कालजयी साहित्यकार 'जयशंकर प्रसाद" पर लिखे आलोचना ग्रन्थ पर बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय में हुआ विमर्श।



भारत अध्ययन केंद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और महाकवि जयशंकर प्रसाद फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में प्रोफेसर करुणाशंकर उपाध्याय के आलोचना ग्रंथ 'जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम' पुस्तक पर गम्भीर, सार्थक और ज्ञानवर्धक परिचर्चा संपन्न हुई। कार्यक्रम की अध्यक्षता संस्कृत के प्रकांड विद्वान एवं  समन्वयक, भारत अध्ययन केंद्र डाॅ. सदाशिव कुमार द्विवेदी ने की। मुख्य अतिथि के रूप में डॉ दयाशंकर मिश्र 'दयालु' राज्य मंत्री आयुष ,खाद्य सुरक्षा और औषधि प्रशासन स्वतंत्र प्रभार, उ. प्र. सरकार उपस्थित थे।

महाकवि जयशंकर प्रसाद के प्रपौत्र और महाकवि  जयशंकर प्रसाद फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी विजयशंकर प्रसाद ने कहा कि यह पुस्तक पढ़ने के बाद मुझे ऐसा लगा जैसे लेखक ने प्रसाद को आत्मसात कर लिया है और यह मेरी दृष्टि में प्रसाद पर लिखा गया अब तक का सर्वश्रेष्ठ आलोचना ग्रंथ है। उन्होंने कहा कि जैसे चित्रकार अपनी कूंची से बड़े फलक पर काम करता है वैसे ही प्रसाद का कैनवास बहुत विस्तृत है। उन्होंने चम्पू काव्य से शुरुआत करके महाकाव्य तक रचा। साहित्य की सभी विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई। 

तत्पश्चात् विशिष्ट वक्ता के रूप में डॉ आनंद सिंह (कवि, आलोचक और पूर्व प्रोफेसर,भोपाल) ने कहा कि यह एक अत्यंत गंभीर और महनीय कार्य है। उन्होंने इस पुस्तक के पहले भी प्रसाद पर लिखी गईं अनेक आलोचना पुस्तकों का संदर्भ दिया जिसमें, नंददुलारे वाजपेयी, डॉ नगेंद्र, मुक्तिबोध, रमेशचन्द्र शाह, विजय बहादुर सिंह की पुस्तकों को महत्वपूर्ण बताया साथ ही करुणाशंकर जी की पुस्तक की प्रशंसा करते हुये कहा कि इस पुस्तक के द्वारा हम प्रसाद जी की विराटता और गहराई का अध्ययन समग्रता के साथ कर सकते हैं। 

अगले वक्ता के रूप में डॉ० अजीत कुमार पुरी ने अपने व्याख्यान के माध्यम से प्रो० करुणाशंकर के धैर्य और परिश्रम की बात बताई कि यह पुस्तक उनकी लगभग 31 वर्षों की मेहनत का परिणाम है। कार्यक्रम की इसी कड़ी में अगले वक्ता के रूप में आनंदप्रकाश त्रिपाठी- (वरिष्ठ प्रो. अध्यक्ष हिंदी व संस्कृत विभाग, सागर) ने कहा कि "जयशंकर प्रसाद भवभूति की तरह इस प्रतीक्षा में रहे होंगे कि मेरे काव्य को समझने वाला समानधर्मी आलोचक कहीं तो जन्म लेगा।"

वे आगे कहते हैं कि उपाध्याय जी ने प्रसाद के साहित्य के प्रतिमान बनाने का काम किया। वास्तव में प्रसाद को समझना कठिन है और उन्हें समझने के लिये प्रसाद के मानसिक धरातल तक पहुंचना पड़ता है तब रचना का तादात्म्य होता है। इसके लिए आंतरिक संलग्नता आवश्यक है। करुणाशंकर जी की स्थापनाएं सम्पूर्ण हिंदी साहित्य को आंदोलित करने वाली हैं। प्रसाद और गांधी में समानता स्थापित करते हुए उन्होंने कहा कि गांधी जिन समस्याओं का समाधान 'राजनीति' के माध्यम से खोजते हैं, वही कार्य  प्रसादजी  'साहित्य' के माध्यम से करते हैं।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ दयाशंकर मिश्र'दयालु' जी ने पहले ही यह बात स्पष्ट कर दी कि ऐसे कार्यक्रमों में राजनीतिक व्यक्तियों को बुलाने से समय की बर्बादी ही होती है, क्योंकि उनका अध्ययन-अध्यापन से नाता न के बराबर हो जाता है, परन्तु यह भी वस्तुतः एक समन्वय का भाव है क्योंकि राजनीति हमारे समाज को प्रभावित करती है और साहित्य समाज की प्रतिकृति है। उन्होंने कहा कि प्रोफेसर उपाध्याय का यह ग्रंथ प्रसाद के साथ भारत बोध और भारतीय ज्ञान परंपरा को भी सामने लाता है।

इसके उपरांत लेखकीय वक्तव्य देते हुए प्रोफेसर करुणाशंकर उपाध्‍याय प्रसाद और उनकी रचनाओं से संबंधित बहुत ही गहरी और महत्वपूर्ण बातों को रखा। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध सही मायने में प्रसाद परंपरा के कवि-आलोचक हैं। इनके अनुसार पूरे विश्व की किसी भी भाषा में प्रसाद जैसा कवि नहीं है, विशेष रूप से कामायनी के लज्जा सर्ग के टक्कर की पंक्तियां विश्व के किसी भी महाकवि के पास नहीं है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मैं प्रसाद को विश्व का सबसे बड़ा कवि मानता हूँ। मेरे कहने का आशय केवल यही है कि एक मोर्चा ऐसा है जहां विश्व का कोई भी कवि प्रसाद का सामना नहीं कर सकता।मैंने विश्व के 15 सबसे महान कवियों का अध्ययन और तुलना करने के बाद बीसवीं सदी का सर्वश्रेष्ठ कवि प्रसाद को घोषित किया है। उन्होंने कहा कि हम भारतीय अपनी प्रतिभा को सराहने में बहुत कंजूस हैं। प्रसाद केवल कवि नहीं बल्कि वैदिक परंपरा के कवि हैं। वह ऋषि की भांति काव्य, विज्ञान, दर्शन, छंद, संगीत, कला सबको समन्वित व संश्लिष्ट रूप में अपने काव्य में लाते हैं। जिसने भारतीय ज्ञान परंपरा का अध्ययन नहीं किया और जिसके पास एक अंतर्दृष्टि, विश्वसंदृष्टि और उदात्त जीवन बोध नहीं है वह प्रसाद को नहीं समझ सकता। 

अंत में अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रोफेसर सदाशिव द्विवेदी संस्कृत की सूक्ति के द्वारा भगवान विश्वनाथ की वंदना करते हुये सभी वक्ताओं की बातों का सार प्रस्तुत करते हुए कहते  हैं कि हम राजनीतिक गुलामी से भले आक्रांत रहे, पर सांस्कृतिक रूप से गुलाम कभी नहीं थे। प्रसाद के वांग्मय की भांति डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय का यह कार्य भी कालजयी है। ऐसे आलोचना ग्रंथ पर विमर्श के लिए हिंदी के लोग भारत अध्ययन केंद्र आए यह हमारे लिए उपलब्धि है। डाॅ.अमित द्विवेदी ने कार्यक्रम का सुंदर संचालन किया।यह परिचर्चा कई मायनों में महत्वपूर्ण है। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के  आचार्य, शोधार्थी और विद्यार्थी भारी संख्या में उपस्थित थे।

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