राजनीति की अंधियारी गलियों में जगमगाते दीप - वाह बिहार



विगत कई वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि चुनावों में एंटी इंकम्बेंसी फेक्टर प्रभावी रहता है। इसके चलते राज्यों में एक दल के स्थान पर दूसरे दल की सरकार बन जाती है। गाहे बगाहे सत्तारूढ़ दल ही दुबारा भले ही सत्ता में आ जाए किन्तु उसके कई किले तो ढह ही जाते हैं। अनेक मंत्री चुनाव हार जाते हैं। इसके पीछे का कारण खोजें तो लगता है, मंत्री बनने के बाद आम जन से दूरी के साथ साथ उनके चुनाव क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की ईर्ष्या भी एक कारण रहता है। इसी सन्दर्भ में मुझे एक रोचक संस्मरण याद आता है। बात २०१० में हुए बिहार चुनाव की है। उन दिनों में भाजपा में सक्रिय था और तत्कालीन प्रदेश संगठन महामंत्री श्री अरविंद मेनन के आग्रह पर बिहार गया था। 

चुनाव अभियान के दौरान मेरी भेंट एक अनोखी शख्सियत से हुई, जिन्हें मैं शायद ही कभी भूल पाऊँ | राम पदार्थ सिंह, पूर्वी चंपारण के छोटे से ग्राम बारां जयराम के पूर्व सरपंच, शिक्षा मात्र मेट्रिक तक लेकिन हरफनमौला व्यक्तित्व | संगीत पर गहरी पकड़ सुमधुर बांसुरी बादक, योगासनों के जानकार, भोजपुरी के स्वान्तः सुखाय कवि, जहाँ भी बैठते हैं हास्य कि फुलझडीयाँ छूटती रहती हैं | मैंने बिहार के संस्मरण के रूप में उनकी एक कविता आग्रह पूर्वक नोट की -

लिखनी पढ़नी एकै साथै, खिलनी सांझ विहान, 

तू सत्ता की कुर्सी पैग्यो हम रह गए किसान |

पांच बरस मैं जे तू पहला, हम आज तलक ना पहनी,

तू मैट्रिक में फ़ैल, हम बी ए करके अब का कहनी |

तोहरा पीछे दस बीस डोले, हमारा के के पूछे,

टाट से बन गी महल अटारी, हमरा फूस का फूसे |

तोहर कार कतार में घूमे, हमर साइकिल पंचर वा,

कितना भारी अंतर वा, ई कोइ जादू मंतर वा ?

टी वी पर दिख्वैला बिटुआ, तोहर राम कहानी,

होत सबेरे हमर लड़कुला भरे नांद मैं पानी |

चूना से पोतल घर तोहर बिजली सन चम् चम् चमकेला,

हमरा दवरा डिबिया टिम टिम, सांझे दम टोएला |

जेठ के तांतड दोपहरिया करी हम हरवाई,

तोरा ऊपर तांगड़ बिजली के फायर पंतरवा |

कितना भारी अंतर वा, ई कोइ जादू मंतर वा ?

बन्गलौडी साड़ी के ऊपर काश्मीर के शौल,

हमरा महरी के चुनरी मैं, पिउन भई मुहाल |

देश विदेश तोहरे महरी घूमे,रहके एकै साथे,

हमर महरी घान्म में जरके रोज गुराहा पाते |

डालडा हमरा मुहाल भई वा, तोरा भइल घी के कन्टरवा |

कितना भारी अंतर वा, ई कोइ जादू मंतर वा ?

सुनत रही आजादी मिली, सबहू एक समान,

हर खेत का पानी मिली, हर हाथ का काम |

उल्टा भइल काम सब गड़बड़, बात समझ नहीं आवे,

देश के रक्षक देश के लूटे, उलटे आँख दिखावे |

झूठल तोहरवा मंच बनलवा,सांचला हमरा हंटल वा |

कितना भारी अंतर वा, ई कोइ जादू मंतर वा ?

मुझे लगता है यह कविता गागर में सागर है। मंत्रियों के प्रति केवल ईर्ष्या ही नहीं बल्कि उनकी अपनी करतूतें भी पराजय का कारण बनती हैं। खैर मैं तो बात बिहार की कर रहा हूँ। यूं तो २९ सितम्बर २०१० से २२ अक्टोबर २०१० तक के मेरे बिहार प्रवास के दौरान बहुत से नए मित्र बने किन्तु मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया श्री सत्य नारायण बैठा ने | जनता दल यू के महादलित प्रकोष्ठ के चिरैया प्रखंड अध्यक्ष श्री बैठा इंटर तक शिक्षित हैं | लेकिन मुझे प्रभावित किया उनके आचार व्यवहार ने, उनके पठन पाठन ने | महादलित समाज के व्यक्ति किन्तु शुद्ध शाकाहारी और निर्व्यसनी | शराब तो दूर खैनी तम्बाकू से भी कोई वास्ता नहीं | जिस क्षेत्र में मैं था वहां ब्राह्मण भी मांसाहार वा मछली का प्रयोग बहुतायत से करते मुझे मिले, किन्तु श्री बैठा तो अलग ही दुनिया के जीव है | उनकी पत्नी और बच्चे भी शुद्ध शाकाहारी | ना केवल रामायण एवं गीता उनके पूजा के स्थान पर सादर स्थित है वरन स्वामी दयानंद जी का सत्यार्थ प्रकाश भी वहां है | ये केवल दिखावा नहीं था | बैठा नियमित उनका स्वाध्याय भी करते हैं और अन्य लोगों के साथ अपनी भोजपुरी भाषा में उसे शेअर भी करते हैं | संघर्ष शील और जुझारू भी है बैठा जी | मेरे सामने ही वे प्रयत्न शील थे एक यादव दबंग से एक गरीब ब्राह्मण को बचाने के लिए , जो उसकी फसल काटने के फेर में था | मैं तो उनकी सात्विकता और धार्मिक आचरण का लोहा मान गया |

पता नहीं आपको ये संस्मरण रुचिकर लग रहे होंगे या नहीं, लेकिन शीर्षक में जो दीपक का वर्णन है वह तो हो गया किन्तु राजनीति की अंधेरी गली का जिक्र अभी अधूरा है। बिहार का मेरा पूरा संस्मरण सुनकर आपको समझ आ जाएगा।

२९ सितम्बर २०१०, पूरे देश मैं तनाव और आंशिक दहसत | आखिर राम जन्म भूमि प्रकरण में न्यायालय का फैसला जो आने वाला था | पटना बस स्टेंड पर मोतीहारी जाने वाली बस का समय था दोपहर एक बजे , लेकिन बस में एकमात्र सवारी मैं स्वयं | वेचारे कंडक्टर इस इंतज़ार में कि सवारी कुछ और आ जाएँ तो वह आगे बढे | आखिर २ बजे तक मुजफ्फरपुर की चार सवारी और आईं और बस आगे बढी | मुजफ्फरपुर के बाद तो मैं अकेला ही यात्री रह गया मोतिहारी जाने को | आखिर रात साढ़े नौ बजे मोतिहारी पहुंचा |

रात भाजपा कार्यालय में गुजारी | राधामोहनसिंह जी ने अपना आवास ही कार्यालय को दिया हुआ था | तो आज मैं सगर्व कह सकता हूँ कि मैंने एक दिन भारत सरकार के एक मंत्री जी के घर वतौर अतिथि रहने का सौभाग्य प्राप्त किया था | मध्यप्रदेश से चुनाव सहयोगी के रूप में गए कार्यकर्ताओं को दिशा निर्देश देने का कार्य तत्कालीन संगठन मंत्री श्री अरविन्द मेनन सम्हाल रहे थे | उन्होंने ही अगले दिन मुझे बताया कि मुझे चुनाव तक चिरैया विधानसभा क्षेत्र में रहना है | राधामोहन जी भी उस समय वहीं बैठे हुए थे | चिरैया का नाम सुनते ही वे मुस्कुरा कर बोले, ये बेचारे चुनाव तक कहाँ टिक पायेंगे, दो चार दिन रहकर वापस आ जायेंगे | जिसे संगठन ने प्रत्यासी बनाया है, वह तो हमें भी कुछ नहीं गिनता |

खैर मैं इस चुनौती को स्वीकार कर 30 सितम्बर को शाम तक चिरैया पहुँच ही गया | मेरा पहला पड़ाव श्री लालबाबू प्रसाद गुप्ता के यहाँ हुआ | रात को तो दाल रोटी गृहण कर गुप्ता जी के दालान में विश्राम के नाम पर करवटें बदलीं | किन्तु सुबह का दिलकश नजारा देखकर मन प्रसन्न हो गया | जहाँ तक नजरें जाती थीं, कुहरे की चादर में लिपटे हरे भरे खेत |

दूसरे दिन मेरी भेंट पहली बार भाजपा प्रत्यासी अवनीश सिंह जी से हुई | दसों उँगलियों में मोटी मोटी रत्न जटित अंगूठियाँ, एक हाथ में सोने का कड़ा, गले में भी स्वर्ण की मोटी चैन | मुझे लगा कि कम से कम आधा किलो सोने का बजन तो उनका शरीर अवश्य ही झेल रहा होगा | उनके सामने अनेक कार्यकर्ता खड़े हुए थे, मैंने स्वयं को सौभाग्यशाली माना, जब उन्होंने मुझे बैठने को कहा |

दयानतदारी दिखाते हुए उन्होंने कहा कि शर्मा जी यह इलाका रणवीर सेना का है, इसलिए बेहतर होगा, कि आप अकेले कहीं न जाएँ | एक बुजुर्ग कार्यकर्ता तिवारी जी की उन्होंने ड्यूटी लगा दी कि वे मेरे साथ साए की तरह रहें | सवाल उठा कि मैं रहूँगा कहाँ ? अवनीश जी ने कहा, शर्माजी यहाँ की गुटबाजी को देखते हुए, किसी कार्यकर्ता के यहाँ रहने की राय तो मैं नहीं दूंगा | विधानसभा भले ही चिरैया है, लेकिन आप ढाका में रहकर ही चुनाव का काम सम्हालें | वहां से सम्पूर्ण विधानसभा तक आपकी पहुँच रहेगी |

मुझे तो उनकी व्यवस्था माननी ही थी | तिवारी जी के साथ ढाका पहुंचा | कुछ कार्यकर्ताओं से भेंट हुई | उनकी तरफ से घरों में ही रुकने का आग्रह भी हुआ, किन्तु मैंने सविनय मना ही किया | अंततः मुझे एक पुरानी धर्मशाला में ठहरा दिया गया | धर्मशाला कुछ वर्ष पूर्व अग्निकांड का शिकार होकर उजाड़ पड़ी थी | ऊपर की मंजिल का एक कमरा मेरे लिए खोल दिया गया | दिन तो सबसे मिलते जुलते बीत गया, पर रात को जब धर्मशाला के कमरे में पहुंचा तो मालूम हुआ जैसे मैं अतिक्रामक हूँ | कमरे के मूल निवासी तो छिपकली और काक्रोच थे | किसी एक कमरे में इतने ये प्राणी, इसके पूर्व मैंने कभी नहीं देखे थे | सामाजिक जीवन का यही तो आनंद है, मानकर उसी कमरे में पूरे एक माह रहा | बिहार का वह क्षेत्र अमूमन मांसाहारी है, अतः मुझे अधिकांशतः बिस्कुट और चनों पर ही पूरा महीना गुजारना पड़ा | जब कभी कोई कार्यकर्ता भोजन हेतु बुलाता भी था, तो उस बेचारे को मेरे चक्कर में उस दिन बेस्वाद घान्सफूस खाने पड़ते थे, तो एक बार के बाद दुबारा किसी ने कभी बुलाया भी नहीं |

मेरे परिश्रम से अभिभूत अवनीश सिंह जी के परिवार ने विदा देते समय पांच कपडे भेंट किये, स्वयं गृहस्वामिनी ने अपने करकमलों से परोस कर मुझे भोजन कराया | मोतीहारी तक जीप से छोड़ने गए तिवारी जी ने भी अश्रुपूरित नयनों से मुझे विदाई दी | मोतीहारी में एक बार फिर राधामोहन जी से भेंट हुई | उन्हें मेरे अनुभव सुनकर आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता हुई |

मैं तो शिवपुरी लौट आया, बाद में ज्ञात हुआ कि अवनीश सिंह लगभग 15 हजार वोटों से विजई हुए | उनका धन्यवाद का फोन भी आया | हालांकि वे बाद में भाजपा छोड़कर जनता दल यू में शामिल हो गए और लोकसभा चुनाव लड़कर परास्त हुए |

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