क्या कम था, इन काफिरों की इतनी हिम्मत कि उसके बचाव में मेरे सामने आकर बहस की | डाल दो इन लोगों को भी जेल की काल कोठरी में | 

घर में हकीकत की मां कौरां का रो रोकर बुरा हाल था | समाज के लोगों को जानकारी मिली तो वे भी दौड़े आये, पर इतना भर हुआ कि काजी ने उनके कहने पर परिवार के लोगों को छोड़ दिया, वह भी इस शर्त पर कि वे हकीकत को इस्लाम कबूलने के लिए मनाएं | मातापिता ने समझाया भी कि मेरे लाल मुसलमान बन जा, तू हमारी आँखों के आगे कम से कम जिन्‍दा तो रहेगा। किन्‍तु हकीकत राय ने उन लोगों को ही जाजबाब कर दिया | उसने काजी से मुखातिब होकर पूछा – 

जनाब क्या इस्लाम कबूल करने के बाद मुझे मरना नहीं पडेगा ? काजी ने कहा बेशक ? हकीकत ने अपनी बात और स्पष्ट की – क्या कभी नहीं मरूंगा ? काजी की समझ में अब जाकर आया, उसने कहा - क्या मूर्खतापूर्ण बाहियात सवाल है, जो पैदा हुआ है एक न एक दिन उसे मरना तो पडेगा ही | हकीकत हंस पड़ा – 

कोई परवाह नहीं, जान रहे या न रहे, 

चार दिन दुनिया में महमान रहे न रहे, 

मुसलमां हो भी गया, मरना तो फिर भी होगा, 

काजी तू ओ तेरे बच्चे सदा धरती पे आबाद रहे | 

अपने निश्‍चय पर उसे अडि़ग देखकर काजी ने कहा कि ये सब बातें तू तभी तक कर रहा है, जब तक तूने जल्लाद और उसके हाथ में पकड़ी तलवार नहीं देखी, सारी शेखी निकल जायेगी, उसे देखते ही | डाल दो तब तक के लिए इस नाफरमान को हवालात में | स्वाभाविक ही बच्चों के साधारण झगड़े को दिया गया यह रूप हिन्दू समाज को झकझोर गया और इस असंतोष की गूँज सियालकोट के हाकिम अमीर बेग तक भी पहुंची और उसके मार्फ़त लाहौर के नाजिम तक | सारे हिन्दू समाज की दरख्वास्त पर नाजिम ने हकीकत को नामचीन लोगों की जमानत पर जेल से रिहा कर दिया | फिर वही हुआ, जिसे हम आज भी थोड़े छोटे रूप में गाहे बगाहे देखते रहते हैं | शुक्रवार की नमाज के बाद तकरीरें हुई और लाहौर गरमा गया | और नतीजा वही निकला ढाक के तीन पात | या तो हकीकत इस्लाम कबूल करे या फिर मौत को गले लगाए | और फिर सन १७३४ की वह बसंत पंचमी भी आई | बधस्थल पर इतनी कम उम्र के बच्चे पर तलवार उठाते एक बारगी जल्लाद की भी आखें डबडबा गईं | लेकिन सरकारी मुलाजिम था, हुकुम की तालीम तो करनी ही थी | हकीकत राय धर्म पर बलिदान हो गया | बसंत जब भी आता है, खिलती हुई कलियाँ मानो पूछती हैं, उस नन्हीं कली को मसला गया, आखिर उसका कसूर क्या था ? अगर वह कसूरवार था,तो दुर्गा मां को गालियाँ देने वाले बच्चे कसूरवार क्यों नहीं थे ? 

जिस समय हकीकत राय का बलिदान हुआ, उनकी नौ वर्षीय पत्नी लक्ष्मी भी बटाला में चिता सजाकर सती हो गई, उनकी स्मृति में वहां एक मंदिर निर्मित है | 1947 में भारत के विभाजन से पहले, हर हिन्दू बसंत पंचमी पर लाहौर स्थित उनकी समाधि पर एकत्रित होते थे। विभाजन के बाद उनकी एक प्रतीकात्मक समाधि होशियारपुर जिले के "ब्योली के बाबा भंडारी" में निर्मित की गई है, जहाँ बसंत पंचमी को उन्हें श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाते हैं । 

जो समझ सकते हैं वो समझ लें, और प्रभावी जनसँख्या नियंत्रण क़ानून बनाने की पुरजोर आवाज उठायें |

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जनसँख्या नियंत्रण और वीर हकीकतराय !
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