भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार आधुनिक भारत के सांस्कृतिक इतिहास के महाप्रणेता - संजय तिवारी

 

प्रेम भक्ति और ज्ञान‚ जो सनातन का तत्व है‚ के आधुनिक चैतन्य वह रससिक्त संत हैं। श्री हरि के विशेष कृपापात्र हैं। ऋषि शिरोमणि नारद जी के मित्र हैं। श्री राधामाधव के अनुरागी हैं।  आधुनिक चैतन्य हैं। भारत की स्वाधीनता संग्राम के योद्धा तो हैं ही , उससे भी बहुत बड़े वह सनातन संस्कृति के संवाहक बनकर ठीक उसी कालखंड में सनातन की स्थापना का युद्ध भी लड़ रहे होते हैं।  भाई जी इसमें बहुत हद तक सनातन की रक्षा भी करते हैं। वह तुलसी पद गायक और मानस के प्रचारक हैं। धरती की आलौकिक विभूति हैं। उन्होंने इस धरा धाम पर जो लीलायें की हैं उनका गान शब्द सीमा में संभव नहीं है। भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार के भौतिक जीवन को देखना और  उनकी आध्यात्मिक क्षमता का मूल्यांकन करना लगभग उसंभव है। उनकी रस निमग्न दृष्टि और उनके रसार्द्र हृदय को बांचना स्वयं में एक अनाधिकार प्रयत्न्न है। उनकी सृजन शैली और रचना धर्म के आधार को स्वयं उन्हीं के शब्दों में समझा जा सकता है –

''लिखता लिखवाता वही‚ करता करवाता वही।
पता नहीं क्या गलत है‚ पता नहीं क्या है सही।।''

भाईजी के कार्यो का मूल्यांकन करने के लिए जितने ज्ञान और शक्ति की आवश्यकता है वह तो मुझमे बिलकुल भी नहीं है लेकिन साहस बटोर कर एक वाक्य में कह सकता हूँ कि जिन क्षणों में देश ब्रिटिश हुकूमत से स्वाधीन होने का युद्ध लड़ रहा था ठीक उसी समय भाई जी भारत की महान सनातन संस्कृति को उसके मूल मेंस्थापित करने और इस पर काबिज लगभग एक हजार वर्षों की पराधीनता से भारतीयता को मुक्त कराने का युद्ध लड़ रहे थे। यह कोई सामान्य घटना नहीं है। इसीलिए भाई जी को लेकर मेरे मन में किसी प्रकार का संशय नहीं है। गोस्वामी तुलसी दस जी महाराज ने श्रीरामचरित मानस लिखा लेकिन उसको विश्व के कोने कोने तक पहुंचाया श्री भाई जी ने। मानस को प्रामाणिक रूप देने के लिए उनके जो प्रयास है वह अद्भुत है। चित्रकूट, अयोध्या, राजापुर, काशी आदि स्थानों पर खुद जाना , वह लोगो के पास रखी पांडुलिपियों का संग्रह करना और फिर सभी को मिला कर शुद्ध संस्करण प्रकाशित करना कोई सामान्य बात नहीं थी। यही कार्य उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता , श्रीमदबाल्मीकीय रामायण सहित सनातन के सभी मूल ग्रंथो को लेकर किया। कल्याण का सम्पादन उनका मूल दायित्व था लेकिन जिस प्रकार से गीता प्रेस के संचालन में उन्होंने अपनी ऊर्जा लगा कर ६०० से अधिक की संख्या में सनातन ग्रंथो को सामान्य जन तक पहुंचाया वह अत्यंत विलक्षण कार्य है।  विलक्षण इसलिए भी क्योकि जिस दौर में श्री भाई जी कार्य कर रहे थे ठीक उसी समय सनातन संस्कृति को विकृत करने वाले अनेकानेक पंथ और सम्प्रदाय भी सक्रिय  थे।  यह बहुत बड़ी चुनौती थी।

वह केवल एक प्रकाशन संस्थान या पत्रिका का संचालन ही नहीं कर रहे थे बल्कि इतना बड़ा युद्ध भी लड़ रहे थे जिसकी कल्पना तक हम नहीं कर सकते।  यह आज कोई सोच भी नहीं सकता कि १९२६-२७ के समय में गोरखपुर जैसे अति पिछड़े नगर में रह कर विश्व संस्कृति की स्थापना का इतना बड़ा आंदोलन चलाया जा सकता है। न सड़क, न बिजली, न पानी, न आवागमन के पर्याप्तसाधन, न धन सम्पदा और नहीं अनुकूल परिवेश। पराधीन भारत के अत्यंत विषम परिवेश में जब वह किसी से सनातन की चर्चा करते होंगे तो क्या प्रतिक्रया होती होगी , इसकी कल्पना की जा सकती है। वही दौर था जब बंगाल में सर्वाधिक सक्रिय  पंथ और संगठन भी कार्य कर रहे थे।  वही समय  था जब देश के सामने केवल स्वाधीन भर होजाने यानी अंग्रेजो के शासन से मुक्त होजाने का लक्ष्य था। वह केवल भाई जी थे जिनको श्री जयदयाल जी गोयन्दका जैसे संत पुरुष का सानिध्य मिला और वह सनातन संस्कृति के पुनर्निर्माण में जुट गए। यह सोच कर ही अचरज होता है कि यदि घर में कलयाण न पहुँचता और गीताप्रेस जैसे संस्थान की अति सक्रियता न होती तो आजादी मिल जाने के बाद भी क्या भारत के लोग अपनी मूल सनातन संस्कृति को उतना भी जान पाते जितना आज जान रहे हैं।  क्योकि देश में आजादी के बाद जो भी लिखा , पढ़ा और पढ़ाया गया उसमे सनातन के तत्व तो शून्य ही रहे। वह तो गीता प्रेस ही है जिसके प्रकाशनों के माध्यम से सनातन के सिद्धांत और उसके सांस्कृतिक स्वरुप को लोग समझ पाए और अब इसमें और अधिक रूचि पैदा हो गयी है। 

 सनातन संस्कृति के भाव प्रणेता 

कल्पना जीजिए , श्री भाई जी उस काल खंड में न होते तो ॽ श्रुति , स्मृति, उपनिषद् , पुराण और सनातन के इतिहास की पुअरस्थापना कितनी कठिन हो जाती। उनके अभाव में एक सामान्य हनुमान चालीसा तक अपने हाथ होनी कठिन होती। सनातन की चेतना ,सनातन का प्रेम , भक्ति , समर्पण और अनुराग की भाव गंगा कैसे प्रवाहित हो पाती।

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