चंद्रशेखर आजाद, उनकी मशहूर पिस्तौल ‘बमतुल बुखारा’ और शिवपुरी जिले का खनियाधाना


शिवपुरी जिले का खनियाधाना स्वातंत्र्य समर का जीता जागता दस्तावेज है | न केवल खनियाधाना का राजपरिवार बल्कि यहाँ की आम जनता ने भी अंग्रेजों से दो दो हाथ किये थे | यहाँ तक कि जब अंग्रेजों ने तत्कालीन महाराजा खलक सिंह को उनकी विद्रोही गतिविधियों के चलते सत्ताच्युत कर दिया और प्रभुदयाल श्रीवास्तव को रेजीडेंट नियुक्त कर दिया तो छप्पन गाँव के किसानों ने अपनी छप्पन इंची छाती का परिचय देते हुए, फसल उगाना ही बंद कर दिया | लगातार दो वर्ष तक उनका यह अनूठा सत्याग्रह चला | नतीजतन फिरंगियों को झुकना पड़ा और महाराज खलकसिंह के अधिकार बहाल हुए |

तो बात इन्हीं खलकसिंह जी की है | खलकसिंह जी के पास कई कारें थीं | फोर्ड, बेबी हडसन और रोल्स रायस आदि आदि | इनमें से रोल्स रायस सर्विसिंग के लिए बुंदेलखंड गैराज के मालिक अलाउद्दीन के पास भेजी गई | कार जब ठीक हो गई और महाराज उसे लेकर झांसी से खनियाधाना रवाना हुए, तो अलाउद्दीन ने एक मेकेनिक साथ भेजा, ताकि रास्ते में अगर गाड़ी खराब हो जाए तो राजा साहब को कोई तकलीफ न हो | बबीना के पास महाराज खलकसिंह ने लघुशंका के लिए कार रुकवाई | किन्तु जब वे एक पेड़ के नजदीक पेशाब करने बैठे, तभी एक काला भुजंग सांप पेड़ की जड़ में से निकल आया | इसके पूर्व कि वह सांप महाराज को कोई नुकसान पहुंचा पाता, मैकेनिक ने बिना देरी किए तपाक से अपना तमंचा निकाला और सटीक निशाना लगाते हुए सांप को मार गिराया | उसका अचूक निशाना देखकर खलकसिंह हतप्रभ रह गए |

हैरानी के बीच राजा साहब के मन में मैकेनिक के प्रति संदेह भी हुआ | गाड़ी खनियाधाना के पास बसई गांव के रेस्टहाउस पर रुकी | राजा साहब मैकेनिक को लेकर एकांत में गए और उन्होंने पूछा, कौन हो तुम? और किस मकसद से मेरे पास आए हो ? राजा साहब ने कहा कि वो बिना किसी संकोच के उन्हें अपनी असलियत बता सकता है और वो इसके बारे में किसी से नहीं कहेंगे | तब मैकेनिक ने उन्हें अपना वास्तविक परिचय दिया |

वह शख्स और कोई नहीं, हमारे हरदिल अजीज महानायक चन्द्रशेखर आजाद ही थे, जो काकोरी काण्ड के बाद उन दिनों अंग्रजों की नाक के नीचे झांसी में कार मिस्री बनकर भूमिगत थे | बसई कोठी आज भी है, जहाँ खनियाधाना के तत्कालीन महाराज खलकसिंह और आजाद की प्रथम भेंट हुई थी | उस घटना के बाद तो चन्द्रशेखर आजाद और खनियाधाना का एक अटूट रिश्ता ही बन गया | खनियाधाना स्टेट के तत्कालीन राजा खलक सिंह जूदेव राष्ट्रभक्त हैं, यह जानकारी संभवतः आजाद को रही होगी और बहुत संभव है कि वे योजना के तहत ही उनके साथ मैकेनिक बनकर झांसी से निकले हों, ताकि राजा साहब से आर्थिक और शस्त्रों के लिए मदद ली जा सके | जो भी हो, आगे चलकर राजा साहब खलकसिंह, चन्द्रशेखर आजाद के सहयोगी तो बने ही |


जब जूदेव को आजाद की असलियत का पता चला तो वो उन्हें गोविंद बिहारी मंदिर का पुजारी बनाकर, पंडित हरिशंकर शर्मा का छद्म नाम देकर खनियाधाना ले आए | आजाद 6-7 महीने खनियाधाना के गोविंद बिहारी मंदिर में रुके | रात को वो मंदिर में रहते और दिन में तीन किलोमीटर दूर सीतापाठा मंदिर की पहाड़ी पर चले जाते और अपने बनाए बमों का परीक्षण करते या मास्टर रुद्रनारायण, सदाशिव मलकापुरकर और भगवानदास माहौर जैसे अपने कई क्रांतिकारी साथियों को बन्दूक चलाने की ट्रेनिंग देते | उन्हें बम बनाने का जरूरी सामान राजा खलकसिंह उपलब्ध करा देते थे | उनके टेस्ट किए बमों के निशान आज भी सीतापाठा की चट्टानों पर मौजूद हैं, हालांकि देखभाल के अभाव में ये निशान धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं | अपने अंदर भारतीय क्रांतिकारी इतिहास समेटे, खुले आसमान के नीचे बिखरे इन निशानों की देखभाल करने वाला कोई नहीं है | इनके बारे में बताने वाले भी धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं |

उन दिनों एक बारह वर्षीय बालक नाथूराम छापकार उनकी सेवा टहल को तैनात रहता था | जिन्हें बाद में लोगों ने उसी सीतापाठा शिव मंदिर में सन्यासी जीवन जीते देखा | नाथूराम ही क्यों, महाराज खलकसिंह भी आजाद की शहादत के बाद सन्यासीवत ही हो गए और अंततः 1935 में महल छोड़कर बसई के राममंदिर में ही रहने लगे | उनके उत्तराधिकारी बेटे देवेन्द्र प्रताप की मार्च १९६८ में केंसर के चलते असामयिक मृत्यु होने पर भी खलकसिंह खनियाधाना राजमहल में नहीं आये | 26 मई 1975 को ९५ वर्ष की आयु में उनका भी स्वर्गवास हुआ | आजादी के बाद सरकार का आग्रह होने पर भी खलकसिंह जी ने स्वतंत्रता सेनानी होने का कोई सम्मान लेने से साफ़ इनकार कर दिया था |

आज हम जो अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद का मूंछ मरोड़ते हुए फोटो देखते हैं, वह भी महाराज खलकसिंह के चित्रकार मम्मा जू ने ही बनाई थी | आजाद ने पहले तो तस्वीर बनवाने से स्पष्ट इनकार ही किया, लेकिन खलक सिंह जूदेव के आग्रह पर आजाद राजी हुए |


इस ऐतिहासिक तस्वीर में आजाद के साथ एक और अहम चीज दिखाई देती है, वह है आजाद की कमर में रौब से लटका उनका ‘बमतुल बुखारा’, यही कहकर तो पुकारते थे आजाद अपनी पिस्तौल को | इस पिस्तौल की भी एक कहानी है | आजाद ने एक दिन राजा खलक सिंह जूदेव से एक अंग्रेजी पिस्तौल का आग्रह किया, खलक सिंह ने अपने प्रिय मित्र की इच्छा का मान रखते हुए राज्य को एक जैसी दो रिवॉल्वर खरीदने का आदेश दिया | उन दिनों ऐसी आधुनिक रिवॉल्वर खरीदने के लिए वायसराय की अनुमति लेनी होती थी और उसे खरीदने का कारण बताना होता था | राजा खलक सिंह जूदेव के पत्र पर रिवॉल्वर खरीदने की इजाजत मिल गई और एक जैसी गोलियों वाली दो रिवॉल्वर खरीदी गईं | राज्य के शस्त्र रिकॉर्ड में आमद दर्ज होने के बाद राजा खलकसिंह ने अपने रोजनामचे में शिकार खेलने जाने की रवानगी डाली और दूसरे दिन लौटकर रोजनामचे में लिखा कि शिकार खेलते समय नदी के ऊपर से उनके घोड़े ने छलांग मारी और इस दौरान रिवॉल्वर कमर से छूटकर नदी में गिर गई | इसके बाद गोताखोरों से बहुत खोज कराई गई, लेकिन रिवॉल्वर नहीं मिली |

वही रिवॉल्वर गोविंद बिहारी के मंदिर में आजाद को सौंपी गई | जूदेव ने एक जैसी दो रिवॉल्वर इसलिए ली थीं, ताकि उसके लिए गोलियां ली जाएं और आजाद को दी जा सकें | आजाद नहाकर आए थे तब उन्होंने उस रिवॉल्वर को लिया और अपनी कमर में बांधकर मूछों पर ताव देते हुए अपना फोटू खिंचवाया | आजाद की शहादत के बाद उनकी बंदूक आज प्रयागराज के म्यूजियम में है |

समय समय पर उक्त घटनाक्रम का विवरण शिवपुरी के पत्रकार श्री प्रमोद भार्गव और साहित्यकार श्री अरुण अपेक्षित द्वारा प्रकाशित करवाया गया |

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