मारवाड़ की कहानी भाग 1 | Prathviraj, Jaichand and his grandson Siyaji

प्रथ्वीराज, जयचंद और उनके पौत्र सियाजी ! 

महमूद के आक्रमण के पूर्व उत्तर भारत मुख्यतः चार राज्यों में बंटा हुआ था – दिल्ली के तंवर और चौहान, कन्नौज के राठौड़, मेवाड़ के गहलोत और अनहलबाड गुजरात के चावड़ा और सोलंकी | कमाल की बात देखिये कि जिस मोहम्मद गौरी ने सबसे पहले भारत में राज्य स्थापित कर जमने का विचार किया, उसे दिल्ली के तोमर राजा अनंगपाल ने सबसे पहले पराजित किया, किन्तु जब वृद्धावस्था के कारण राज्यभार अपनी पुत्री के पुत्र अजमेर के चौहान राजकुमार प्रथ्वीराज को देकर वान्यप्रस्थ ग्रहण कर लिया तब उनकी दूसरी पुत्री के पुत्र जयचंद को प्रथ्वीराज से ईर्ष्या उत्पन्न हो गई | ईर्ष्या कितनी बढ़ी उसका भी एक उदाहरण देखिये – जयचंद ने भी गौरी को पराजित किया और उस विजय के बाद राजसूय यज्ञ का आयोजन किया | संभवतः पांडवों के बाद यह पहला राजसूय यज्ञ था | जयचंद ने घोषणा की कि यज्ञ के उपरांत अपनी पुत्री संयोगिता के लिए स्वयंबर का आयोजन भी किया जाएगा | संयोगिता जिसके गले में वरमाला डाल देगी, उसी के साथ उसका विवाह संपन्न होगा | किन्तु इस भव्य आयोजन में देशभर के राजाओं को तो आमंत्रित किया किन्तु ईर्ष्या में अंधे होकर प्रथ्वीराज को नहीं बुलवाया | इतना ही नहीं तो उन्हें अपमानित करने की द्रष्टि से प्रथ्वीराज चौहान और उनके अभिन्न सहयोगी मित्र मेवाड़ के समरसिंह गहलोत की स्वर्ण प्रतिमाएं बनवाकर उन्हें द्वारपाल के स्थान पर खडी कर दीं | 

यह समाचार जब प्रथ्वीराज ने सुना तो उनके क्रोध का ठिकाना नहीं रहा और उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब तो मैं ही संयोगिता से विवाह करूंगा | और यह निर्णय ही भारत के भावी विनाश का कारण बना | स्वयंबर के दौरान प्रथ्वीराज ने संयोगिता का अपहरण तो कर लिया, किन्तु उसके बाद राठौड़ों और चौहानों के बीच हुए घमासान युद्ध में अगणित राजपूत वीरों ने जान गंवाई | चंद वरदाई ने लिखा है कि पांच दिन तक घोर युद्ध हुआ, जिसमें दोनों ओर का सेनाबल नष्ट हुआ | जयचंद पराजित हुए और उसके बाद प्रथ्वीराज संयोगिता के मोहपाश में ऐसे बंधे कि राजकाज की और ही दुर्लक्ष्य हो गया | उनके कविमित्र चंदवरदाई ने बमुश्किल एक पत्र उन तक पहुँचाया, जिसमें लिखा था – 

नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहीं बसंत यह काल, 

अली कली ही सों बंध्यो, आगे कौन हवाल | 

भाव यह था कि ना उम्र है ना परिस्थिति है, भंवरा अगर कली से ही बंध जाएगा, तो कैसे चलेगा ? इसे पढ़कर प्रथ्वीराज सचेत तो हुए, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी, चतुर गौरी ने मौके का लाभ उठाकर हमला किया और हिन्दोस्थान की स्वतंत्रता का सर्वनाश हुआ | उसने पहले प्रथ्वीराज को और उसके बाद जयचंद को पराजित कर दिल्ली और कन्नौज दोनों राजपूत प्रभुसत्ताओं का अंत कर दिया | प्रथ्वीराज की अंतिम यात्रा का वह प्रसंग तो सर्वज्ञात है कि कैसे गौरी ने बंदी प्रथ्वीराज की आँखें फोड़कर उन्हें अँधा बनाया और कैसे चंदवरदाई की प्रेरणा से गौरी ने अंधे प्रथ्वीराज से शब्दभेदी वाण चलवाया और चंद वरदाई ने वह अविस्मरनीय छंद पढ़ा – 

चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण, 

ता ऊपर सुलतान है, मत चुके चौहान | 

अंधे प्रथ्वीराज को गौरी कहाँ बैठा है, यह अनुमान हो गया, और अचूक निशाना लगाकर तबे को फोड़ने के बाद जैसे ही गौरी ने कहा मरहबा मरहबा वाह वाह – बैसे ही प्रथ्वीराज ने अगले निशाने पर गौरी को ले लिया और वह गंभीर रूप से घायल हुआ | उसके बाद प्रथ्वीराज ने गौरी के दरबार में वीरगति पाई, तो जयचंद ने ११९३ में गंगा के अथाह जल में अपनी जीवन यात्रा सम्पूर्ण की | किन्तु जयचंद के कुछ वंशजों ने मरुभूमि में जाकर शरण ली और उस रेगिस्तानी धरा पर शौर्य की अनुपम गाथा लिखी | 

इतिहासकारों ने मरुभूमि का शब्दार्थ किया है मृतकों का देश अर्थात जहाँ का जीवन इतनी कठिनाईयों से भरा हुआ हो, कि कदम कदम पर मृत्यु सामने खडी दिखाई दे | शायद यही कारण है कि मरुभूमि राजस्थान के बासिन्दे सदा मृत्यु को खेल ही समझते रहे | यह आज के राजस्थान का नहीं, एक हजार साल पहले का वर्णन है | जयचंद के पौत्र सियाजी और संतराम अपने दो सौ साथियों के साथ कन्नौज से निकलकर यहाँ वहां भटकते अंततः अठारह वर्ष बाद अर्थात १२१२ में आज के बीकानेर से २० मील पश्चिम में कोलूमढ़ नामक स्थान पर पहुंचे | वहां के सोलंकी राजा ने इनके प्रति उदार और आत्मीय व्यवहार दर्शाया | सियाजी अपने सभी साथियों के साथ प्रसन्नता पूर्वक वहां निवास करने लगे | कोलूमढ़ के राजा को फूलरा दुर्ग के अधिपति व अत्यंत पराक्रमी दस्युराज लाखा फूलाणी से सदा भय रहता था | सतलज से लेकर समुद्र तक उन दिनों लाखा का प्रभाव क्षेत्र था व उससे सब भयभीत रहते थे | वह कहने को डकैत थे लेकिन गरीबों की नजर में नायक भी | अमीरों को लूटते और गरीबों को खुले हाथों से बाँटते | लोनी नदी से सिन्धु नदी तक के इलाके में उनकी प्रशंसा के गीत गाये जाते थे | राजस्थान के छः प्राचीन नगर उसके वश में थे | 

कशपगढ़ा, सूरजपुरा,वशकगढ़ा ताको, 

अन्धानीगढ़, जगरूपूरा, फूलगढ़े लाखो | 

अर्थात कश्यपगढ़, सूर्यपुर, वशकगढ़, अधानी गढ़, जगरूपुर और फूल्गढ़ी लाखा के अधीन थे | सीधी सी बात है कि वीरभूमि राजस्थान के खलनायक भी मानवीय सद्गुणों की खान थे | जो भी हो सियाजी ने लाखा के आतंक से अपने शरणदाता को मुक्त कराने का निश्चय किया | संघर्ष हुआ, उसमें लाखा फूलाणी तो हारकर पीछे हट गये, लेकिन सियाजी के छोटे भाई संतराम को भी जान गंवानी पड़ी | 

कोलूमढ़ के सोलंकी राजा तो इस विजय से गदगद हो गए और उन्होंने अपनी बहिन का विवाह सियाजी के साथ कर उनसे स्थाई स्नेह सम्बन्ध कायम कर लिए | नव विवाहित यह जोड़ा जब द्वारका दर्शन के लिए जा रहा था, तब मार्ग में उनके पराक्रम से प्रभावित पाटन के राजा ने इनको आदरपूर्वक अपना अतिथि बनाया | किन्तु तभी लाखा फूलाणी ने पाटन पर भी हमला कर दिया | सियाजी की मानो मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई, भाई की मौत का बदला लेने का अवसर जो मिल रहा था, सो पाटन की सेना के साथ वे भी रणभूमि में जा कूदे | इस बार सियाजी ने लाखा फूलाणी को सीधे द्वन्द युद्ध की चुनौती दे डाली | उससे कहा, बार बार दोनों ओर के सैनिकों का रक्त बहाने से क्या अर्थ है, अगर बहादुर हो तो आओ मुझसे दो दो हाथ करो | लाखा भी चूंकि प्रबल पराक्रमी और वीर थे, इस चुनौती को भला वे कैसे अस्वीकार करते | राठौड़ वीर सियाजी और लाखा का भीषण युद्ध प्रारंभ हुआ | दोनों ओर की सेना चित्रलिखित सी इन दोनों का रणकौशल देख रही थी | तलवारों की झंकार और दोनों वीरों की ललकार के अलावा कोई शब्द उस समय सुनाई नहीं दे रहा था | भाई की मृत्यु का बदला लेने की प्रबल भावना ने सियाजी को अत्यंत ही दुखी और क्रोधित कर दिया था, उनके इस उन्माद के सामने लाखा टिक नहीं पाए और लम्बे संघर्ष के बाद सियाजी की तलवार के एक वार ने उनका सर धड से अलग कर दिया | पट्टनराज की सेना के जयनाद से समूचा वातावरण गूँज उठा | 

सियाजी के पराक्रम का यश बढ़ा तो महत्वाकांक्षा ने भी जोर मारा और उन्होंने महबा नगर के दाबी राजा और खेरघर के गोहिलों को हराकर राठौड़ कुल की विजय पताका फहरा दी | पाली पर ब्राह्मणों का कब्जा था, किन्तु उन्हें मीना लोग परेशान करते थे, करम के मारे पंडितों ने चूहों से बचाव के लिए सांप को आमंत्रित कर लिया, मदद के लिए सियाजी को बुलाया और पाली पर भी सियाजी काबिज हो गए | लेकिन यही उनकी अंतिम करनी थी, ब्रह्म ह्त्या का पाप या जो भी हो, उसके बाद शीघ्र ही उनकी जीवन यात्रा पूर्ण हो गई | सियाजी की मृत्यु के बाद उनके तीन पुत्रों ने भी अपनी तलवार के जौहर दिखाए और बड़े पुत्र आसथान के नेतृत्व में स्थानीय राजाओं को हराकर अपनी सीमा ठेठ गुजरात के ईडर नगर तक पहुंचा दी | आसथान के बाद उनके पुत्र दूहड़ ने परिहारों के हाथ से मंडोर छीनने का प्रयत्न किया, किन्तु न केवल असफल हुए, बल्कि उन्हें जान भी गंवानी पड़ी | दूहड़ के बाद रायपाल, रायपाल के बाद कन्न, कन्नपुत्र जाल्हन, जाल्हन पुत्र छाडा, छाडा पुत्र टीडा, टीडा के बाद सलखा, सलखा के बाद वीरम देव का इतिहास सतत संघर्ष का इतिहास है | अपना राज्य बढाने का प्रयास करते रहे, कभी हारे तो कभी जीते | कभी मंडोर पर कब्ज़ा किया, कभी वहां से खदेड़े गए | किन्तु अंततः इस कुल में उत्पन्न वीरमदेव के पुत्र अत्यंत पराक्रमी चूंडा ने मंडोर के राजा को मारकर अपनी राजधानी मंडोर को स्थाई रूप से बना ही लिया | एक बात ध्यान देने योग्य है कि इनमें से हरेक के सात सात आठ आठ संतानें हुईं, कुछ के तो और भी ज्यादा हुई, अतः पीढी दर पीढी वंशजों की संख्या भी बढ़ती गई | अतः इन ग्यारह पीढ़ियों में यह राठौड़ कुल लगभग समूचे राजस्थान में आबाद हो गया | सबका एक ही कर्म था संघर्ष - युद्ध | 

राठौड़ कुल गौरव राव चूंडा और महासती कोडमदे ! 

चूंडा ने अपने जीवन में बुरे समय का भी सामना किया था | अत्यंत दीन हीन स्थिति में अपनी भूमि संपत्ति से वंचित होकर प्राण बचाने के लिए कालाऊ नगर में एक चारण के घर शरण लेना पड़ी थी | किन्तु जैसे ही समय बदला, अवसर मिला, उसने न केवल स्वयं को, बल्कि अपने वंश को भी इतिहास की पुस्तकों में अमर कर दिया | चूंडा की सफलता का मुख्य कारण था कि उसने पूरे राजस्थान में बिखर चुके राठौड़ कुल को एकत्रित किया और उनको स्मरण कराया अपने महान पूर्वजों का, अपनी गंगा किनारे की मूल शस्यश्यामला मातृभूमि का, और इस संगठित शक्ति ने एक सुगठित राज्य का आकार ग्रहण कर लिया | 

यूं तो राव चूंडा के चौदह पुत्र व एक कन्या हंसा थी, किन्तु उनके चौथे पुत्र अर्ड़कमल से सम्बंधित एक अत्यंत ही कारुणिक प्रसंग इतिहास में अंकित है | 

घटना इस प्रकार है कि जैसलमेर के भाटी राजा राणांगदेव के एक पुत्र सादूल अत्यंत ही पराक्रमी थे | नागौर तथा आसपास के सभी प्रदेशों में उनका आतंक था | एक प्रकार से वे लाखा फूलाणी का दूसरा स्वरुप थे | उनका आतंक था तो वीरता और पराक्रम की कहानियाँ भीं प्रसिद्ध थीं | उन किस्सों को सुनकर मोहिल राजकुमारी कोडमदे ने मन ही मन उन्हें अपना पति मान लिया | किन्तु गड़बड़ तब हुई, जब उनके पिता उडिट नरेश माणिकराज ने उनके विवाह की चर्चा चूंडा के पुत्र अर्ड़कमल से चला दी और कोडमदे के सौन्दर्य की जानकारी होने के कारण उसने स्वीकृति भी दे दी | किन्तु यह जानकारी मिलते ही कोडमदे ने अपनी मां को अपनी इच्छा से अवगत कराया | समझाईस बुझाईस का भी उनपर कोई असर नहीं हुआ | उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ऊंचे राठौड़ कुल और तुच्छ राजसिंहासन से मुझे क्या बास्ता ? मैंने तो जिन्हें अपना मन प्राण समर्पित किया है, उनके अतिरिक्त किसी अन्य से विवाह कैसे कर सकती हूँ ? मैं अपनी जान दे दूंगी, किन्तु विवाह करूंगी तो उनसे ही | माणिकराज के सम्मुख बेटी की हठ से अत्यंत ही विषम स्थिति उत्पन्न हो गई और वे अत्यंत असमंजस में पड़ गए | इस धर्म संकट से छुटकारा पाने हेतु उन्होंने भाटी वीर सादूल से ही सलाह की | सादूल को अपने भुजबल पर भरोसा था, अतः उन्होंने राठौड़ों की राजी नाराजी की परवाह किये बिना अपनी स्वीकृति दे दी और फिर कोडमदे का विवाह भी सादूल के साथ धूमधाम से हो गया | लेकिन राठौड़ राजकुमार अर्ड़कमल ने इसे अपना अपमान समझा और जब यह नव विवाहित जोड़ा बरात के साथ अपने राज्य को वापस लौट रहा था, तब मार्ग में ही चन्दन नामक स्थान पर उन्हें रोक लिया | 

राठौड़ों की सेना भाटियों से तीन गुना थी, किन्तु कोडमदे को प्रभावित करने के लिए अपनी दरियादिली दिखाते हुए अर्ड़कमल ने प्रस्ताव रखा कि दोनों पक्षों से एक एक वीर परस्पर मरणान्तक युद्ध करे, एक के मरने के बाद दूसरा उसका स्थान ले | इसी अनुसार हुआ और भाटियों की ओर से जयतुंग तो राठौड़ों की ओर से जोधा चौहान आमने सामने हुए | दोनों ने अपने अपने घोड़े एक दूसरे की और तेजी से दौडाए और फिर दुधारी तलवारों से शुरू हो गया एक दूसरे पर प्रहार | जब तलवारें आपस में टकरातीं तो उड़ती हुई चिंगारियां और झनझनाहट की आवाज वातावरण को भयानक बना देतीं | दोनों और की सेनायें दम साधे यह रोमांचक युद्ध देख रही थीं | अकस्मात जयतुंग ने हुंकार भरते हुए, अपने घोड़े से छलांग लगाई और सीधे जोधा के घोड़े पर जा कूदे | जोधा घोड़े समेत नीचे जा गिरे और उनकी सांस रुक गई | इस विजय से उन्मत्त जयतुंग ने आव देखा न ताव और अकेले ही शत्रुसेना पर टूट पड़ा | जिसको भी अपने बराबर का समझा उस पर तलवार चलाने लगा | स्वाभाविक ही अफरा तफरी मच गई | उसने असावधान दस बीस सैनिकों को भले ही मार दिया हो, किन्तु अब दोनों ओर की सेनाओं में युद्ध शुरू हो गया | जो व्यवस्था निर्धारित थी, एक एक से लड़ने की वह समाप्त हो गई | असमान युद्ध था, परिणाम निश्चित था | कोडमदे से अंतिम विदाई लेकर भाटी वीर सादूल भी युद्ध के मैदान में आ गया | उसके हाथों से अनेक राठौड़ वीर मारे गए और अंततः राठौड़ राजकुमार अर्ड़कमल से भी उसका सामना हो ही गया | अर्ड़कमल तो उसके ही इंतज़ार में खड़ा था | दोनों का युद्ध प्रारंभ हो गया | दोनों की तलवारें एक दूसरे का लहू पीने लगीं | भीषण संग्राम के बाद बज्र के प्रहार से टूटे मेरु पर्वत के समान दोनों वीर युद्ध भूमि पर जा गिरे | युद्ध रुक गया | अर्ड़कमल केवल मूर्छित हुए थे, जबकि वीर सादूल के प्राण पखेरू उड़ चुके थे | 

दूर से युद्ध देख रहीं कोडमदे की आशा टूट गई | जिनके साथ उन्होंने आनंद के साथ अपना जीवन बिताने का स्वप्न देखा था, वह सदैव के लिए उनका साथ छोड़ गए | उनके हाथों की मेहंदी, गले में पडी वरमाला यथावत थी, किन्तु अब सौभाग्य उनके साथ न था | उन्होंने अपने पक्ष के सेनानियों से चिता सजाने का आग्रह किया | अर्ड़कमल ने आगे बढ़कर उनका बायाँ हाथ थामकर उन्हें समझाने का प्रयास किया, किन्तु अगले ही पल जो हुआ, उसने न केवल उसे बल्कि सभी उपस्थित जनों को दहला दिया | कोडमदे ने अर्ड़कमल की ओर देखा तक नहीं और दाहिने हाथ में पकड़ी तलवार से अपनी वह बाईं भुजा ही काट डाली, जिसे अर्ड़कमल ने थामा था | अर्ड़कमल चीख मारकर पीछे हट गया | अविचल शांति के साथ कोडमदे ने वह भुजा उठाकर एक सैनिक को देते हुए कहा कि इसे ले जाकर मेरे श्वसुर को देना और उन्हें बताना कि उनकी पुत्रवधू ऐसी थी | 

उन्होंने एक अन्य सैनिक से कहा, अब मेरी दूसरी भुजा भी काट दे, और उसे मेरे गोहिल कुल के राजकवि को देना | उसके मुख पर जो दैवीय तेज था, सैनिक की हिम्मत ही नहीं हुई, उनकी आज्ञा का उलंघन करने की | रणक्षेत्र में कोई भी ऐसा न था, जो इस दृश्य से अपने आंसू रोक सका हो | अपने प्राणप्रिय पति के साथ उसी स्थान पर कोडमदे सती हो गईं | आज्ञा के अनुसार दोनों भुजाएं यथास्थान भेज दी गईं, पूंगल के बूढ़े राव राणांगदेव ने उस भुजा का अंतिम संस्कार कर वहां एक पुष्करणी निर्मित की, जो आज भी कोडमदे सर के नाम से जानी जाती है | वहीँ दूसरी भुजा पाने के बाद राजभाट द्वारा रचित कवित्तों ने कोडमदे को सदा सर्वदा के लिए अमर कर दिया | यह अनर्थकारी महासंग्राम सन १४०७ में हुआ था | इस युद्ध में अर्ड़कमल गंभीर रूप से घायल भी हुआ था और उसका मन भी ग्लानि से भरा हुआ था, फलस्वरूप घाव भरने के पूर्व ही कुछ समय बाद उनका भी प्राणांत हो गया | दोनों और का एक एक राजकुमार मारा गया था, किन्तु मरुभूमि अर्थात मृतकों की भूमि अभी और बलि मांग रही थी, यह विवाद शांत नहीं हुआ | 

पूंगल नरेश राणांगदेव अपने पुत्र की मृत्यु से अत्यंत आक्रोशित थे, वे यह भी जानते थे कि राठौड़ों का कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगे, अतः उन्होंने राठौड़ों की तरफ से युद्ध में वीरता दिखाने वाले सांकला वीर मेहराज पर धावा बोल दिया | असावधान मेहराज को हरा कर उसका नगर लूट तो लिया किन्तु राणांगदेव भी घायल हो गए और लौटने के कुछ समय बाद ही इस बुजुर्ग योद्धा का देहांत हो गया | लेकिन उनके पुत्रों के मन में भी बदले की आग धधक रही थी | और फिर वह हुआ जिसे पढ़कर सुनकर सर शर्म से झुक जाता है | महासती कोडमदे के इन दोनों देवरों तनु और मेरु ने मुल्तान के सुलतान खिज्र खान की शरण ली और मुसलमान हो गए | व्यक्तिगत राग द्वेष ने हिन्दू समाज को कितनी क्षति पहुंचाई है, यह प्रसंग इसे ही प्रदर्शित करता है | खिज्र खां ने इन दोनों को एक बड़ी सेना प्रदान की और राठौड़ों के खिलाफ युद्ध की तैयारी शुरू हो गई | सैन्य तैयारियों के साथ साथ षडयंत्र भी चलने लगे | जैसलमेर के रावल केहर और पूंगल नरेश राणांगदेव का कुल एक ही था, अतः उनके तीसरे पुत्र केलण भी इन दोनों से जा मिले और उन्होंने राठौड़ राज चूंडा को फंसाने के लिए जाल बुना | अपनी पुत्री का विवाह चूंडा के साथ करने का प्रस्ताव केलण ने भेजा और कहा कि अब इस शत्रुता का अंत होना चाहिए | किन्तु चूंडा सजग थे, उन्होंने विश्वास नहीं किया | केलण ने इस पर कहा कि हम राजकुमारी को ही नागौर भेजे देते हैं, आप अपने राज्य में ही विवाह कार्य संपन्न कराएँ | यह बात चूंडा के गले उतर गई और उन्होंने विवाह की तैयारियां शुरू कर दीं | निश्चित दिन जैसलमेर से पालकियां रवाना हुईं, उनके साथ सातसौ ऊंटों पर दहेज़ का सामान था | लेकिन यह सब धोखा था, दहेज़ के सामान और पालकियों में पूंगल के सशस्त्र सैनिक छुपे हुए थे | और फिर नागौर के प्रवेश द्वार पर जब चूंडा इस दल का स्वागत करने पहुंचे, तो सहस्त्रों भाटी वीरों ने उनके ऊपर हमला कर दिया | चूंडा संभलकर लडे भी, लेकिन विश्वासघातियों के सामने उनकी एक न चली और उनकी निर्दयता पूर्वक हत्या कर दी गई | राठौड़ कुल का वह दैदीप्यमान दीपक बुझ गया | सियाजी के वंश में जिसने बिजली भरी थी, वह चूंडा असमय काल के गाल में समा गया | 

चूंडा की मृत्यु के बाद उनके चौदह पुत्रों में सबसे बड़े रणमल ने गद्दी संभाली | जिनका उल्लेख मेवाड़ के युवराज चूंडा वाले आलेख में हम कर चुके हैं | कैसा संयोग था कि रणमल के जन्मदाता राठौड़ वीर चूंडा थे तो उन्हें मृत्युदंड देने वाले मेवाड़ के युवराज का नाम भी चूंडा ही था | राणा लाखा के साथ जिनका विवाह हुआ वे हंसा या गुणवती, रणमल की बहिन थीं या पुत्री, इसे लेकर इतिहास कारों के अलग अलग मत पढ़ने को मिलते हैं, लेकिन जो भी हो हम तो घटनाओं पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, जिन्हें लेकर सब एकमत हैं | इतिहास का अध्ययन हमारी कमियों को समझने और खूबियों से प्रेरणा लेने में मदद करता है | यह कोई सन सम्बत या नामों की सूची भर नहीं होता | 

जोधपुर निर्माण की गाथा 

रणमल के चौबीस पुत्र थे, जिनमें सबसे उल्लेखनीय उनके बड़े पुत्र राव जोधा थे, जिनका नाम आज भी मारवाड़ में सबसे अधिक सम्मान से याद किया जाता है | मेवाड़ के साथ हुए संघर्ष में जहाँ एक ओर रणमल मारे गए, तो दूसरी ओर राठौड़ों की राजधानी मंडोर पर भी गहलोतों का कब्ज़ा हो गया | जोधाजी को भी जान बचाने के लिए जंगलों की शरण लेना पड़ी | लेकिन जोधा के उत्साह और आत्मविश्वास में कोई कमी नहीं आई | अरावली की वन उपत्यकाओं में छुपे हुए भी वे अवसर की ताक में रहे | एक दिन बड़ा ही शुभ शकुन हुआ, जिसने संगी साथियों सहित जोधाजी के मन में भी उत्साह का संचार कर दिया | हुआ यूं कि उनके भाले पर शुभ माना जाने वाला शंसी पक्षी आकर बैठ गया और बार बार शब्द करने लगा | वहां उपस्थित चारण ने अविलम्ब कहा – महाराज यह वही पुराण वर्णित श्येन पक्षी है, जिसका रूप रखकर देवराज इंद्र राक्षसों से अमृत ले गए थे, अतः यह बहुत ही शुभ शकुन है, आप शीघ्र ही युद्ध के लिए प्रस्थान करें, विजय आपकी ही होगी | उसके बाद घांस की गाड़ियों में छुपकर राठौड़ सैनिकों ने मंडोर में प्रवेश किया और भीषण युद्ध के बाद मेवाड़ के गहलोतों की पराजय हुई और मंडोर पर एक बार फिर राठौड़ों का कब्ज़ा हो गया | 

उसी दौरान एक और घटना घटी, जंगल में रहते समय विहंगकूट पर्वत श्रेणी की निर्जन गुफा में तपस्यारत एक सिद्ध योगी से जोधाजी का संपर्क हुआ था, उन्होंने जोधाजी को प्रेरणा दी कि तुम्हें अपने नाम से एक नगर बसाना चाहिए, ताकि तुम्हारा नाम अमर हो जाए और यश कीर्ति में वृद्धि हो | योगी की आज्ञा कहें या मंडोर पर मेवाड़ के आक्रमण का भय, जोधाजी ने मंडोर से चार मील दूर उसी विहंगकूट पर्वत की ऊंची चोटियों पर नया नगर बसाने का निश्चय किया | यह पर्वत श्रेणी ऐसी है, जिसपर आसानी से कोई चढ़ नहीं सकता | चारों और के घने जंगल मानो इसके रक्षक हों, ऊंची चोटियों से आसानी से चारों और नजर रखी जा सकती है, यह सब सोचकर ही नगर निर्माण का विचार दृढ हुआ होगा | शीघ्र ही नगर बनकर तैयार हो गया, लेकिन एक और घटना घटी | जिस सिद्ध योगी की प्रेरणा से यह नगर बसाने का काम शुरू हुआ था, असावधानी वश उन्हीं की गुफा इस दौरान ढहा दी गई | तपस्वी तो अपना चिमटा कमंडल उठाकर अन्यत्र चले गए, लेकिन जाते जाते श्राप भी दे गए, जिसके परिणाम स्वरुप क्षेत्र पेयजल विहीन हो गया | सारा पानी खारा हो गया | जोधाजी और उनके बाद उनके वंशजों ने बहुत प्रयत्न किया, इस संकट के समाधान का, किन्तु समस्या से निजात नहीं मिली | जोधपुर वाले आज भी उस ऋषि की तपस्या स्थली को आदर सहित प्रणाम करते हैं | 

नव निर्मित जोधपुर शहर में राठौर कुल के अनेक लोग आकर बसने लगे और देखते ही देखते यह नगर उन वीरों के समूह से रक्षित हो गया | इसी दौरान राव जोधा ने मां करणी जी के आशीर्वाद से मेहरानगढ़ दुर्ग की नींव भी रखी । मंडोर से जोधपुर आने के पूर्व जोधाजी ने मंडोर के अग्रभाग में मरुभूमि के अनेक वीरों की प्रस्तर प्रतिमाएं स्थापित करवाईं | ये सभी मूर्तियाँ घोड़े पर चढी हुईं योद्धा वेश में सन्नद्ध, दाहिने हाथ में बरछे को उठाये, बाएं हाथ में घोड़े की लगाम थामे, पीठ पर ढाल और तरकस, कंधे पर धनुष, कमर में तलवार, कमरबंद में छुरी, ऐसी प्रतीत होती हैं, मानो अभी जीवित होकर युद्ध भूमि की ओर प्रस्थान करने वाली हैं | स्थापत्य कला की इन बेजोड़ कलाकृतियों में पाबूजी, रामदेव आदि राठौड़ वीर तो हडबू सांकला व चौहान वीर गोगा जी की भी मूर्तियाँ हैं | चौहान वंशीय गोगा जी तो आपको स्मरण ही होंगे, जिन्होंने अपने सेंतालीस पुत्रों के साथ महमूद के आक्रमण को रोकने में अपने प्राण न्यौछावर किये थे | वीर गूगा जी से सम्बंधित विडियो की लिंक इस विडियो के अंत में दी जा रही है | 

यह सौभाग्य का विषय है कि समय के साथ मेवाड़ और मारवाड़ के संबंधों में खटास दूर हुई और इन पराक्रमी वीरों ने एक दूसरे से आत्मीय सम्बन्ध विकसित किये | राव जोधा जी के चौदह पुत्रों में से सबसे बड़े संताल जी ने पिता का राज्य छोड़कर अपने भुजबल से राजस्थान के उत्तर पश्चिम में एक नया किला बनवाया – सातलमेर | यह किला पोकरण से तीन कोस की दूरी पर स्थित है | इनका यवन राजा सराई खान से विवाद हुआ और संघर्ष में दोनों ही मारे गए | संताल का अंतिम संस्कार सैगो नामक स्थान पर हुआ | जोधा के चौथे पुत्र दूदा ने मेड़ता के विशाल क्षेत्र में अपना साम्राज्य स्थापित किया और उनके वंशज आज मैडतिया राठौड़ के नाम से जाने जाते हैं | चित्तौड़ की रक्षा करते हुए दिल्लीश्वर अकबर के दांत खट्टे करने वाले वीर केसरी जयमल उनके ही पौत्र थे | परम कृष्णभक्त विदुषी मीराबाई भी इन्हीं दूदा के कुल में उत्पन्न हुई थीं, जिनका विवाह मेवाड़ के राणा कुल में हुआ था | एक पुत्र बीदा ने मोहिलों के राज्य पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन किया तो छठवे पुत्र बीका ने जाटों के इलाकों पर धावा बोला | मुख्यतः कृषि पर आश्रित रहने वाले जाट लगातार होने वाले मोहिलों और भाटियों के आक्रमणों से त्रस्त रहते थे, अतः मोहिलों को परास्त करने वाले राठौड़ों को उन्होंने अपना संरक्षक ही माना और एक पंचायत बुलाकर बिना किसी संघर्ष के बीका को राज्य सोंप दिया | बदले में भाटियों से उनकी रक्षा करने का वचन और उनके निजी जीवन व आजीविका पर कोई प्रतिबन्ध न किये जाने का आश्वासन उन्होंने बीका से लिया | इस प्रकार बीका के नाम पर उनकी नई राजधानी बीकानेर बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ | राज सिंहासन पर बैठते समय जिस पांडू ने राव बीका के मस्तक पर तिलक किया, उसके वंशज ही लगातार बीकानेर के नए शासकों को तिलक करते रहे | बदले में राजा उन्हें पच्चीस स्वर्ण मुद्राएँ देकर सम्मानित करता | शासक और शासित का यह स्नेह सम्बन्ध भारत के अतिरिक्त और कहाँ देखने में आएगा ? अमरीका के मूल निवासियों को मारकर उनकी नस्ल समाप्त कर देनें वाले स्वयम्भू सभ्य इसे नहीं समझ सकते | 

जोधा की मृत्यु के बाद उनकी गद्दी संभाली राव सूजा ने | उनके समय में एक बड़ी घटना घटी | यूं तो अपनी भौगौलिक स्थिति के कारण मारवाड़ लम्बे समय तक मुस्लिम आक्रान्ताओं से सुरक्षित रहा | किन्तु १५१६ ईसवी में श्रावण मास शुक्ल पक्ष की पवित्र पार्वती तृतीया के दिन जब पीपार नामक नगर में उत्सव हो रहा था, मेला भरा हुआ था, अनेक महिलायें गौरी पूजन में तल्लीन थीं, तभी पठानों ने उन पर हमला कर दिया और १४० कुमारियों को उठा ले गए | यह समाचार सुनकर सूजा के तन बदन में आग लग गई और उन्होंने सेना एकत्रित होने का भी इन्तजार नहीं किया और जो थोड़े बहुत सैनिक उस समय साथ आ सके उन्हें लेकर ही पठानों का पीछा किया | शीघ्र ही वे उनके सर पर चढ़ दौड़े और भीषण संग्राम में उन्हें परास्त कर उन कुमारियों को मुक्त कराने में सफलता पाई | किन्तु इस संघर्ष में वे स्वयं भी इतने घायल हो गए कि अधिक रक्तस्त्राव के कारण, उनके भी प्राण पखेरू उड़ गए | हालांकि कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस घटना के नायक सूजा नहीं, अपितु उनके सबसे बड़े भाई संताल जी थे, जिनका उल्लेख हम पूर्व में कर आये हैं | जो भी हो राठौड़ों का यह वीरता प्रसंग तो निर्विवाद ही है | 

सूजा के बड़े पुत्र पहले ही स्वर्गवासी हो चुके थे अतः उनके पौत्र अर्थात बड़े पुत्र के पुत्र गांगा जी को राज्यभार सोंपा गया तो उनके चाचा सेरवा को नागवार गुजरा | अधमता की पराकाष्ठा तो तब हुई जब सेरवा नागौर के मुस्लिम शासक दौलत खान के साथ जा मिला | दौलत खान ने मध्यस्थ बनकर राज्य का विभाजन कराना चाहा, लेकिन बुद्धिमान और पराक्रमी गांगा ने यह होने नहीं दिया | राज्य का बंटवारा माने शक्तिहीन कमजोर होना | युद्ध हुआ, जिसमें अधिकाँश सरदारों ने गांगा का ही साथ दिया | नतीजतन सेरवा मारे गए और दौलत खान भी घायल और अपमानित होकर भागने को विवश हुआ | उसके बाद गांगा ने बारह वर्ष तक निष्कंटक राज्य किया | 

यह वह दौर था जब बाबर ने इस पावन भारत भूमि पर आक्रमण किया था | खानवा के प्रसिद्ध युद्ध में राणा सांगा के साथ राठौड़ वीरों ने भी अतुलनीय पराक्रम का प्रदर्शन किया और आत्माहुति दी | भक्तिमती मीराबाई के पिता रतनसिंह और उनके भाई मेढ़ते के राव वीरम दे ने इस युद्ध में वीरगति पाई | वीरगति पाने के पूर्व, गांगा के पौत्र रायमल का प्रबल पराक्रम तो देखते ही बनता था तो उनके पिता मालदेव ने भी अपने जौहर दिखाए और घायल सिंह महाराणा सांगा को युद्धभूमि से सुरक्षित बाहर लाने मैं मदद की | अगर राजपूत कुल कलंक तंवर सलहदी बाबर से मिल न जाता तो हिन्दुस्थान का इतिहास ही कुछ और होता | 

राव मालदेव जिन्हें दो बार अवसर मिला भारत की भाग्य रेखा बदलने का 

राजस्थान की वीर प्रसूता धरती से कई योद्धाओं ने जन्म लिया है इन्ही मैं से एक थे राव मालदेव राठौर । 9 मई 1532 को गांगा जी की मृत्यु के बाद मालदेव उनके सिंहासन पर बैठे | यद्यपि उनका गद्दी पर बैठना भी एक विवाद के साथ हुआ | गांगा जी अपने महल की खिड़की से गिरकर अकाल मृत्यु के ग्रास बने | आम धारणा रही कि उनकी मृत्यु का कारण मालदेव ही थे | मालदेव न तो गांगा जी के अंतिम संस्कार में सम्मिलित हुए और ना ही, अगले दो वर्ष तक जोधपुर ही आये | एक और विचित्र किन्तु सत्य है कि मालदेव का विवाह 1536 ई. में वंश परम्परा से शत्रु चले आ रहे जैसलमेर के राव लूणकरण की पुत्री उमादे के साथ हुआ, किन्तु विवाह सफल नहीं हुआ और शीघ्र ही राव मालदेव व उमादे में अनबन हो गई | राजस्थान के इतिहास में रानी उमादे को रूठी रानी के नाम से जाना गया। उनके रूठने की भी एक अनोखी ही कहानी है | 

हुआ कुछ यूं कि शादी के बाद राव मालदेव अपने सरदारों व संबंधियों के साथ महफिल में बैठ गए और रानी उमादे सुहाग की सेज पर उनकी राह देखती-देखती थक गई। इस पर रानी ने दहेज में मिली अपनी खास दासी भारमली को राजा को बुलाने भेजा। राजस्थान की इस घृणित परंपरा का उल्लेख आचार्य चतुरसेन ने अपने उपन्यास “गोली” में बहुत ही मार्मिक ढंग से किया है | उन दिनों राजघरानों में दहेज़ में सुन्दर दासियाँ दी जाती थीं, जो एक प्रकार से राजा की अधिकार विहीन उप पत्नियां ही होती थी | तो दासी भारमली जब राव मालदेव को बुलाने गई तो उस खूबसूरत दासी को नशे में चूर राव ने रानी समझ कर अपने पास बैठा लिया। 

काफी वक्त गुजर गया, न राव आये न दासी, तो रानी उमादे स्वयं राव के कक्ष में पहुँच गई और वहां का दृश्य देखकर बेहद नाराज हो हाथ में पकड़ा आरती का थाल वहीं उलट कर लौट आईं । 

सुबह जब राव मालदेव का नशा उतरा, तब वे बहुत शर्मिंदा हुए और रानी के पास उन्हें मनाने पहुंचे, लेकिन रानी उमादे ने साथ कह दिया कि अब आप मेरे योग्य नहीं रहे । उसके बाद रानी ने अपना सम्पूर्ण जीवन तारागढ़ दुर्ग में व्यतीत किया, कभी नहीं मिली राजा से, लेकिन अद्भुत घटना तो यह है कि जब वर्ष 1562 में राव मालदेव का देहांत हुआ, तब रानी उमादे उनके साथ सती अवश्य हो गई | 

खैर यह तो बहुत बाद की बात है, हम तो मालदेव पर ध्यान केंदित करें, जिनके सौभाग्य से बाबर ने मारवाड़ की तरफ रुख नहीं किया | गंगा किनारे की उपजाऊ भूमि छोडकर केवल जंगली बेर उपजाने वाली मारवाड़ की प्रचंड वालुकाराशि की और बढ़ने की उसकी इच्छा नहीं हुई | अवसर का लाभ लेकर राव मालदेव ने अपने राज्य को बढ़ाने और उसे सुदृढ़ बनाने की तरफ ध्यान दिया | दिल्ली और मारवाड़ की सीमा पर स्थित कई किलों को उन्होंने अपने अधीन कर लिया | जो भी उनकी राह में काँटा बना, उसे मालदेव ने काट फेंका | यहाँ तक कि नागौर, अजमेर, जालौर, सिवाना के साथ साथ अपने ही कुल के राव जैतसी को पाहेबा के युद्ध में मारकर बीकानेर भी अपने अधीन कर लिया | संयोग से उन्हें राव कुंपा और उसके चचेरे भाई जेता जैसे दक्ष सेनापति भी प्राप्त हो गए थे, जिनका नाम वीरता, साहस, पराक्रम और देश भक्ति के लिए मारवाड़ के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है | 

राव कुंपा जोधपुर के राजा राव जोधा के भाई राव अखैराज के पोत्र व मेहराज के पुत्र थे, तो राव जेता मेहराज जी के भाई पंचायण जी का पुत्र था | मालदेव की आज्ञा से राव कुंपा व जेता ने मेड़ता व अजमेर के शासक वीरमदेव को पराजित कर राज्य छोड़ने को विवश कर दिया था | विरमदेव भी उस ज़माने के अद्वितीय वीर योद्धा थे, उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और डीडवाना पर कब्जा कर लिया | लेकिन राव कुंपा व जेता ने राव विरमदेव को डीडवाना में फिर जा घेरा और भयंकर युद्ध के बाद डीडवाना से भी विरमदेव को निकाल दिया | डीडवाना के युद्ध में राव विरमदेव की वीरता देख राव जेता ने कहा था कि यदि मालदेव व विरमदेव शत्रुता त्याग कर एक हो जाये तो हम पूरे हिन्दुस्थान पर विजय हासिल कर सकतें है | 

इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्तक ‘जोधपुर राज्य का इतिहास’ में लिखा है कि राव बनते ही मालदेव ने अपनी रियासत की सीमाओं को बढ़ाना शुरु कर दिया, और सन 1600 आते आते तो उत्तर में बीकानेर व हिसार, पूर्व में बयाना व धौलपुर तक एवं दक्षिण-पश्चिम में राघनपुर व खाबड़ तक उसकी राज्य सीमा पहुँच गई थी। भूमिया और भाटी जैसे वीर समुदायों को भी उन्होंने अपने अधीन कर सामंत बना लिया | जयपुर के नजदीक चाकसू तक उनकी सीमा पहुँच गई तो पश्चिम में भाटियों के प्रदेश जैसलमेर को उसकी सीमाएँ छू रही थी। इतना विशाल साम्राज्य न तो राव मालदेव से पूर्व और न ही उसके बाद ही किसी राजपूत शासक ने स्थापित किया।मारवाड़ के इतिहास में राव मालदेव का राज्यकाल मारवाड़ का "शौर्य युग" कहलाता है। राव मालदेव अपने युग का महान् योद्धा, महान् विजेता और विशाल साम्राज्य का स्वामी था। 

केवल सीमा वृद्धि ही नहीं तो स्थाई सुरक्षा की ओर भी राठौर राज मालदेव का ध्यान था | मारवाड़ के चारों और नए किले बनवाये गए, जोधपुर के चारों ओर एक बड़ी दृढ दीवार बनवाई गई | पोकरण को दृढ किया | अजमेर का प्रसिद्ध “कोट बुर्ज” मालदेव द्वारा ही बनवाया गया था | मेड़ता नगर के किले की मरम्मत में ही उस दौर में चौबीस हजार रुपये व्यय होने का विवरण मिलता है | भाट कवियों के अनुसार रत्नगर्भा सांभर झील से प्राप्त धन से ही ये सब कार्य संपन्न हुए | उसके पराक्रम का इससे बड़ा क्या प्रमाण होगा कि जब शेरशाह के द्वारा पराजित हुमांयूं प्राण बचाकर भागा तो शरण के लिए सबसे पहले मालदेव के ही पास आया | उसने अपने तीन दूत - मीर समन्दर, रायमल सोनी और शमसुद्दीन अत्काखां - को मालदेव के पास मदद की गुहार लेकर भेजा. लेकिन उसके हाथ निराशा ही लगी | मालदेव कैसे भूलते कि उनके पुत्र रायमल की मृत्यु बाबर के हाथों ही हुई थी, अतः उन्होंने हुमायूं की मदद करने से इनकार कर दिया | आखिर उनके पूर्वजों की कन्नौज रियासत का पतन भी तो मुसलमानों ने ही किया था, अतः उनकी नफ़रत स्वाभाविक थी | 

लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि हुमांयू को पलायन के लिए विवश करने वाले शेरशाह सूरी को भी समझ में आ गया कि अब हिन्दुस्थान में मालदेव ही उसके लिए खतरा बन सकते हैं | चाकसू पर मालदेव के कब्जे के बाद तो दोनों के राज्यों की सीमाएं भी टकराने लगीं थीं तो भला तलवारें कब तक नहीं टकराती ? तभी एक और संयोग बना - मालदेव से हारने के बाद बीकानेर के राव जैतसी के बेटे कल्याणमल और नागौर के वीरमदेव, शेरशाह से मदद मांगने के लिए दिल्ली जा पहुंचे | उन दोनों ने बादशाह को यकीन दिलाया कि उनकी मदद से वह मारवाड़ को हथियाने में कामयाब हो जाएगा | बस फिर क्या था, शेरशाह अपनी फौज लेकर मारवाड़ की तरफ़ चल पड़ा । वो अपनी 80 हजार घुड़सवारों की सेना और 40 तोपों के साथ जोधपुर से 90 किलोमीटर दूर गिरी-सुमेल में डेरा डालकर बैठ गया | तो इस प्रकार आप शीर्षक का कारण समझ ही गए होंगे | मालदेव को हुमायूं और शेरशाह दोनों के साथ व्यवहार का अवसर मिला, अगर हुमायूं को शरण दी होती या शेरशाह को हरा दिया होता, तो भारत की भाग्य रेखा कुछ अलग हो सकती थी |

राव मालदेव और शेरशाह का संघर्ष 

जब मालदेव को शेरशाह के आक्रमण हेतु आने की सूचना मिली तो उन्होंने भी अपने समस्त सरदारों ओर सेनापतियों को बुलाकर बधाई दी | आपको हैरत हुई होगी न इस वधाई शब्द प्रयोग से | लेकिन तत्कालीन समय मैं युद्ध की सूचना को वीर रणबाँकुरे एक खुशखबरी ही मानते थे | कवियों ने इसीलिए गाया भी है – 

इस भारत में कैसे कैसे, बलवीर, धीर रणशूर हुए, 

जो अपने अतुल बाहुबल से, भूमंडल में मशहूर हुए | 

गौरव गुमान कुल कान हेतु, प्राणों का सोच न करते थे, 

सौभाग्य समझते थे अपना, जिस समय धर्म पर मरते थे | 

दुश्मन की फ़ौज चाहे कितनी, मेघों की भांति उमड़ आये, 

तलवार तीर की मारों से, तन छिन्न भिन्न भी हो जाये, 

फिर भी खल गंजन, रण भंजन, पग पीछे नहीं हटाते थे, 

विकराल काल के सम्मुख भी, निर्भय होकर डट जाते थे | 

तलवारें छत्रिय वीरों की, जब म्यानों से खिंच जाती थी, 

बदकार जालिमों की आँखें, भय से इकदम मिंच जाती थीं | 

अति ही प्रचंड, बरबंड, यमदंड सी जो, 

करती घमंड खंड खंड बदकार का, 

म्यान में वो चंचला सी, चोंक पडे थी तुरंत, 

नाम सुन एक बार मार काट रार का | 

क्षण में बहाती रक्त धार, युद्ध के मझार, 

करे थी एक बार में कार चार चार का, 

मानता था लोहा आलम समूचा ही, 

वीर छत्रियों की धारदार तलवार का | 

तो उसी के अनुरूप शेरशाह और मालदेव की सेनाओं ने अजमेर के निकट जैतारण के पास गिरी सुमेल नामक गाँव मे डेरा डाल दिया । शाही फ़ौज ने राजपूतों की वीरता के किस्से सुन रखे थे, अतः उनमें काफी हद तक हताशा थी दूसरे वे लोग उस भीषण इलाके को देख देख कर घबरा रहे थे, अतः करीब 1 माह तक दोनों सेनाएं बिना लडे आमने सामने डेरा डाले बैठी रही । 

कुछ इतिहासकारों के मुताबिक मालदेव की ताकत देखकर शेरशाह वहां से लौट जाना चाहता था | इतनी बड़ी सेना को खिलाने के लिए राशन जुटा पाना बहुत मुश्किल हो रहा था | ये जगह दिल्ली से इतनी दूर थी कि वहां से राशन आना तो संभव ही नहीं था और उजाड़ रेगिस्तान में जहाँ घांस भी उगती दिखाई न दे रही हो, खाने की व्यवस्था करना सचमुच टेढ़ी खीर था | लेकिन सुरक्षित स्थान को छोड़कर वापस लौटने में भी कम ख़तरा नहीं था। अगर वापस लौटे और पीछे से हमला हो गया तो बचना भी मुश्किल हो जाएगा | शेरशाह भारी परेशान था, वह माथे पर हाथ रखे अपनी किस्मत को कोस रहा था कि कहाँ फंस गया | पता नहीं जिन्दा भी बचूंगा या नहीं | लेकिन जब तक इस भूमि पर घर के भेदिये आस्तीन के सांप मौजूद हैं, तब तक शत्रुओं को भला क्या भय हो सकता है | शेरशाह को भी इस परेशानी से मुक्ति दिलाने वे ही लोग आगे आये, जो उसे बुलाकर लाये थे | 

इतिहास में ज़िक्र मिलता है कि शेरशाह की मदद करते हुए मालदेव के हाथों पराजित नागौर के वीरमदेव ने एक चाल चली | कुछ ढालों में बादशाह के नाम की एक-एक हजार मोहरें और फारसी में लिखे रुक्के सिलवा दिए | उसके बाद किसी व्यापारी के हाथों ये ढालें राजपूत सरदारों के बीच कौड़ियों के भाव बिकवा दी गईं, जो वेचारे मोहर वाली बात से पूरी तरह अनजान थे | इतिहासकार अब्बास ख़ां सरवानी ने अपनी किताब ‘तारीख़-ए-शेरशाही’ में लिखा हैं कि शेरशाह ने अपना एक दूत चर्चा के बहाने मालदेव के पास भेजा, जिसने लौटते समय चतुराई से मारवाड़ी भाषा में लिखा एक जाली ख़त मालदेव की छावनी में इस प्रकार डाल दिया कि वह मालदेव के हाथों में पहुँच ही जाए | ये ख़त राजपूत सरदारों की तरफ़ से शेरशाह के नाम लिखे गए थे, जिनका लब्बोलुआब था, ‘बादशाह को अपनी जीत को लेकर संदेह करने की ज़रूरत नहीं है. युद्ध में हम राव को बंदी बनाकर आपके हवाले कर देंगे.’ 

पत्र मालदेव को मिलना ही था, मिल ही गया और उनके मन में शंका के भूत ने घर बना लिया | उनका सर घूमने लगा, जिन सरदारों पर भरोसा करके समर भूमि में पैर बढाया है, वे ही विश्वासघात कर रहे हैं | उनका उत्साह ठंडा हो गया | जिस उत्साह से वे लगातार सेना के बीछ घूम घूमकर सैनिकों को प्रोत्साहन देते थे, वह बंद हो गया | सरदारों को समझ ही नहीं आ रहा था कि उनका सेनापति जलते अंगारे से अकस्मात बुझा कोयला कैसे बन गया | 

तभी आख़िरी चोट हुई और मालदेव के पास अज्ञात शुभचिंतक के नाम से सूचना पहुंची कि उसके सरदार बिक चुके हैं, भरोसा न हो तो ढालों की गद्दियां उधड़वा कर देख लो | मालदेव ने ऐसा ही किया और उसे बादशाह की मोहरें और ख़त मिल गए | दो राजपूत सरदारों जैता व कुंपा को शेरशाह की इस चाल को समझ गए थे, उन्होंने मालदेव को समझाने की हरसंभव कोशिश की, लेकिन राव ने उनकी एक न सुनी । अब उसे जोधपुर खोने का डर सताने लगा था, अतः उन्होंने जोधपुर की तरफ कूच करने का फैसला कर लिया | जैतारण से रातों-रात ही अपनी सेना को लेकर वह जोधपुर लौट गया | 

ख़ुद पर लगे विश्वासघात के आरोपों से आहत जैता व कुंपा के साथ महावीर राव खीवकरण, राव पांचायण और महाराणा प्रताप के नाना राव अखैराज सोनगरा ने पीछे हटने के स्थान पर शेरशाह के साथ युद्ध करने की ठानी । आखिर ये राजपूत वीर अपने ऊपर लगे विश्वासघात के आरोप को कैसे सहन करते | और उसके बाद मात्र दस हज़ार सैनिकों के साथ ये रणबाँकुरे शेरशाह की अस्सी हजार से ज्यादा की फौज़ से 4 जनवरी 1544 की सुबह सुमेल नदी के किनारे भिड ही गए | इतिहास में यह युद्ध गिरी-सुमेल के नाम से प्रसिद्ध है | 

‘तारीख़-ए-शेरशाही’ में ज़िक्र मिलता है कि संख्या में चौथाई से भी कम होने के बावजूद राजूपत दिल्ली की सेना पर इक्कीस साबित हुए थे | इसे देखते हुए एक अफ़गान सेनापति ने तो शेरशाह को मैदान छोड़ने तक की सलाह दे डाली थी। हताश होकर शेरशाह भी बीच मैदान मे ही अपने जीवन की आखिरी नमाज पढ़ने लगा, तभी ऐन मौके पर सेनापति जलालख़ां जलवानी नये ताजादम सैनिकों के साथ वहां आ धमका और पांसा पलट गया | अपने से चार गुनी फ़ौज से लड़ते हुए राजपूत पहले से थक चुके थे । और सेना आ जाने से शेरशाह में मानो नई दमखम आ गई | इसके बावजूद बादशाह की अस्सी हजार सेना के सामने राव कुंपा व जेता सहित सभी दस हजार राजपूतों ने मरणान्तक युद्ध किया | पुर्जा पुर्जा कट मरे, तौऊ ना छांडे खेत के अनुसार बादशाह की सेना के चालीस हजार सैनिकों को मारकर इन सभी ने वीर गति प्राप्त की | मातृभूमि की रक्षार्थ युद्ध में अपने प्राण न्योछावर करने वाले मरते नहीं वे तो इतिहास में अमर हो जाते है | लोक गायकों ने गाया - 

अमर लोक बसियों अडर,रण चढ़ कुंपो राव ! 

सोले सो बद पक्ष में चेत पंचमी चाव.....!! 

उपरोक्त युद्ध में चालीस हजार सैनिक खोने के बाद शेरशाह सूरी ने विचलित होकर कहा था - 

बोल्यो सूरी बैन यूँ , गिरी घाट घमसान 

मुठी खातर बाजरी,खो देतो हिंदवान 

कि मुठी भर बाजरे कि खातिर में दिल्ली की सल्तनत ही खो बैठता | 

अपने सरदारों के इस वीरतापूर्ण बलिदान के बाद मालदेव की आँखें खुलीं और उसका मन विषाद व पश्चाताप से भर गया | लेकिन अब पछताए होत का, जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत | इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा लिखते हैं कि ‘मालदेव अपनी शंकाशीलता के कारण ही गिरी-सुमेल के युद्ध में शेरशाह को परास्त नहीं कर सका | गिरी-सुमेल में अपने राजा की भूल की वजह से हुई कई प्रमुख राजपूत सरदारों और सैनिकों की मौत से बचे हुए राजपूतों में निराशा घर कर गई | बाद में शेरशाह ने जोधपुर पर हमला बोलकर उस पर कब्जा कर लिया, पराजित राव मालदेव उस समय तो मारवाड़ के राजाओं की संकटकालीन सरणस्थली राजधानी सिवाना पीपलोद के पहाड़ों मैं चला गया, लेकिन शेरशाह सूरी की मृत्यु हो जाने के बाद सन 1546 में उसने जोधपुर पर दुबारा अधिकार कर लिया। धीरे-धीरे पुनः मारवाड़ के क्षेत्रों को दुबारा जीत लिया गया। 

उसने अपने जीवनकाल में दिल्ली की गद्दी पर लोदी वंश का सितारा अस्त होते भी देखा, और हुमायूं को दोबारा गद्दी पर बैठते भी देखा | हुमायूं के बाद अकबर सिंहासन पर बैठा तो उसे याद रहा कि मालदेव ने उसके पिता को शरण देने से इनकार किया था, अतः बदले की भावना से सन १५६१ में उसने मारवाड़ पर आक्रमण किया | सबसे पहले मालकोट को घेरा गया, भीषण युद्ध के बाद ही वह बमुश्किल उस पर कब्ज़ा कर पाया | उसके बाद अकबर ने नागौर पर अधिकार किया | 7 दिसंबर 1562 को राव मालदेव का स्वर्गवास हुआ। इन्होंने अपने राज्यकाल में कुल 52 युद्ध किए। एक समय इनका छोटे बड़े 58 परगनों पर अधिकार रहा। फारसी इतिहास लेखकों ने राव मालदेव को “हिन्दुस्तान का हशमत वाला राजा" कहा है। इन्ही के पुत्र राव चंद्रसेन को " मारवाड़ का प्रताप " तथा "इतिहास का भूला बिसरा राजा" कहा जाता है, जिन्होंने आजीवन अकबर से संघर्ष किया था । उनकी कहानी अगले अंक में -
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1 टिप्पणियाँ

  1. सायोगीता ने अपने पिता के मौसेरे भाई से कैसे सादी की।

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