सेक्यूलर मीडिया का यह दोहरा मानदंड आखिर कब तक चलेगा ?



जय श्री राम कहोगे, मार दिए जाओगे। वे लड़कियां छेड़ेंगे यदि जुबान खोली तो कत्‍ल कर दिए जाओगे। एक के बाद एक घटनाओं को अंजाम दिया जाएगा और सेकुलर मीडिया खामोश रहेगा। कोई कुछ नहीं बोलेगा। दिल्‍ली के मंगोलपुर में रहने वाले रिंकू शर्मा (26 ) को बर्बरता से मार डाला गया। उन्‍हें मार डालने वाले पड़ोसी तथाकथित शांतिदूत थे। पुलिस ने चार आरोपियों जाहिद, मेहताब, दानिश व इस्‍लाम को गिरफ्तार कर लिया है। इस मामले में जो एक बात सामने आ रही है वह हैरान करने वाली है। जिस आरोपी इस्लाम ने रिंकू शर्मा की हत्या की उसी की पत्नी को रिंकू ने तीन साल पहले जिंदगी दी थी, यही नहीं कोरोना के दौरान आरोपी के भाई की भी मदद की थी। शायद पीठ में चाकू घोपना इसी को कहते हैं जो रिंकू के साथ हुआ। इस्लाम की पत्नी को तीन साल पहले रिंकू ने खून देकर उसकी जान बचाई थी। उस वक्त उसकी पत्नी बहुत बीमार थी और इलाज के लिए खून की जरूरत थी। तब रिंकू ने ही उसे खून देकर उसकी जान बचाई थी। सिर्फ पत्नी ही नहीं रिंकू ने इस्लाम के भाई की भी मदद की थी। पिछले साल इस्लाम का भाई कोविड ग्रस्त हो गया था तब रिंकू ने ही उसे अस्पताल में भर्ती कराने और बेहतर इलाज उपलब्ध कराने में मदद की थी। पर उसे क्या पता था कि जिसकी पत्नी और भाई की वह मदद कर रहा है एक दिन वही उसे मौत के घाट उतार देगा।

भले ही रिंकू ने कितनी ही मदद की हो, लेकिन शांतिदूतों की नजर में वह था तो काफिर ही | ऊपर से रिंकू बजरंग दल के सक्रिय कार्यकर्ता थे। पूरा परिवार बजरंग दल से जुड़ा है। वह राममंदिर निर्माण के लिए रामनिधि संग्रह के काम में भी जुटे हुए थे। कुछ माह पहले राममंदिर के लिए रैली निकालने में क्या शामिल हुए, इन लोगों ने गाँठ बाँध ली और दुश्‍मनी रखने लगे । परिजनों की माने तो परिवार की महिलाएं भी इस हत्‍याकांड में शामिल रही | जैसे बेटी से छेड़छाड़ का विरोध करने पर दिल्‍ली में धुव्र त्‍यागी की हत्‍या में चाकू मुस्लिम परिवार की महिलाओं ने ही लाकर दिया था। शायद ही किसी को याद हो कि 11 मई 2019 को दिल्ली के बसईदारापुर में मोहल्ले के ही एक आपराधिक मुस्लिम परिवार के युवकों ने ध्रुव त्यागी की बेटी से छेड़छाड़ की। जब उन्होंने एतराज किया, तो पूरा परिवार उन पर टूट पड़ा। 11 लोगों ने घेरकर ध्रुव त्यागी और उनके बेटे को चाकुओं से गोद दिया। चार महिलाएं भी इसमें शामिल थीं। ध्रुव का पेट चीर डालने के लिए बड़ा चाकू एक महिला ने ही घर से लाकर दिया था। रमजान के महीने में पूरा परिवार इस हत्या को अंजाम देने में जुटा था, लेकिन यहां किसी को ‘मॉब लिचिंग’ नहीं दिखाई दी थी।

ऐसा ही राहुल की हत्‍या में भी हुआ था। लेकिन ऐसे मामलों में सेकुलर मीडिया खामोश रहती है क्‍योंकि मरने वाला वाले हिंदू है और मारने वाले मुसलमान। लुटियन मीडिया, खान मार्केट गैंग सब खामोशी की चादर ओढ़े हुए रहते है। स्क्रीन काली कर डालने वाले, हर चीज में लिंचिंग ढूंढने वाले मीडिया के एक खास वर्ग के लिए यह खबर नहीं होती। सेकुलरिज्म का चश्मा लगाए चैनलों पर बहस करने वाले पत्रकार ऐसी घटनाओं पर खामोश हो जाते हैं। कथित बुद्धिजीवी दलीलें देते हैं कि मामले को हिंदू—मुस्लिम के नजरिए से न देखा जाए | मजहब, जात, सुविधा देखकर होने वाली पत्रकारिता को सलेक्टिव जर्नलिज्म न कहा जाए तो क्या कहा जाए ? इसी प्रकार सुविधा के हिसाब से मुद्दों को आलोचना के लिए चुनने वाले, सलेक्टिव क्रिटिसिज्म वाली जमात ही तो लंबे समय से देश के मीडिया पर काबिज है।

अपराध में जहां अल्पसंख्यक शामिल हों, उसके लिए इनकी परिभाषा बहुत सरल होती है। वे कहने लगते हैं कि अपराध का और अपराधियों का कोई मजहब नहीं होता। आखिर ये किस हिसाब से कथ्य निर्धारित करते हैं। लेकिन इसके विपरीत कोई सामान्य घटना भी हो, कोई चोर भी अगर रंगे हाथों पकड़ा जाए और समाज के कुछ लोग उसके साथ मारपीट कर दें, तो उसे लिचिंग का नाम दे दिया जाता है |

फरवरी 2018 में दिल्ली के एक मुस्लिम परिवार द्वारा अंकित सक्सेना की सरेराह हत्या कर दी गई थी। मुसलमान लड़की से दोस्ती के चलते दिल्ली में अंकित की हत्या को लेकर कथित सेकुलर मीडिया ने जिस तरह रिपोर्टिंग की थी उसे देखकर मीडिया का पक्षपातपूर्ण रवैया स्पष्ट नजर आता है। क्योंकि यहां मरने वाला हिंदू युवक था और मारने वाले मुसलमान, इसलिए यह खबर सेकुलर मीडिया के एजेंडे में फिट नहीं बैठी। इस खबर पर न चैनलों में पैनल बिठाए गए, न ही संपादकीय लिखे गए। वहीं 22 जून 2017 को ट्रेन में सीट के विवाद के चलते जुनैद की हत्या को तुरंत असहिष्णुता करार दे दियागया था। मीडिया ने इस मामले में यह धारणा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी कि भीड़ द्वारा नफरत के चलते मुसलमान युवक की हत्या की गई। ऐसा ही अखलाक और पहलू खान की हत्या के मामले में भी मीडिया ने किया था और मामले को पूरी तरह हिंदू और मुस्लिम बना दिया था।

अख़लाक़ और तबरेज की हत्या पर राजनीतिक रोटियां सेकने वाले लोग रिंकू शर्मा, अंकित सक्‍सेना और ध्रुव त्‍यागी की बर्बरता से की गई हत्‍याओं के बाद भी हिंदुओं के पक्ष में आवाज नहीं उठाते हैं।

हिन्दुओं के मारे जाने पर ये लोग चुप्पी साधे रहते हैं। हिन्दुओं की हत्याओं पर खास किस्म के संगठन कोई आंदोलन नहीं करते हैं। सेकुलर मीडिया भी खामोश रहता है। आखिर यह दोहरा मानदंड कब तक चलेगा ?
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